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यात्रा

“स्काइप काम कर रहा है आपका?”

“जी”

“सिग्नल्स आपके तो ठीक आ रहे हैं।” मेरे लैपटॉप में झांकते-झांकते गिरने ही वाली थी कि संभाल लिया था उसने आपने आप को।

गोल मटोल सी, घुंघराले बाल वाली कोई फिर फिरंगन थी, ये तो मैंने देख लिया था।

सन् २००८, महीना अक्टूबर, सुबह के करीब ११ बजे, तारीख याद नहीं

बैंकॉक के स्वर्णभूमि हवाईअड्डे के गेट नंबर १८ के सामने बैठे-बैठे करीब दो घंटे हो चुके थे और अगली फ्लाइट में बोर्डिंग के लिए अभी लगभग दो घंटे थे।

मेरी अगली फ्लाइट कंबोडिया के लिए थी जहाँ मेरी तैनाती हाल में ही हुई थी। तैनाती क्या हुई थी, मुझे दूसरा जीवनदान मिला था। आगे के सारे रास्ते बंद हो चुकने पर, अगले महीने की गाड़ी की किस्त चुकाने के बारे में सोचते-सोचते जब पसीने की बूंद ने सिगरेट की उस आख़िरी टुकड़े पर गिर कर अपने को धुएं में बदलने की तैयारी की थी, तब वो कॉल आई थी।

“काम करोगे फिर से?”

अंधे ने झपट कर आँखें पकड़ ली थी। जाना मलेशिया था, जाना पड़ा इंडोनेशिया और क्यूं पहुंच गए कंबोडिया की कहानी फिर कभी सुनाऊंगा। 

हाँ तो जनाब मैं बैठा था गेट नम्बर १८ के सामने और वो बैठी थी मेरे से करीब पाँच-छः फिट दूर!

मैं स्काइप पर अपनी बिटिया से गप्पें मार रहा था तभी अचानक उस गोलू-मोलू से बात शुरू हुई थी।

“आपकी बेटी?” सवाल आया।

जब तक मैं लैपटॉप बंद कर चुका था।

“जी!”

“वेरी क्यूट!”

“जी शुक्रिया!”

“आप कहाँ जा रहे हैं?”

गेट नंबर १८ और १९ आजू बाजू थे तो सवाल सही पूछा गया था। कम से कम उस सवाल से तो सही था जब दिल्ली से इलाहाबाद जाने वाली फ्लाइट में आपसे कोई ये पूछे कि इलाहाबाद जा रहे हैं आप?

“जी, नोम फें!” (कंबोडिया की राजधानी)

“अरे वाह, मैं भी!”

“(मुस्कुराहट)” 

“आप वहीं काम करते हैं?”

और फिर सिलसिला चालू हुआ। बैग पैकर थी वो लड़की जो छह महीने काम करती थी, पैसे जोड़ती थी और १५ दिन की घुमक्कड़ी पर निकल जाती थी।

और करीब १५-२० मिनट बाद मैंने भी पूछ लिया,

“आप कहाँ से आ रही हैं?”

“देल्ही!”

“क्या देखा आपने वहाँ?”

“कुछ नहीं।”

“मतलब?”

“मैं वहाँ घूमने नहीं गई थी।”

“अच्छा तो आप  ताज देख कर आ रही हैं।”

“जी नहीं!”

“जयपुर? जैसमलर…?” 

सारे नाम गिना डाले मैंने पर वहाँ से जवाब मुस्कुराते हुए “ना, ना” ही आ रहा था।

“ओरछा गई थी मैं!” 

“क्या……….? मैं इतनी ज़ोर कर चौंका कि लैपटॉप गोद से गिरते-गिरते बचा था।

“पहले तो चार दिन खजुराहो में थी और उसके बाद ओरछा दो दिन रुकी थी। मन तो वहीं रुकने का था पर इस बार जल्दी वापिस जाना था, लेकिन मैं फिर जाऊंगी।”

“…………”

“आप भारत में कहाँ से हैं?”

“वहीं से जहाँ से आप हो कर आ रही हैं।” कूद कर बोला मैं।

“ओरछा?”

“झाँसी!” मुस्कुराया मैं।

“ओह माई गॉड!”

“येस, ओह माय गॉड ही है।”

“बहुत छोटी दुनिया है ना?”

ये सब बातें तो होनी ही थी पर अभी वो लम्हा आने वाला था जिसने मुझे बदल कर रख दिया। मेरी एक बड़ी शिकायत रहती थी कि “बोर” होता रहता हूँ। पर इस दिन के बाद से मुझे लगता है कि मेरे पास अब वक़्त बहुत कम रह गया है और काम बहुत करना है।

अगला सवाल आया,

“झाँसी का किला देखा है आपने?”

“जी, जी!”

“और रानी महल?”

“हाँ , हाँ…” मैं रौब से बोला।  

बोलते-बोलते याद भी कर लिया कि झाँसी में गुज़रे २१ सालों में कुल मिला कर एक बार रानी महल और दो बार किला गया था।

“फिर तो बढ़िया है। मुझे कुछ चीजें पूछनी थी, मुझे कोई बता ही नहीं पा रहा था।”

“हाँ , हाँ, ज़रूर पूछिए।” अब झाँसी के बारे में मेरे से ज़्यादा किस को पता होना था।

“वो महाराज गंगधार की समाधि किले में किधर है?”

 ये पहला बाउंसर था। 

“महाराजा गंगधार की वजह से ही सब शुरू हुआ था….”

वो बोले जा रही थी और मैं समाधि ढूंढने में जुटा हुआ था।

नहीं मिली…!

मुद्दे को बदला मैंने, “ओरछा में क्या-क्या देखा आपने?”

“ओरछा तो लगभग सब घूम लिया पर मुझे ये समझ नहीं आया कि मुगल सम्राट जहाँगीर के नाम पर ओरछा महाराज ने महल क्यों बनवाया था?”

एक और बाउंसर था ये और अब मुद्दे को भटकाना मुमकिन नहीं था।

“ओरछा महाराज के दोस्त थे।” ये जवाब लॉजिकल सही लगा था सो वही टिपा दिया गया था गोरी मेम को।

वो नहीं मानी, “तो महाराजा छत्रसाल से युद्घ क्यों किया था मुगलों ने?”

सच कहूँ मुझे उस समय तक ये भी नहीं पता था कि महाराज छत्रसाल का क्या संबंध था ओरछा से। क्या जवाब देता, फिर मार्केटिंग वाली टेक्नीक अपनाई गई कि कनविंस ना कर सको तो कंफ्यूज कर दो।

“उस समय महराजा के मुगलों से संबंध लगान के कारण खराब हो रखे थे।”

गोरी मेम ने नोट किया अपनी डायरी में और मुझे पसीना सा आ गया। शर्म तो इतनी आ रही थी कि कुछ बता नहीं सकता। वो बंदी हज़ारों मील से चलकर आई थी और कुछ जानने की कोशिश में लगी थी और एक मैं था जिसे अपने शहर का कुछ नहीं पता था।

अब बस ये मना रहा था कि फ्लाइट का अनाउंसमेंट हो और मैं भागूं। 

अनाउंसमेंट हुआ और मालूम पड़ा कि फ्लाइट एक घंटा लेट हो गई है।

अब मैं किसी भी सवाल के लिए तैयार नहीं था और बातों को टालने की कोशिश में लगा हुआ था।

“आपको तो पता ही होगा कि झाँसी का नाम झाँसी क्यों पड़ा?”

“ये तो झाँसी में सबको पता है” (असलियत ये थी कि मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि झाँसी के नाम के पीछे की भी कोई कहानी होगी) 

उसने वो कहानी भी बताई और मुझे शर्म से एक फिट और अंदर गाड़ दिया।

अगले ही पल वो मेरे सामने अपनी डायरी का एक पेज खोल कर बैठी थी जिसमे टेड़ी-मेढ़ी देवनागरी लिपि में लिखा था-

“बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।”

धीमी सी आवाज़ में मैंने कहा, “जी, ये सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखी है।”

“आप से एक मदद मिल सकेगी?”

मैं सच में इतना शर्मिंदा अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं हुआ था। ज़िन्दगी के इक्कीस साल उस शहर में रहने के बाद भी मुझे अपनी जन्मभूमि के बारे में कुछ भी तो नहीं पता था।

“बोलिए , क्या कर सकता हूँ मैं आपके लिए?”

“मेरे, ग्रेट ग्रैंडफादर, मेरी झाँसी में जो आंदोलन हुआ था उस में मारे गए थे। मुझे पता चला है कि उनको भी झाँसी में कहीं दफना दिया गया था। आप मुझे उनके बारे में ढूंढ़ कर बताएंगे?” 

“मेरी झाँसी” सुनकर तो बस ये लगा कि ज़मीन फटे और मैं दफ़न हो जाऊं उसमें। 

आँखें नम सी हो आई थी उस गोरी मैम की और मैं स्तब्ध था कि इतना स्नेह, अपनापन कहाँ से लाते हैं कुछ लोग अपने  देश, शहर, परिवार के लिए। 

अपनी गलती सुधारने का एक मौका मिला था मुझे और मैं उसे गंवाने वाला नहीं था।

“मैं आपको, आपके ग्रैंडफादर साहब से भी मिलवाऊंगा और साथ में आपको “आपकी झाँसी” से भी मिलवाउंगा।”

फ्लाइट का वक़्त हुआ जा रहा था उसकी। उसने अपनी इ-मेल दी मुझे और गले लगकर विदा ली।

दूसरे दिन कंबोडिया पहुंचा और जा कर इंटरनेट खंगालना शुरू किया। उसके पहले इंटरनेट का काम वही था सिर्फ यू ट्यूब, फोरम आदि में गप्प बाजी और संता बंता जैसे फोरम में कहीं मॉडरेटर और एडमिन बनकर टाइम पास करना।

आने वाले एक साल में  मैंने उसके दादाजी उसको ढूंढ़ कर दिए, और फिर झाँसी के बारे में जितना था सब खंगाल डाला। जिस वेबसाइट पर ज़रा भी कुछ मिलता , कॉपी करके रख लेता। फिर ओरछा की शुरुआत हुई और फिर आगे बढ़ते-बढ़ते बुंदेलखंड नाप डाला।

लिखना अभी भी शुरू नहीं हुआ था। फेसबुक का ज़माना था और लोग रोज़ नए-नए ग्रुप बना कर एडमिन होने का सुख प्राप्त किया करते थे। कुछ नहीं था उसमें सिवाय लतीफों और राजनीति के अलावा। मैं भी “बुन्देली गौरव-झाँसी” ग्रुप का सदस्य बन गया। 

एक रोज़ मैंने झाँसी के एक समोसे वाले “दाऊ समोसे” की तस्वीर लगाई और पूछा, 

कल्ले की चाट खायी है आपने ?

“याद है आपको?”

ये थी सोशल मीडिया पर लिखने की शुरुआत जो करीब १२ साल पहले की बात होगी। उस पोस्ट में लोग और भी जगह के बारे में पूछा करते थे जो जबतक मैं सब पढ़ चुका था। कुछ बचपन की यादों में तब भी ज़िंदा था जिसको निकाल कर सामने रख देता था। 

लोगों को पसंद आया और मैंने फिर जो भी ढूंढा था, पढ़ा था, लोगों के साथ बांटने लगा। होना तो चाहिए था आश्चर्य पर हुआ नहीं जब लोगो को ये बताया कि झाँसी पहले झाँसी नहीं बलवंत नगर के नाम से जानी जाती थी।

लोगों को बताया कि जिन दरवाजों से( सैयर गेट, ओरछा गेट, लक्ष्मी गेट, दतिया गेट, उन्नाव गेट आदि)  आप रोज़ गुजरते हैं उनकी भी कहानियां है। उनको ये भी बताया कि इन गेटों के साथ साथ कुछ खिड़कियां भी है।

सिलसिला चलता रहा, चलता  रहा और फिर एक छोटी सी कहानी लिखी थी अपने बुंदेली ग्रुप में…

“रूही-एक पहेली” 

२०११ में लिखना शुरू किया और बीच में कुछ समझ ना आने के बाद छोड़ दिया।

वो पूरी कैसे हुई और किसने धक्के मार मार कर पूरी करवाई और फिर उपन्यास के रूप में प्रकाशित करवाया वो कहानी किसी और दिन…..


ABOUT BLOGGER:

Manish Shrivastava:

Manish Shrivastava’s journey embarked as an enthusiast of the Hindi language, which is also his mother tongue, and began in his college days as a playwright but came to a standstill when the burden of livelihood overpowered his adoration for and pursuit of writing. His profession range-rovered him to different parts of India, starting from Bundelkhand, which is also his hometown, to western UP, Madhya Pradesh, Andhra, Kerala and Karnataka. His extensive experience even took him to South East Asia and he is presently settled in Jakarta, Indonesia.

But the aspiration to accomplish his dream in writing and exploring ideas to serve on an enriched platform for Hindi readers made him pen down his first Hindi novel Roohi-Ek Paheli and its scrupulous acceptance among the masses made his confidence in writing more prominent and hence, Main Munna Hu was conceived on paper.

Manish Shrivastava’s latest series- Krantidoot is based on our Freedom Fighters. 3 Books of These series have got published and have won the hearts of readers across the world!

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2 thoughts on “यात्रा

  1. अभिव्यक्ति को रचनात्मकता के श्रेष्ठ स्तर तक पहुँचाने तथा तथ्यों में कल्पनाशीलता का सत्यपरक मिश्रण करने के लिए श्रीमानजी को असीम शुभकामनाएँ!✍️
    #काव्याक्षरा

    1. जी एकदम सही कहा! श्रीमानजी की कहानियाँ और धागे- हमें एक नयी दुनियामें ले जाते हैं!

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