Ramdhari Singh Dinkar (Set Of 6 Books) :- Dinkar Ke Geet (Paperback) | Urvashi (Hardback) | Aatma Ki Aankhen (Hardback) | Sipi aur Shankha (Hardback) | Kavishree (Hardback) | Aradhnarishwar (Paperback)

Publisher:
Lok Bharti
| Author:
Ramdhari Singh Dinkar
| Language:
Hindi
| Format:
Omnibus/Box Set

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  1. दिनकर के गीत :- भारतीय संस्कृति और परम्परा से गहरे जुड़े दिनकर के इस गीत-संग्रह में विविधता और बहुलता एक बड़े कैनवस पर देखने को मिलती है। इस संग्रह में मातृभूमि की सौंधी गंध और करुण वेदना का मार्मिक मिश्रण इस तरह मूर्त है कि संवाद सहज ही स्थापित किया जा सकता है। यहाँ प्रेम अनेक रूपों में अपने वैशिष्ट्य को लिए हुए है। ऐतिहासिक और मिथकीय पात्र भी इतने जाने-पहचाने कि सम्बद्धता एक मौलिक पाठ की तरह ध्वनित होती प्रतीत होती है। और इतना ही नहीं, इन गीतों में गायक भी हैं, नायक भी; पंछी भी हैं, परिया भी; सावन भी है, भ्रमरी भी; प्रतीक्षा भी है, आश्वासन भी; स्वाधीनता के लिए आह्वान भी है, हाथों में मशाल भी। इन गीतों को एक सम्पूर्णता में देखें तो कह सकते हैं कि ये एक राष्ट्रकवि द्वारा रचित ज़मीनी गीत हैं। दिनकर जी का कहना भी है कि, “ये गीत इसलिए हैं कि ये गाए जा सकते हैं, बहुत कुछ उसी प्रकार जैसे छन्द में रची हुई प्रत्येक कविता गाई जा सकती है। वैसे इस संग्रह में दो-चार ऐसे भी गीत हैं जो स्वराज्य की लड़ाई के समय छात्रावासों में गाए जाते थे, सड़कों पर, सभाओं और जुलूसों में तथा कभी-कभी गुसलखानों में भी गाए जाते थे। मेरा सौभाग्य कि जनता ने मेरी कई कविताओं को भी गीत बना दिया। ‘माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी’ इस कविता को तो मिथिला के नटुए भी नाच-नाच कर गाते हैं।” ‘दिनकर के गीत’ पाठ और गायन दोनों में एक-सा आस्वाद पैदा करनेवाला एक बेमिसाल और विरल संग्रह है। जलकर चीख उठा, वह कवि था, साधक जो नीरव तपने में; गाये गीत खोल मुझेहाँह क्या वह, जो खो रहा स्वयं सपने में? सुषमाएँ जो देख चूका हूँ जल-थल में, गिरि, गगन, पवन में, नयन मूँद अंतर्मुख जीवन खोज रहा उसको अपने में !
  2. उर्वशी :- उर्वशी और पुरूरवा की प्रेम-कथा का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। इस प्राचीनतम आख्यान को अपने युग के नए अर्थ से जोड़ने का सृजनात्मक प्रयास दिनकर की विलक्षण दृष्टि का परिचय है। वे मानते हैं कि उर्वशी सनातन नारी तो पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है। उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् तथा श्रोत्र की कामनाओं तो पुरूरवा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से मिलनेवाले सुखों से उद्वेलित मनुष्य का प्रतीक है। पुरूरवा और उर्वशी का प्रेम मात्र शरीर के धरातल पर आकार नहीं लेता, वह शरीर से जन्म लेकर मन और प्राण के गहन, गुह्य लोकों में प्रवेश करता है। रस के भौतिक आधार से उठकर रहस्य और आत्मा के अन्तरिक्ष में विचरण करता है। पुरूरवा के भीतर देवत्व की तृषा है। इसलिए मर्त्य लोक के नाना सुखों में वह व्याकुल और विषण्ण है। उर्वशी देवलोक से उतरी हुई नारी है। वह सहज, निश्चिन्त भाव से पृथ्वी का सुख भोगना चाहती है। पुरूरवा की वेदना समग्र मानव-जाति की चिरन्तन वेदना से ध्वनित है। उर्वशी से पुरूरवा के बिछड़ने के बाद विरह को दिनकर एक दार्शनिकता के साथ व्यक्त करते हैं—संन्यास प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर सकता, न प्रेम संन्यास को क्योंकि प्रेम प्रकृति और परमेश्वर संन्यास है और मनुष्य को सिखलाया गया है कि एक ही व्यक्ति परमेश्वर और प्रकृति दोनों को प्राप्त नहीं कर सकता।.और वेदना की भूमि चूँकि पुरूरवा के संन्यास पर समाप्त नहीं हुई, इसलिए औशीनरी की व्यथा ने कविता को वहाँ समाप्त होने नहीं दिया। निहितार्थ यही कि इन्द्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श कर प्रेम की आध्यात्मिक महिमा को एक व्यापक धरातल पर रचती ‘उर्वशी’ दिनकर की अपने पाठ और प्रभाव में कभी न ख़त्म होनेवाली कृति है, एक दुर्लभ गीति-नाट्य कृति।
  3. आत्मा की आँखें :- आत्मा की आँखें’ में संकलित हैं डी. एच. लारेंस की वे कविताएँ जो यूरोप और अमेरिका में बहुत लोकप्रिय नहीं हो सकीं, लेकिन दिनकर जी ने उन्हें चयनित कर अपनी सहज भाषा-शैली में इस तरह अनुवाद किया कि नितान्त मौलिक प्रतीत होती हैं। डी.एच. लारेंस की कविताओं के अनुवाद के पीछे जो मुख्य बातें थीं, उनके बारे में खुद दिनकर जी का कहना है कि, ‘इन सभी कविताओं की भाषा बुनियादी हिन्दी है। लारेंस की जिन कविताओं पर ये कविताएँ तैयार हुई हैं, उनकी भाषा भी मुझे बुनियादी अंग्रेजी के समान दिखाई पड़ी–सरल, मुहावरेदार, चलतू और पुरजोर जिसमें बनावट का नाम भी नहीं है। कविताओं की भाषा गढ़ने के लिए लारेंस छेनी और हथौड़ी का प्रयोग नहीं करते थे। जैसे जिन्दगी वे उसे मानते थे जो हमारी सभ्यतावाली पोशाक के भीतर बहती है। उसी तरह, भाषा उन्हें वह पसन्द थी जो बोलचाल से उछलकर कलम पर आ बैठती है। बुद्धि को वे बराबर शंका से देखते रहे और कला में पच्चीकारी का काम उन्हें नापसन्द था। मैंने खासकर उन्हीं कविताओं को चुना है जो भारतीय चेतना के काफी आस-पास चक्कर काटती हैं।’ इस तरह देखें तो ‘आत्मा की आँखें’ नए आस्वाद और सहज सम्प्रेष्य कविताओं का एक अनूठा संकलन है।
  4. सीपी और शंख :- सीपी और शंख’ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा अंग्रेजी से अनूदित विश्व की श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह है। बावजूद इसके ये दिनकर जी के व्यक्तित्व के रूपों को उद्घाटित करती उनकी अपनी मौलिक रचनाएँ भी प्रतीत होती हैं, क्योंकि उन्होंने भावों से प्रेरणा लेते हुए अपनी तरफ से ऐसे-ऐसे चित्रों की सृष्टि कर डाली है जो मूल में कहीं नहीं। इसलिए इन कविताओं में दिनकर जी के अपने चिन्तन और भाषा का परस्पर अन्योन्य सम्बन्ध भी परिलक्षित होते हैं। संग्रह में पुर्तगीजी, स्पेनिश, अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, अमरीकी, चीनी, पोलिश और भारतीय भाषाओं में मलयालम की अछूती भावभूमि और नवीन भंगिमाओं वाली कविताएँ शामिल हैं। रूमानी, आत्मपीड़न के अतिरिक्त भक्तिभाव से पूर्ण इन कविताओं की मुख्य विशेषता रस-प्रवणता, लावण्ययुक्त बिम्ब और श्रम की प्रतिष्ठा है। इस संग्रह की कौन सी कविता किस कवि की कविता का प्रतिबिम्ब है, यह सूचित करने को पुस्तक के अन्त में एक सूची भी दी गई है ताकि सहज ही सृजन के विभिन्न आयामों से जुड़ा जा सके। निस्सन्देह, कविता में नवीन रुचि रखनेवाले पाठकों को दिनकर जी की यह कृति पसन्द ही नहीं आएगी, बल्कि अविस्मरणीय भी साबित होगी। मत छुओ इस झील को । कंकड़ी मारो नहीं, पत्तियाँ डारो नहीं, फूल मत बोरो । और कागज की तरी इसमें नहीं छोडो । खेल में तुमको पुलक-उन्मेष होता है, लहर बनने में सलिल को क्लेश होता है ।
  5. कविश्री :- कविश्री’ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ओजस्वी कविताओं का संग्रह है। कविताओं में प्रखर राष्ट्रवाद, प्रकृति के प्रति उत्कट प्रेम एवं मानव-कल्याण-कामना की मंगल-भावना के दर्शन होते हैं। ‘कविश्री’ में संगृहीत हैं दिनकर जी की ‘हिमालय के प्रति’, ‘प्रभाती’, ‘व्याल विजय’ एवं ‘नया मनुष्य’ जैसी प्रसिद्ध प्रदीर्घ कविताएँ, जो हिन्दी काव्य-साहित्य की अमूल्य निधि हैं। दिनकर का काव्य-व्यक्तित्व जिस दौर में निर्मित हुआ, वह राजसत्ता और शोषण के विरुद्ध हर मोर्चे पर संघर्ष का दौर था। इसलिए ‘कविश्री’ में संकलित रचनाओं को पढ़ना भारतीय स्वाधीनता-संग्राम में साहित्य के योगदान से भी परिचित होना है। अपने ऐतिहासिक महत्त्व के कारण पाठकों के लिए एक संग्रहणीय और अविस्मरणीय संग्रह। तुम लाशें गिनते रहे खोजनेवालों की, लेकिन, उनकी असलियत नहीं पहचान सके; मुरदों में केवल यही जिन्दगीवाले थे, जो फूल उतारे बिना लौट कर आ न सके । हो जहाँ कहीं भी नील कुसुम की फुलकारी, मैं एक फूल तो किसी तरह ले जाउँगा; जुड़े में जब तक भेंट नहीं यह बाँध सकूँ, किस तरह प्राण की मणि को गले लगाऊंगा?
  6. अर्धनारीश्वर :- इस पुस्तक के निबन्ध अपने समय के दस्तावेज हैं जिनको पढ़ते दिनकर के वैचारिक-स्रोतों और सन्दर्भों से हम अवगत हो सकते हैं; और जान सकते हैं कि एक युगद्रष्टा साहित्यकार अपने जीवन में अपनी कलम के साथ किस द्वन्द्व-अन्तर्द्वन्द्व के साथ जीता रहा। ‘अर्धनारीश्वर’ दिनकर का वह निबन्ध-संग्रह हैं जिसमें समाज, साहित्य, राजनीति, स्वतंत्रता, राष्ट्रीयता, अन्तरराष्ट्रीयता, धर्म, विज्ञान के साथ-साथ लेखकों, चिन्तकों, मनीषियों, राजनेताओं के कृतित्व और व्यक्तित्व से जुड़े अनेक पहलुओं का व्यापक परिप्रेक्ष्य में गम्भीरता से आकलन किया गया है और तर्क-सम्मत निष्कर्ष निकाले गए हैं। इस संग्रह का नाम ‘अर्धनारीश्वर’ क्यों रखा गया, इसके बारे में स्वयं लेखक का कहना है कि, ‘“इसमें ऐसे भी निबन्ध हैं जो मन-बहलाव में लिखे जाने के कारण कविता की चौहद्दी के पास पड़ते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिनमें बौद्धिक चिन्तन या विश्लेषण प्रधान है। इसीलिए मैंने इस संग्रह का नाम ‘अर्धनारीश्वर’ रखा है, यद्यपि इसमें अनुपातत: नरत्व अधिक और नारीत्व कम है।” अतएव स्पष्ट है कि राष्ट्रकवि दिनकर की कविताएँ जिन्हें पसन्द हैं, उन्हें ये निबन्ध भी उनकी सोच-संवेदना के बेहद करीब लगेंगे।
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  1. दिनकर के गीत :- भारतीय संस्कृति और परम्परा से गहरे जुड़े दिनकर के इस गीत-संग्रह में विविधता और बहुलता एक बड़े कैनवस पर देखने को मिलती है। इस संग्रह में मातृभूमि की सौंधी गंध और करुण वेदना का मार्मिक मिश्रण इस तरह मूर्त है कि संवाद सहज ही स्थापित किया जा सकता है। यहाँ प्रेम अनेक रूपों में अपने वैशिष्ट्य को लिए हुए है। ऐतिहासिक और मिथकीय पात्र भी इतने जाने-पहचाने कि सम्बद्धता एक मौलिक पाठ की तरह ध्वनित होती प्रतीत होती है। और इतना ही नहीं, इन गीतों में गायक भी हैं, नायक भी; पंछी भी हैं, परिया भी; सावन भी है, भ्रमरी भी; प्रतीक्षा भी है, आश्वासन भी; स्वाधीनता के लिए आह्वान भी है, हाथों में मशाल भी। इन गीतों को एक सम्पूर्णता में देखें तो कह सकते हैं कि ये एक राष्ट्रकवि द्वारा रचित ज़मीनी गीत हैं। दिनकर जी का कहना भी है कि, “ये गीत इसलिए हैं कि ये गाए जा सकते हैं, बहुत कुछ उसी प्रकार जैसे छन्द में रची हुई प्रत्येक कविता गाई जा सकती है। वैसे इस संग्रह में दो-चार ऐसे भी गीत हैं जो स्वराज्य की लड़ाई के समय छात्रावासों में गाए जाते थे, सड़कों पर, सभाओं और जुलूसों में तथा कभी-कभी गुसलखानों में भी गाए जाते थे। मेरा सौभाग्य कि जनता ने मेरी कई कविताओं को भी गीत बना दिया। ‘माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी’ इस कविता को तो मिथिला के नटुए भी नाच-नाच कर गाते हैं।” ‘दिनकर के गीत’ पाठ और गायन दोनों में एक-सा आस्वाद पैदा करनेवाला एक बेमिसाल और विरल संग्रह है। जलकर चीख उठा, वह कवि था, साधक जो नीरव तपने में; गाये गीत खोल मुझेहाँह क्या वह, जो खो रहा स्वयं सपने में? सुषमाएँ जो देख चूका हूँ जल-थल में, गिरि, गगन, पवन में, नयन मूँद अंतर्मुख जीवन खोज रहा उसको अपने में !
  2. उर्वशी :- उर्वशी और पुरूरवा की प्रेम-कथा का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। इस प्राचीनतम आख्यान को अपने युग के नए अर्थ से जोड़ने का सृजनात्मक प्रयास दिनकर की विलक्षण दृष्टि का परिचय है। वे मानते हैं कि उर्वशी सनातन नारी तो पुरूरवा सनातन नर का प्रतीक है। उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् तथा श्रोत्र की कामनाओं तो पुरूरवा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द से मिलनेवाले सुखों से उद्वेलित मनुष्य का प्रतीक है। पुरूरवा और उर्वशी का प्रेम मात्र शरीर के धरातल पर आकार नहीं लेता, वह शरीर से जन्म लेकर मन और प्राण के गहन, गुह्य लोकों में प्रवेश करता है। रस के भौतिक आधार से उठकर रहस्य और आत्मा के अन्तरिक्ष में विचरण करता है। पुरूरवा के भीतर देवत्व की तृषा है। इसलिए मर्त्य लोक के नाना सुखों में वह व्याकुल और विषण्ण है। उर्वशी देवलोक से उतरी हुई नारी है। वह सहज, निश्चिन्त भाव से पृथ्वी का सुख भोगना चाहती है। पुरूरवा की वेदना समग्र मानव-जाति की चिरन्तन वेदना से ध्वनित है। उर्वशी से पुरूरवा के बिछड़ने के बाद विरह को दिनकर एक दार्शनिकता के साथ व्यक्त करते हैं—संन्यास प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर सकता, न प्रेम संन्यास को क्योंकि प्रेम प्रकृति और परमेश्वर संन्यास है और मनुष्य को सिखलाया गया है कि एक ही व्यक्ति परमेश्वर और प्रकृति दोनों को प्राप्त नहीं कर सकता।.और वेदना की भूमि चूँकि पुरूरवा के संन्यास पर समाप्त नहीं हुई, इसलिए औशीनरी की व्यथा ने कविता को वहाँ समाप्त होने नहीं दिया। निहितार्थ यही कि इन्द्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श कर प्रेम की आध्यात्मिक महिमा को एक व्यापक धरातल पर रचती ‘उर्वशी’ दिनकर की अपने पाठ और प्रभाव में कभी न ख़त्म होनेवाली कृति है, एक दुर्लभ गीति-नाट्य कृति।
  3. आत्मा की आँखें :- आत्मा की आँखें’ में संकलित हैं डी. एच. लारेंस की वे कविताएँ जो यूरोप और अमेरिका में बहुत लोकप्रिय नहीं हो सकीं, लेकिन दिनकर जी ने उन्हें चयनित कर अपनी सहज भाषा-शैली में इस तरह अनुवाद किया कि नितान्त मौलिक प्रतीत होती हैं। डी.एच. लारेंस की कविताओं के अनुवाद के पीछे जो मुख्य बातें थीं, उनके बारे में खुद दिनकर जी का कहना है कि, ‘इन सभी कविताओं की भाषा बुनियादी हिन्दी है। लारेंस की जिन कविताओं पर ये कविताएँ तैयार हुई हैं, उनकी भाषा भी मुझे बुनियादी अंग्रेजी के समान दिखाई पड़ी–सरल, मुहावरेदार, चलतू और पुरजोर जिसमें बनावट का नाम भी नहीं है। कविताओं की भाषा गढ़ने के लिए लारेंस छेनी और हथौड़ी का प्रयोग नहीं करते थे। जैसे जिन्दगी वे उसे मानते थे जो हमारी सभ्यतावाली पोशाक के भीतर बहती है। उसी तरह, भाषा उन्हें वह पसन्द थी जो बोलचाल से उछलकर कलम पर आ बैठती है। बुद्धि को वे बराबर शंका से देखते रहे और कला में पच्चीकारी का काम उन्हें नापसन्द था। मैंने खासकर उन्हीं कविताओं को चुना है जो भारतीय चेतना के काफी आस-पास चक्कर काटती हैं।’ इस तरह देखें तो ‘आत्मा की आँखें’ नए आस्वाद और सहज सम्प्रेष्य कविताओं का एक अनूठा संकलन है।
  4. सीपी और शंख :- सीपी और शंख’ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा अंग्रेजी से अनूदित विश्व की श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह है। बावजूद इसके ये दिनकर जी के व्यक्तित्व के रूपों को उद्घाटित करती उनकी अपनी मौलिक रचनाएँ भी प्रतीत होती हैं, क्योंकि उन्होंने भावों से प्रेरणा लेते हुए अपनी तरफ से ऐसे-ऐसे चित्रों की सृष्टि कर डाली है जो मूल में कहीं नहीं। इसलिए इन कविताओं में दिनकर जी के अपने चिन्तन और भाषा का परस्पर अन्योन्य सम्बन्ध भी परिलक्षित होते हैं। संग्रह में पुर्तगीजी, स्पेनिश, अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, अमरीकी, चीनी, पोलिश और भारतीय भाषाओं में मलयालम की अछूती भावभूमि और नवीन भंगिमाओं वाली कविताएँ शामिल हैं। रूमानी, आत्मपीड़न के अतिरिक्त भक्तिभाव से पूर्ण इन कविताओं की मुख्य विशेषता रस-प्रवणता, लावण्ययुक्त बिम्ब और श्रम की प्रतिष्ठा है। इस संग्रह की कौन सी कविता किस कवि की कविता का प्रतिबिम्ब है, यह सूचित करने को पुस्तक के अन्त में एक सूची भी दी गई है ताकि सहज ही सृजन के विभिन्न आयामों से जुड़ा जा सके। निस्सन्देह, कविता में नवीन रुचि रखनेवाले पाठकों को दिनकर जी की यह कृति पसन्द ही नहीं आएगी, बल्कि अविस्मरणीय भी साबित होगी। मत छुओ इस झील को । कंकड़ी मारो नहीं, पत्तियाँ डारो नहीं, फूल मत बोरो । और कागज की तरी इसमें नहीं छोडो । खेल में तुमको पुलक-उन्मेष होता है, लहर बनने में सलिल को क्लेश होता है ।
  5. कविश्री :- कविश्री’ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ओजस्वी कविताओं का संग्रह है। कविताओं में प्रखर राष्ट्रवाद, प्रकृति के प्रति उत्कट प्रेम एवं मानव-कल्याण-कामना की मंगल-भावना के दर्शन होते हैं। ‘कविश्री’ में संगृहीत हैं दिनकर जी की ‘हिमालय के प्रति’, ‘प्रभाती’, ‘व्याल विजय’ एवं ‘नया मनुष्य’ जैसी प्रसिद्ध प्रदीर्घ कविताएँ, जो हिन्दी काव्य-साहित्य की अमूल्य निधि हैं। दिनकर का काव्य-व्यक्तित्व जिस दौर में निर्मित हुआ, वह राजसत्ता और शोषण के विरुद्ध हर मोर्चे पर संघर्ष का दौर था। इसलिए ‘कविश्री’ में संकलित रचनाओं को पढ़ना भारतीय स्वाधीनता-संग्राम में साहित्य के योगदान से भी परिचित होना है। अपने ऐतिहासिक महत्त्व के कारण पाठकों के लिए एक संग्रहणीय और अविस्मरणीय संग्रह। तुम लाशें गिनते रहे खोजनेवालों की, लेकिन, उनकी असलियत नहीं पहचान सके; मुरदों में केवल यही जिन्दगीवाले थे, जो फूल उतारे बिना लौट कर आ न सके । हो जहाँ कहीं भी नील कुसुम की फुलकारी, मैं एक फूल तो किसी तरह ले जाउँगा; जुड़े में जब तक भेंट नहीं यह बाँध सकूँ, किस तरह प्राण की मणि को गले लगाऊंगा?
  6. अर्धनारीश्वर :- इस पुस्तक के निबन्ध अपने समय के दस्तावेज हैं जिनको पढ़ते दिनकर के वैचारिक-स्रोतों और सन्दर्भों से हम अवगत हो सकते हैं; और जान सकते हैं कि एक युगद्रष्टा साहित्यकार अपने जीवन में अपनी कलम के साथ किस द्वन्द्व-अन्तर्द्वन्द्व के साथ जीता रहा। ‘अर्धनारीश्वर’ दिनकर का वह निबन्ध-संग्रह हैं जिसमें समाज, साहित्य, राजनीति, स्वतंत्रता, राष्ट्रीयता, अन्तरराष्ट्रीयता, धर्म, विज्ञान के साथ-साथ लेखकों, चिन्तकों, मनीषियों, राजनेताओं के कृतित्व और व्यक्तित्व से जुड़े अनेक पहलुओं का व्यापक परिप्रेक्ष्य में गम्भीरता से आकलन किया गया है और तर्क-सम्मत निष्कर्ष निकाले गए हैं। इस संग्रह का नाम ‘अर्धनारीश्वर’ क्यों रखा गया, इसके बारे में स्वयं लेखक का कहना है कि, ‘“इसमें ऐसे भी निबन्ध हैं जो मन-बहलाव में लिखे जाने के कारण कविता की चौहद्दी के पास पड़ते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिनमें बौद्धिक चिन्तन या विश्लेषण प्रधान है। इसीलिए मैंने इस संग्रह का नाम ‘अर्धनारीश्वर’ रखा है, यद्यपि इसमें अनुपातत: नरत्व अधिक और नारीत्व कम है।” अतएव स्पष्ट है कि राष्ट्रकवि दिनकर की कविताएँ जिन्हें पसन्द हैं, उन्हें ये निबन्ध भी उनकी सोच-संवेदना के बेहद करीब लगेंगे।

About Author

राष्ट्रकवि 'दिनकर' छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति। वे संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू के भी बड़े जानकार थे। वे 'पद्म विभूषण' की उपाधि सहित 'साहित्य अकादेमी पुरस्कार', 'भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार' आदि से सम्मानित किए गए थे।.
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