Bhagwandas Morwal (Set Of 2 Books): Kala Pahar| Khanzada

Publisher:
Rajkamal Prakashan
| Author:
Bhagwandas Morwal
| Language:
Hindi
| Format:
Omnibus/Box Set (Paperback)

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  1. काला पहाड़ :- उपन्यास का काम समकालीन यथार्थ के प्रतिनिधित्व के माध्यम से अतीत को पुनर्जीवित और भविष्य के मिज़ाज को रेखांकित करना है। युवा कथाकार भगवान मोरवाल के पहले उपन्यास काला पहाड़ में ये विशिष्टताएँ हैं। काला पहाड़ के पात्रों की कर्मभूमि ‘मेवात क्षेत्र’ है। हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, की सीमाओं में विस्तृत यह वह क्षेत्र है, जिसने मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर से टक्कर ली थी और जिसने भारत की ‘मिलीजुली तहज़ीब’ को आजतक सुरक्षित रखा है। काला पहाड़ के एक उपन्यास का शीर्षक नहीं है, वरन् मेवात की भौगोलिक-सांस्कृतिक अस्मिता और समूचे देश में व्याप्त बहुआयामी विसंगतिपूर्ण प्रक्रिया का प्रतीक है। इसके पात्र – सलेमी, मनीराम, रोबड़ा, हरसाय, सुलेमान, छोटेलाल, बाबू खाँ, सुभानखाँ, रुमाली, अंगूरी, रोमदेई, तरकीला, मेमन, चौधरी करीम हुसैन व चौधरी मुर्शीद अहमद आदि ठेठ देहाती हिन्दुस्तान की कहानी कहते हैं। मेवात के ये अकिंचन पात्र अपने में वे सभी अनुभव, त्रासदी, खुशियाँ समेटे हुए हैं, जो किसी दूरदराज़ अनजाने हिन्दुस्तानी की भी जीवन-पूँजी हो सकते हैं। लेखक जहाँ ऐतिहासिक पात्र व मेवात-नायक ‘हसन खाँ मेवाती’ की ओर आकृष्ट है, वहीं वह अयोध्या-त्रासदी की परछाइयों को भी समेटता है, इस त्रासदी में झुलसनेवाली बहुलतावादी संस्कृति को रचनात्मक अभिव्यक्ति देता है। उपन्यास की विशेषता यह है कि इसने समाज के हाशिए के लोगों को अपने कथा फलक पर उन्मुक्त भूमिका निभाने की छूट दी हे। मोरवाल की पृष्ठभूमि दलित ज़रूर है लेकिन किरदारों के ‘ट्रीटमेंट’ में वह दलित ग्रन्थि से अछूते हैं। उपन्यास में आधुनिक सत्तातन्त्र एवं विकास प्रक्रिया में भी लेखक की नज़रों से ओझल नहीं हो सके हैं। लेखक के पात्र प्रक्रिया की जटिलताओं एवं विकृतियों को पूरी तटस्थता के साथ उघाड़ते हैं। पात्रों के अन्दर झाँकने से एक विमर्श उठता दिखाई देता है कि क्या वर्तमान विकास प्रक्रिया के प्रहारों से इनसान की निर्मलता और रिश्तों की कोमलता को कालान्तर में अक्षुण्ण रखा जा सकेगा ?
  2. खानजादा :- ‘काला पहाड़’ और ‘रेत’ जैसे उपन्यासों द्वारा भगवानदास मोरवाल ने हिंदी में एक ऐसे लेखक की छवि बनाई है जो अपनी कथा-वीथियाँ समाज, देश और संस्कृति के तथ्यात्मक भूगोल के बीच से निकालता है। आम तौर पर वे ऐसे विषयों को चुनते हैं जिन्हें सिर्फ कल्पना के सहारे कहानी नहीं बनाया जा सकता, उनका गारा-माटी श्रमसाध्य शोध और खोजबीन से तैयार होता है। मेवात उनके लेखकीय और नागरिक सरोकारों का केंद्र रहा है. अपनी इस मिट्टी की संस्कृति, इतिहास और उसके समाजार्थिक पक्षों पर उन्होंने बार-बार निगाह डाली है। ‘खानजादा’ उपन्यास इसकी अगली कड़ी है। यह महत्वपूर्ण इसलिए है कि यह उन अदृश्य तथ्यों की निर्ममता से पड़ताल करता है जो हमारी आज की राष्ट्रीय चिंताओं से सीधे जुड़े हुए हैं। भारत में तुगलक, सादात, लोदी और मुगलों द्वारा चौदहवीं सदी के मध्य से मेवातियों पर किए गए अत्याचारों और देहली के निकट मेवात में मची तबाही की दस्तावेजी प्रस्तुति करते हुए यह उपन्यास मेवातियों की उन शौर्य-गाथाओं को भी सामने लाता है जिनका इतिहास में बहुत उल्लेख नहीं हुआ है। प्रसंगवश इसमें हमें कुछ ऐसे उद्घाटनकारी सूत्र भी मिलते हैं जो इतिहास की तोड़-मरोड़ से त्रस्त हमारे वर्तमान को भी कुछ राहत दे सकते हैं। मसलन बाबर और उसका भारत आना। हिन्दू अस्मिता का उस वक्त के मुस्लिम आक्रान्ताओं से क्या रिश्ता बनता था, धर्म-परिवर्तन की प्रकृति और उद्देश्य क्या थे और इस प्रक्रिया से वह भारत कैसे बना जिसे गंगा-जमुनी तहजीब कहा गया, इसके भी कुछ संकेत इस उपन्यास में मिलते हैं।
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  1. काला पहाड़ :- उपन्यास का काम समकालीन यथार्थ के प्रतिनिधित्व के माध्यम से अतीत को पुनर्जीवित और भविष्य के मिज़ाज को रेखांकित करना है। युवा कथाकार भगवान मोरवाल के पहले उपन्यास काला पहाड़ में ये विशिष्टताएँ हैं। काला पहाड़ के पात्रों की कर्मभूमि ‘मेवात क्षेत्र’ है। हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, की सीमाओं में विस्तृत यह वह क्षेत्र है, जिसने मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर से टक्कर ली थी और जिसने भारत की ‘मिलीजुली तहज़ीब’ को आजतक सुरक्षित रखा है। काला पहाड़ के एक उपन्यास का शीर्षक नहीं है, वरन् मेवात की भौगोलिक-सांस्कृतिक अस्मिता और समूचे देश में व्याप्त बहुआयामी विसंगतिपूर्ण प्रक्रिया का प्रतीक है। इसके पात्र – सलेमी, मनीराम, रोबड़ा, हरसाय, सुलेमान, छोटेलाल, बाबू खाँ, सुभानखाँ, रुमाली, अंगूरी, रोमदेई, तरकीला, मेमन, चौधरी करीम हुसैन व चौधरी मुर्शीद अहमद आदि ठेठ देहाती हिन्दुस्तान की कहानी कहते हैं। मेवात के ये अकिंचन पात्र अपने में वे सभी अनुभव, त्रासदी, खुशियाँ समेटे हुए हैं, जो किसी दूरदराज़ अनजाने हिन्दुस्तानी की भी जीवन-पूँजी हो सकते हैं। लेखक जहाँ ऐतिहासिक पात्र व मेवात-नायक ‘हसन खाँ मेवाती’ की ओर आकृष्ट है, वहीं वह अयोध्या-त्रासदी की परछाइयों को भी समेटता है, इस त्रासदी में झुलसनेवाली बहुलतावादी संस्कृति को रचनात्मक अभिव्यक्ति देता है। उपन्यास की विशेषता यह है कि इसने समाज के हाशिए के लोगों को अपने कथा फलक पर उन्मुक्त भूमिका निभाने की छूट दी हे। मोरवाल की पृष्ठभूमि दलित ज़रूर है लेकिन किरदारों के ‘ट्रीटमेंट’ में वह दलित ग्रन्थि से अछूते हैं। उपन्यास में आधुनिक सत्तातन्त्र एवं विकास प्रक्रिया में भी लेखक की नज़रों से ओझल नहीं हो सके हैं। लेखक के पात्र प्रक्रिया की जटिलताओं एवं विकृतियों को पूरी तटस्थता के साथ उघाड़ते हैं। पात्रों के अन्दर झाँकने से एक विमर्श उठता दिखाई देता है कि क्या वर्तमान विकास प्रक्रिया के प्रहारों से इनसान की निर्मलता और रिश्तों की कोमलता को कालान्तर में अक्षुण्ण रखा जा सकेगा ?
  2. खानजादा :- ‘काला पहाड़’ और ‘रेत’ जैसे उपन्यासों द्वारा भगवानदास मोरवाल ने हिंदी में एक ऐसे लेखक की छवि बनाई है जो अपनी कथा-वीथियाँ समाज, देश और संस्कृति के तथ्यात्मक भूगोल के बीच से निकालता है। आम तौर पर वे ऐसे विषयों को चुनते हैं जिन्हें सिर्फ कल्पना के सहारे कहानी नहीं बनाया जा सकता, उनका गारा-माटी श्रमसाध्य शोध और खोजबीन से तैयार होता है। मेवात उनके लेखकीय और नागरिक सरोकारों का केंद्र रहा है. अपनी इस मिट्टी की संस्कृति, इतिहास और उसके समाजार्थिक पक्षों पर उन्होंने बार-बार निगाह डाली है। ‘खानजादा’ उपन्यास इसकी अगली कड़ी है। यह महत्वपूर्ण इसलिए है कि यह उन अदृश्य तथ्यों की निर्ममता से पड़ताल करता है जो हमारी आज की राष्ट्रीय चिंताओं से सीधे जुड़े हुए हैं। भारत में तुगलक, सादात, लोदी और मुगलों द्वारा चौदहवीं सदी के मध्य से मेवातियों पर किए गए अत्याचारों और देहली के निकट मेवात में मची तबाही की दस्तावेजी प्रस्तुति करते हुए यह उपन्यास मेवातियों की उन शौर्य-गाथाओं को भी सामने लाता है जिनका इतिहास में बहुत उल्लेख नहीं हुआ है। प्रसंगवश इसमें हमें कुछ ऐसे उद्घाटनकारी सूत्र भी मिलते हैं जो इतिहास की तोड़-मरोड़ से त्रस्त हमारे वर्तमान को भी कुछ राहत दे सकते हैं। मसलन बाबर और उसका भारत आना। हिन्दू अस्मिता का उस वक्त के मुस्लिम आक्रान्ताओं से क्या रिश्ता बनता था, धर्म-परिवर्तन की प्रकृति और उद्देश्य क्या थे और इस प्रक्रिया से वह भारत कैसे बना जिसे गंगा-जमुनी तहजीब कहा गया, इसके भी कुछ संकेत इस उपन्यास में मिलते हैं।

About Author

जन्म: 23 जनवरी, 1960 नगीना, जिला-मेवात (हरियाणा)। शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी) एवं पत्रकारिता में डिप्लोमा। प्रकाशित कृतियाँ: काला पहाड़, बाबल तेरा देस में, रेत (उर्दू में अनुवाद), नरक मसीहा (मराठी में अनुवाद), हलाला (उर्दू व अंग्रेजी में अनुवाद), सुर बंजारन, वंचना तथा शकुंतिका, ख़ानज़ादा (उपन्यास); सिला हुआ आदमी, सूर्यास्त से पहले, अस्सी मॉडल उर्फ़ सूबेदार, सीढ़ियाँ, माँ और उसका देवता, लक्ष्मण-रेखा, दस प्रतिनिधि कहानियाँ (कहानी-संग्रह); पकी जेठ का गुलमोहर (स्मृति-कथा); लेखक का मन (वैचारिकी); दोपहरी चुप है (कविता); बच्चों के लिए कलयुगी पंचायत एवं अन्य दो पुस्तकों का सम्पादन। सम्मान: डॉ. अम्बेडकर सम्मान (1985), साहित्यकार सम्मान (2004), हिन्दी अकादमी, दिल्ली सरकार; कथाक्रम सम्मान (2006), अन्तरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान (2009) सहित कई अन्य पुरस्कारों से सम्मानित।.
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