दसासमेध I Dasasmedh

Publisher:
Hind Yugm
| Author:
Vimal Chandra Pandey
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Hind Yugm
Author:
Vimal Chandra Pandey
Language:
Hindi
Format:
Paperback

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SKU 9788119555659 Category Tag
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280

डिप्रेशन, अवसाद, एंग्ज़ाइटी और मानसिक रोग हमारे समय के सबसे ख़तरनाक शब्द हैं। भीड़ जितनी बढ़ती जा रही है, अकेलापन भी उसी अनुपात में बढ़ता जा रहा है। चतुर्भुज शास्त्री की ये कहानी बनारस में पले-बढ़े उस आम लड़के की कहानी है जिसे ज़िंदगी में सिर्फ़ प्यार और शांति चाहिए। उसका एक सपना है कि उसे लेखक बनना है और अपने मन में उठने वाले विचारों को पन्नों पर देखना है। इस यात्रा में पहले वो अपने मन में चल रही उधेड़बुन को नहीं समझ पाता लेकिन जब समझता है तो पाता है कि वह डिप्रेशन से जूझ रहा है और उसे अपनों के प्यार और इलाज की ज़रूरत है। लेखक जिस बे-ख़ौफ़ अंदाज़ से आज की राजनीतिक समस्याओं और विद्रूपताओं की नब्ज़ पकड़ता है और आज बढ़ते जा रहे डिप्रेशन और अकेलेपन से उसे जोड़ता है, वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। युवा इस किताब को लेखक बनने की गाइडलाइन की तरह भी पढ़ सकते हैं।

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Description

डिप्रेशन, अवसाद, एंग्ज़ाइटी और मानसिक रोग हमारे समय के सबसे ख़तरनाक शब्द हैं। भीड़ जितनी बढ़ती जा रही है, अकेलापन भी उसी अनुपात में बढ़ता जा रहा है। चतुर्भुज शास्त्री की ये कहानी बनारस में पले-बढ़े उस आम लड़के की कहानी है जिसे ज़िंदगी में सिर्फ़ प्यार और शांति चाहिए। उसका एक सपना है कि उसे लेखक बनना है और अपने मन में उठने वाले विचारों को पन्नों पर देखना है। इस यात्रा में पहले वो अपने मन में चल रही उधेड़बुन को नहीं समझ पाता लेकिन जब समझता है तो पाता है कि वह डिप्रेशन से जूझ रहा है और उसे अपनों के प्यार और इलाज की ज़रूरत है। लेखक जिस बे-ख़ौफ़ अंदाज़ से आज की राजनीतिक समस्याओं और विद्रूपताओं की नब्ज़ पकड़ता है और आज बढ़ते जा रहे डिप्रेशन और अकेलेपन से उसे जोड़ता है, वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। युवा इस किताब को लेखक बनने की गाइडलाइन की तरह भी पढ़ सकते हैं।

About Author

लेखक विमल चन्द्र पाण्डेय का आत्मकथ्य : माँ-पिता बताते हैं कि गोरखपुर में पैदा हुआ था लेकिन पिता का ट्रांसफ़र बनारस हो गया। ठीक से बनारसी हो पाता कि गणित से ग्रेजुएट होने के बाद दिल्ली जाना पड़ा। नेटवर्क इंजीनियरिंग छोड़कर दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की पढ़ाई की। दिल्ली में दोस्त बने, कहानियाँ छपने लगीं तो दिल्ली छूट गई। पत्रकारिता की नौकरी करने इलाहाबाद जाना पड़ा। इलाहाबाद में मन लगने लगा तो लखनऊ ट्रांसफ़र हुआ और इलाहाबाद छूट गया। फ़िल्म बनाने का कीड़ा मुंबई ले आया तो कई सारी ग़लतफ़हमियाँ छूटीं। इस जद्दोजहद में कई अच्छी आदतें छूटीं और अपने अंदाज़ से जीने की कोशिश में कई दोस्त छूटे। इस थामने छूटने के बीच ‘डर’, ‘मस्तूलों के इर्दगिर्द’, ‘मैं और मेरी कहानियाँ’, ‘उत्तर प्रदेश की खिड़की’, और ‘मारण मंत्र’ नाम से कहानियों की किताबें आईं और ‘ई इलहाब्बाद है भइया’ संस्मरण। पहले उपन्यास ‘भले दिनों की बात थी’ के बाद दूसरा उपन्यास 'लहरतारा'। यह उपन्यास 'लहरतारा' का दूसरा और आख़िरी हिस्सा। अब इच्छा यही है इतने छूटने के बीच कभी अपने प्रियजनों का साथ न छूटे। इन प्रियजनों में घर, परिवार और दोस्तों के साथ मेरे पाठक भी शामिल हैं जिन्होंने मेरे लिखे पर मेरे विश्वास को तब तब बढ़ाया है जब जब मुझसे लिखना छूटने लगा था।

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