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Neelkanthi Braj
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₹140 ₹139
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नीलकंठी ब्रज –
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित असमिया की लब्धप्रतिष्ठ रचनाकार इन्दिरा गोस्वामी का उपन्यास ‘नीलकंठी ब्रज’ धर्म, संस्कृति, परम्परा और समाज से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को आकार देता है। यह उपन्यास ‘ब्रजमंडल’ की लीलाभूमि को स्त्री-जीवन की कठिन परीक्षाभूमि के रूप में उपस्थित करता है। रस, रास और रहस्य के मिथकीय परिवेश को इन्दिरा गोस्वामी ने दारुण वास्तविकताओं के प्रकाश में ला खड़ा किया है। भारतीय समाज में स्त्रियों के एकाकीपन और परावलम्बन का चित्रण करते हुए लेखिका ने वस्तुतः सभ्यता-विमर्श किया है।
अनेकानेक अनाम विधवाओं के बीच सौदामिनी ‘नीलकंठी ब्रज’ का केन्द्रीय चरित्र है। विधवाओं के जीवन की भयावहता पाठकों को विचलित कर देगी। पुरुषवर्चस्व की घृणित परिणतियाँ उन स्त्रियों का शोषण करती हैं जिन्हें लेखिका ने ‘ब्रज में रहने वाली प्रेतात्माएँ’ कहा है। ये विधवाएँ ‘राधेश्यामी स्त्रियाँ’ हैं, जिनकी हँसी भी भीषण है- ‘उनकी हँसी इस तरह कर्कश थी, मानो अस्थियों का खड़ताल बज उठा हो।’ उपन्यास बहुत सारी ज़िन्दगियों का सार-असार व्यक्त करता है। रूढ़ियों-बेड़ियों में छटपटाते स्त्री जीवन का यह यथार्थ पढ़कर महाप्राण निराला की कविता ‘विधवा’ का स्मरण हो आना स्वाभाविक है।
दिनेश द्विवेदी ने इस कृति का असमिया से हिन्दी में अनुवाद किया है। दिनेश द्विवेदी एक ‘मूलभावान्वेषी अनुवादक’ हैं। कहना न होगा कि मौलिक आस्वाद अक्षुण्ण है। पाठकों की चेतना को झकझोरने वाला अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपन्यास।—सुशील सिद्धार्थ
नीलकंठी ब्रज –
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित असमिया की लब्धप्रतिष्ठ रचनाकार इन्दिरा गोस्वामी का उपन्यास ‘नीलकंठी ब्रज’ धर्म, संस्कृति, परम्परा और समाज से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को आकार देता है। यह उपन्यास ‘ब्रजमंडल’ की लीलाभूमि को स्त्री-जीवन की कठिन परीक्षाभूमि के रूप में उपस्थित करता है। रस, रास और रहस्य के मिथकीय परिवेश को इन्दिरा गोस्वामी ने दारुण वास्तविकताओं के प्रकाश में ला खड़ा किया है। भारतीय समाज में स्त्रियों के एकाकीपन और परावलम्बन का चित्रण करते हुए लेखिका ने वस्तुतः सभ्यता-विमर्श किया है।
अनेकानेक अनाम विधवाओं के बीच सौदामिनी ‘नीलकंठी ब्रज’ का केन्द्रीय चरित्र है। विधवाओं के जीवन की भयावहता पाठकों को विचलित कर देगी। पुरुषवर्चस्व की घृणित परिणतियाँ उन स्त्रियों का शोषण करती हैं जिन्हें लेखिका ने ‘ब्रज में रहने वाली प्रेतात्माएँ’ कहा है। ये विधवाएँ ‘राधेश्यामी स्त्रियाँ’ हैं, जिनकी हँसी भी भीषण है- ‘उनकी हँसी इस तरह कर्कश थी, मानो अस्थियों का खड़ताल बज उठा हो।’ उपन्यास बहुत सारी ज़िन्दगियों का सार-असार व्यक्त करता है। रूढ़ियों-बेड़ियों में छटपटाते स्त्री जीवन का यह यथार्थ पढ़कर महाप्राण निराला की कविता ‘विधवा’ का स्मरण हो आना स्वाभाविक है।
दिनेश द्विवेदी ने इस कृति का असमिया से हिन्दी में अनुवाद किया है। दिनेश द्विवेदी एक ‘मूलभावान्वेषी अनुवादक’ हैं। कहना न होगा कि मौलिक आस्वाद अक्षुण्ण है। पाठकों की चेतना को झकझोरने वाला अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपन्यास।—सुशील सिद्धार्थ
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