WAITING FOR SHIVA (Hindi), Pratiksha Shiv Ki

Publisher:
BluOne Ink
| Author:
VIKRAM SAMPATH
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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BluOne Ink
Author:
VIKRAM SAMPATH
Language:
Hindi
Format:
Paperback

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दुनिया में कुछ ही ऐसी जगहें हैं जो इतनी सहजता से इतिहास का भार वहन कर पाती हैं, जितना काशी या वाराणसी ने किया है। यह पवित्र शहर हमारी सभ्यता की आत्मा का प्रतीक है और उस लचीलेपन का प्रतीक है जो हमने सदियों से कई प्रतिकूलताओं और घातक हमलों का सामना करते हुए प्रदर्शित किया है।

‘प्रतीक्षा शिव की: ज्ञान वापी काशी के सत्य का उद्घाटन’ विश्वेश्वर या विश्वनाथ रूपी भगवान शिव की निवास स्थली के रूप में काशी के इतिहास, प्राचीनता और पवित्रता को पुनः प्रस्तु करती है। शिव ने स्वयं अपने भक्तों को आश्वासन दिया था कि यदि वे अपनी नश्वर कुण्डली का इस शहर में करेंगे तो उन्हें मोक्ष प्राप्त होगा। यह पुस्तक विश्वेश्वर के इस स्वयं-प्रकट स्वयंभू ज्योतिर्लिंग मंदिर के इतिहास पर प्रकाश डालती है, जो सदियों से भक्तों के लिए शरणस्थली भी रही है और मूर्तिभंजन की रक्तरंजित लहरों का लक्ष्य भी रही है। हालाँकि, जब भी मंदिर को ध्वस्त कर उसे नष्ट करने का प्रयास किया गया, यह और भी तीव्र उत्थान तथा वैभव के साथ लोकजीवन के समक्ष प्रकट हुआ।

यह पुस्तक मंदिर के इतिहास में घटित इन प्रलयकारी घटनाओं का दस्तावेजीकरण करती है। मंदिर को अंतिम आघात 1669 में मुगल शासक औरंगज़ेब द्वारा दिया गया, जिसने मंदिर को खंडित कर, इसे मस्जिद कहे जाने के लिए आंशिक रूप से नष्ट हुई पश्चिमी दीवार पर कुछ गुंबद खड़े कर दिए। वह क्षेत्र जिसे अब ज्ञान वापी मस्जिद कहा जाता है और आसपास की भूमि जो कि विश्वनाथ के नए मंदिर के निकट स्थित है, 18वीं शताब्दी के अंत में बनी थी तथा यह हमेशा से तीव्र विवाद का विषय रही है। इस मुद्दे को लेकर वाराणसी में पहले भी कई बार खूनी दंगे हो चुके हैं। औपनिवेशिक युग के दौरान, क़ब्ज़े के मुद्दे को निपटाने के लिए ब्रिटिश अदालतों के दरवाजे खटखटाए गए और उन्होंने कई बार इस मामले पर अपना निर्णय भी दिया। स्वतंत्रता के बाद भी, इस परिसर को ‘मुक्त’ कराने की इच्छा हिंदू मन-मानस में पनपती रही है। ऐसे में वाराणसी सिविल कोर्ट के समक्ष 2021 में दायर एक नए मुकदमे ने लंबे समय से चले आ रहे ऐतिहासिक घाव को फिर से हरा कर दिया। याचिका को खारिज करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में कई अपीलों के बावजूद, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को इस परिसर के सर्वेक्षण का आदेश दिया गया, जिसने जनवरी 2024 में अपने निष्कर्षों के माध्यम से सच्चाई को उजागर किया।

विक्रम संपत की यह नवीनतम पेशकश इस विवादित स्थल के लंबे इतिहास और इस प्राचीन मंदिर के विचित्र अतीत में आए नाटकीय मोड़ और बदलावों की याद दिलाती है। ज्ञानवापी में लंबे समय से दबे हुए रहस्यों को अंततः इस पुस्तक के माध्यम से आवाज मिलती है।

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Description

दुनिया में कुछ ही ऐसी जगहें हैं जो इतनी सहजता से इतिहास का भार वहन कर पाती हैं, जितना काशी या वाराणसी ने किया है। यह पवित्र शहर हमारी सभ्यता की आत्मा का प्रतीक है और उस लचीलेपन का प्रतीक है जो हमने सदियों से कई प्रतिकूलताओं और घातक हमलों का सामना करते हुए प्रदर्शित किया है।

‘प्रतीक्षा शिव की: ज्ञान वापी काशी के सत्य का उद्घाटन’ विश्वेश्वर या विश्वनाथ रूपी भगवान शिव की निवास स्थली के रूप में काशी के इतिहास, प्राचीनता और पवित्रता को पुनः प्रस्तु करती है। शिव ने स्वयं अपने भक्तों को आश्वासन दिया था कि यदि वे अपनी नश्वर कुण्डली का इस शहर में करेंगे तो उन्हें मोक्ष प्राप्त होगा। यह पुस्तक विश्वेश्वर के इस स्वयं-प्रकट स्वयंभू ज्योतिर्लिंग मंदिर के इतिहास पर प्रकाश डालती है, जो सदियों से भक्तों के लिए शरणस्थली भी रही है और मूर्तिभंजन की रक्तरंजित लहरों का लक्ष्य भी रही है। हालाँकि, जब भी मंदिर को ध्वस्त कर उसे नष्ट करने का प्रयास किया गया, यह और भी तीव्र उत्थान तथा वैभव के साथ लोकजीवन के समक्ष प्रकट हुआ।

यह पुस्तक मंदिर के इतिहास में घटित इन प्रलयकारी घटनाओं का दस्तावेजीकरण करती है। मंदिर को अंतिम आघात 1669 में मुगल शासक औरंगज़ेब द्वारा दिया गया, जिसने मंदिर को खंडित कर, इसे मस्जिद कहे जाने के लिए आंशिक रूप से नष्ट हुई पश्चिमी दीवार पर कुछ गुंबद खड़े कर दिए। वह क्षेत्र जिसे अब ज्ञान वापी मस्जिद कहा जाता है और आसपास की भूमि जो कि विश्वनाथ के नए मंदिर के निकट स्थित है, 18वीं शताब्दी के अंत में बनी थी तथा यह हमेशा से तीव्र विवाद का विषय रही है। इस मुद्दे को लेकर वाराणसी में पहले भी कई बार खूनी दंगे हो चुके हैं। औपनिवेशिक युग के दौरान, क़ब्ज़े के मुद्दे को निपटाने के लिए ब्रिटिश अदालतों के दरवाजे खटखटाए गए और उन्होंने कई बार इस मामले पर अपना निर्णय भी दिया। स्वतंत्रता के बाद भी, इस परिसर को ‘मुक्त’ कराने की इच्छा हिंदू मन-मानस में पनपती रही है। ऐसे में वाराणसी सिविल कोर्ट के समक्ष 2021 में दायर एक नए मुकदमे ने लंबे समय से चले आ रहे ऐतिहासिक घाव को फिर से हरा कर दिया। याचिका को खारिज करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में कई अपीलों के बावजूद, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को इस परिसर के सर्वेक्षण का आदेश दिया गया, जिसने जनवरी 2024 में अपने निष्कर्षों के माध्यम से सच्चाई को उजागर किया।

विक्रम संपत की यह नवीनतम पेशकश इस विवादित स्थल के लंबे इतिहास और इस प्राचीन मंदिर के विचित्र अतीत में आए नाटकीय मोड़ और बदलावों की याद दिलाती है। ज्ञानवापी में लंबे समय से दबे हुए रहस्यों को अंततः इस पुस्तक के माध्यम से आवाज मिलती है।

About Author

डॉ. विक्रम संपतबेंगलुरु स्थित एक प्रसिद्ध इतिहासकार हैं। वह आठ प्रशंसित पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें स्प्लेंडर्स ऑफ रॉयल मैसूर: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ द वोडेयार्स, वॉइस ऑफ द वीणा: एस बालाचंदर, वीमेन ऑफ द रिकॉर्ड्स और इंडियन क्लासिकल म्यूजिक एंड द ग्रामोफोन, 1900-1930 शामिल हैं। वी.डी. सावरकर की उनकी दो खंडों वाली जीवनी, सावरकर: इकोज़ फ्रॉम अ फॉरगॉटेन पास्ट, 1881-1924 और सावरकर: अ कंटेस्टेड लिगेसी, 1924-1966, तथा उनकी नवीनतम पुस्तक, ब्रेवहार्ट्स ऑफ भारत: विग्नेट्स फ्रॉम इंडियन हिस्ट्री, पूरे राष्ट्रीय स्तर पर बेस्टसेलर बन गई हैं। 2021 में विक्रम को प्रतिष्ठित रॉयल हिस्टोरिकल सोसाइटी का फेलो चुना गया। उन्हें अंग्रेजी साहित्य में साहित्य अकादमी के पहले युवा पुरस्कार तथा उनकी पुस्तक माई नेम इज गौहर जानः द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ अ म्यूजिशियन के लिए न्यूयॉर्क में ऐतिहासिक शोध में उत्कृष्टता हेतु एआरएससी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस पुस्तक को ‘गौहर’ नाटक के रूप में लिलेट दुबे द्वारा मंचित भी किया गया है। विक्रम 2015 में राष्ट्रपति भवन में राइटर-इन-रेजिडेंस के रूप में चुने गए चार लेखकों और कलाकारों में से एक हैं। विक्रम ने ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड विश्वविद्यालय से इतिहास और संगीत में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की है, और नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय, नई दिल्ली (2017-2019) में एक वरिष्ठ रिसर्चफेलो रहे हैं। वह एस्पेन ग्लोबल लीडरशिप नेटवर्क और आइज़नहावर (Eisenhower) फ़ेलोशिप 2020 के फेलो तथा 2010 में विसेंशाफ्ट्सकोलेग ज़ू (Wissenschaftskolleg zu) बर्लिन में विजिटिंग फेलो भी रह चुके हैं। वर्तमान में, वह मोनाश यूनिवर्सिटी, ऑस्ट्रेलिया में एक सहायक वरिष्ठ अध्येता हैं।

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