Stri-Vimarsh Ka Lokpaksh

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
अनामिका
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Vani Prakashan
Author:
अनामिका
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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स्त्री-विमर्श पर अलगाववाद का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता । स्त्री समाज एक ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल, राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और जहाँ कहीं दमन है-चाहे जिस वर्ग, जिस नस्ल, जिस आयु, जिस जाति की स्त्री त्रस्त है-उसको अंकवार लेता है। बूढ़े-बच्चे-अपंग-विस्थापित और अल्पसंख्यक भी मुख्यतः स्त्री ही हैं- यह मानता है। ‘लंगड़ो चलै मूक पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई’ की पहली ईश-निरपेक्ष व्याख्या है यह, अपने ढंग का पहला अहिंसात्मक आन्दोलन जिसने दिलों में थोड़ी जगह तो बनायी ही है। ‘जागो मोहन प्यारे’ भाव में राग-भैरवी सुनाते हुए औरतें हमेशा जगाती रही हैं, जगाने का काम दुरूह तो होता है-नींद के गरम, गुदगुदे सपने से माँ भी बाहर खींचती है तो उसको दस बातें सुननी होती हैं। कोई बात नहीं। बहुत सुना है। कुछ और सुन लेंगे। घड़ी आपकी पहुँच से दूर चली गयी है! अलार्म बज रहा है। उठिए नहीं तो बस छूट जाएगी। हरिऔध से शब्द उधार लेकर कहूँ क्या-

“उठो तात, अब आँखें खोलो। पानी लायी हूँ, मुँह धोलो।”

܀܀܀

1995 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानव विकास प्रतिवेदन जारी किया, उसमें महिलाओं के अदृश्य, अवचेतन, छिपे हुए काम का मौद्रिक मूल्यांकन करके यह बताया गया है कि उनकी वार्षिक क़ीमत 110 खरब अमरीकी डॉलर की होती है। सीधे शब्दों में कहें तो पूरी अर्थव्यवस्था में वह आधे से भी अधिक का योगदान देती है।… अर्थव्यवस्था इतनी कमज़ोर नहीं है कि खाना ख़रीदा न जा सके, न ज़मीन इतनी बंजर … भूखा रखना एक राजनीति भी है-घर में और घर के बाहर भी। यदि भरपेट भोजन मिला तो सम्भव है, मन और मस्तिष्क स्वस्थ होकर अपनी सामाजिक स्थिति पर विचार करें। जिसे समाजविद् सचिन जैन ‘समता और क्षमता’ का प्रश्न कहते हैं-वह भी उठ खड़ा हो जाएगा।

सरकारी ऋणों के आवंटन में भी ख़ासा लिंग-भेद है। कृषि, बागवानी, ट्रैक्टर या इस तरह की ठोस ज़रूरतों का पूरा सौ प्रतिशत पुरुषों के खाते में जाता है, औरतों को सहायता मिलती है अचार, बड़ी, पापड़ या सिलाई-कढ़ाई के काम के लिए। सिर्फ़ मध्य प्रदेश में महिलाओं ने ऐसे 2700 लाख रुपये इकट्टा किए हैं पर एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है जहाँ उन्हें खेत का अधिकार या निर्माण कार्य का ठेका मिला हो।

औरतों के लिए सामाजिक सुरक्षा के मायने भी उसके निराश्रित या विकलांग होने तक सीमित हैं, और अगर उसे 150 रु० प्रतिमाह की पेंशन भी मिलती है तो वह इसकी हक़दार नहीं रह जाती।

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स्त्री-विमर्श पर अलगाववाद का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता । स्त्री समाज एक ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल, राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और जहाँ कहीं दमन है-चाहे जिस वर्ग, जिस नस्ल, जिस आयु, जिस जाति की स्त्री त्रस्त है-उसको अंकवार लेता है। बूढ़े-बच्चे-अपंग-विस्थापित और अल्पसंख्यक भी मुख्यतः स्त्री ही हैं- यह मानता है। ‘लंगड़ो चलै मूक पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई’ की पहली ईश-निरपेक्ष व्याख्या है यह, अपने ढंग का पहला अहिंसात्मक आन्दोलन जिसने दिलों में थोड़ी जगह तो बनायी ही है। ‘जागो मोहन प्यारे’ भाव में राग-भैरवी सुनाते हुए औरतें हमेशा जगाती रही हैं, जगाने का काम दुरूह तो होता है-नींद के गरम, गुदगुदे सपने से माँ भी बाहर खींचती है तो उसको दस बातें सुननी होती हैं। कोई बात नहीं। बहुत सुना है। कुछ और सुन लेंगे। घड़ी आपकी पहुँच से दूर चली गयी है! अलार्म बज रहा है। उठिए नहीं तो बस छूट जाएगी। हरिऔध से शब्द उधार लेकर कहूँ क्या-

“उठो तात, अब आँखें खोलो। पानी लायी हूँ, मुँह धोलो।”

܀܀܀

1995 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानव विकास प्रतिवेदन जारी किया, उसमें महिलाओं के अदृश्य, अवचेतन, छिपे हुए काम का मौद्रिक मूल्यांकन करके यह बताया गया है कि उनकी वार्षिक क़ीमत 110 खरब अमरीकी डॉलर की होती है। सीधे शब्दों में कहें तो पूरी अर्थव्यवस्था में वह आधे से भी अधिक का योगदान देती है।… अर्थव्यवस्था इतनी कमज़ोर नहीं है कि खाना ख़रीदा न जा सके, न ज़मीन इतनी बंजर … भूखा रखना एक राजनीति भी है-घर में और घर के बाहर भी। यदि भरपेट भोजन मिला तो सम्भव है, मन और मस्तिष्क स्वस्थ होकर अपनी सामाजिक स्थिति पर विचार करें। जिसे समाजविद् सचिन जैन ‘समता और क्षमता’ का प्रश्न कहते हैं-वह भी उठ खड़ा हो जाएगा।

सरकारी ऋणों के आवंटन में भी ख़ासा लिंग-भेद है। कृषि, बागवानी, ट्रैक्टर या इस तरह की ठोस ज़रूरतों का पूरा सौ प्रतिशत पुरुषों के खाते में जाता है, औरतों को सहायता मिलती है अचार, बड़ी, पापड़ या सिलाई-कढ़ाई के काम के लिए। सिर्फ़ मध्य प्रदेश में महिलाओं ने ऐसे 2700 लाख रुपये इकट्टा किए हैं पर एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है जहाँ उन्हें खेत का अधिकार या निर्माण कार्य का ठेका मिला हो।

औरतों के लिए सामाजिक सुरक्षा के मायने भी उसके निराश्रित या विकलांग होने तक सीमित हैं, और अगर उसे 150 रु० प्रतिमाह की पेंशन भी मिलती है तो वह इसकी हक़दार नहीं रह जाती।

About Author

अनामिका - साहित्य अकादेमी पुरस्कार तथा अन्य कई राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित अनामिका का जन्म 17 अगस्त, 1961 को मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार में हुआ। वे दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर हैं। देश-दुनिया की बहुतेरी भाषाओं में अनूदित उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-अनुष्टुप, बीजाक्षर, कविता में औरत, दूब-धान, खुरदरी हथेलियाँ, टोकरी में दिगन्त, पानी को सब याद था, वर्किंग विमेन्स हॉस्टल और अन्य कविताएँ, बन्द रास्तों का सफ़र, My Typewriter is My Piano, Vaishali Corridors (कविता-संकलन); अवान्तर कथा, दस द्वारे का पींजरा, तिनका तिनके पास, आईनासाज, तृन धरि ओट (उपन्यास); स्त्रीत्व का मानचित्र, साहित्य का नया लोक, स्वाधीनता का स्त्री-पक्ष, त्रिया चरित्रं : उत्तरकांड, Feminist Poetics: Where Kingfishers Catch Fire, Donne Criticism Down the Ages, Treatment of Love and War in Post-War Women Poets, Proto-Feminist Hindi-Urdu World (1920-1964), Translating Racial Memory, Hindi Literature Today (आलोचना); स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष, स्त्री-विमर्श की उत्तरगाथा, स्त्री मुक्ति : साझा चूल्हा, मन माँजने की ज़रूरत, मौसम बदलने की आहट, हिन्दी साहित्य का उषाकाल (निबन्ध-संकलन); कहती हैं औरतें, रिल्के की कविताएँ- अब भी वसन्त को तुम्हारी ज़रूरत है, रवीन्द्रनाथ टैगोर, नागमण्डल, द ग्रास इज़ सिंगिंग, मेरा शरीर मेरी आत्मा का सौतेला बेटा, खोयी हुई चीजें, बारिश ने हाथ उठाकर बस रुकवाई (अनुवाद), भारतीय कविता सीरीज़ व बीसवीं सदी का हिन्दी महिला लेखन (सम्पादन); Founder - Editor: Pashyantee Bilingual (A Womanist Journal Dedicated to Samrasya: Equipoise)। ईमेल : anamikapoetry@gmail.com

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