Post Box Number 203 Nala Sopara

Publisher:
Samyak Prakashan
| Author:
Chitra Mudgal
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback

316

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SKU 9788171383467 Category
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हिन्दी साहित्य जगत में अपनी अप्रतिम जगह बना चुकी वरिष्ठ कथाकार चित्रा मुद्गल का यह उपन्यास विनोद उर्फ बिन्नी उर्फ बिमली के बहाने हमारे समाज में लम्बे समय से चली आ रही उस मानसिकता का विरोध हैजो मनुष्य को मनुष्य समझने से बचती रही है । जी नहींयह अमीरगरीब का पुराना टोटका नहींमहज शारीरिक कमी के चलते किसी इंसान को असामाजिक बना देने की क्रूर विडम्बना है । अपने ही घर से निकाल दिए गए विनोद की मर्मांतक पीड़ा उसके अपनी बा को लिखे पत्रों में इतनी गहराई से उजागर हुई है कि पाठक खुद यह सोचने पर विवश हो जाता है कि क्या शब्द बदल देने भर से अवमानना समाप्त हो सकती है गलियों की गाली हिजड़ाको किन्नरकह देने भर से क्या देह के नासूर छिटक सकते हैं । परिवार के बीच से छिटककर नारकीय जीवन जीने को विवश किए जाने वाले ये बीच के लोगआखिर मनुष्य क्यों नहीं माने जाते । आजजबकि ऐसे असंख्य लोगों को समाज में स्वीकृति मिलने लगी हैहमारी संसद भी इस संदर्भ में पुरातनपंथी नहीं रही हैक्या यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि परिवार व समाज अपनी सोच के मकड़जाल से बाहर निकल आएंगेठीक उसी तरह जैसे इस उपन्यास के मुख्य चरित्र की मां वंदना बेन शाह अपने बेटे से घर वापसी की अपील करते हुए एक विस्तृत माफीनामा अखबारों में छपवाती है । यह अपील एक व्यक्ति भर की न रहकरसमूचे समाज की बन जाएयही वस्तुत: कथाकार की मूल मंशा है । एक एक्टिविस्ट रचनाकारकैसे अपनी रचना में मूल सरोकार के प्रति समर्पित हो सकता हैयह इस अनोखे और पठनीय उपन्यास की भाषा बताती है । यहां समाज की हर सतह उघड़ती है और एक नयी रचनात्मक सतह बनने को आतुर है

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हिन्दी साहित्य जगत में अपनी अप्रतिम जगह बना चुकी वरिष्ठ कथाकार चित्रा मुद्गल का यह उपन्यास विनोद उर्फ बिन्नी उर्फ बिमली के बहाने हमारे समाज में लम्बे समय से चली आ रही उस मानसिकता का विरोध हैजो मनुष्य को मनुष्य समझने से बचती रही है । जी नहींयह अमीरगरीब का पुराना टोटका नहींमहज शारीरिक कमी के चलते किसी इंसान को असामाजिक बना देने की क्रूर विडम्बना है । अपने ही घर से निकाल दिए गए विनोद की मर्मांतक पीड़ा उसके अपनी बा को लिखे पत्रों में इतनी गहराई से उजागर हुई है कि पाठक खुद यह सोचने पर विवश हो जाता है कि क्या शब्द बदल देने भर से अवमानना समाप्त हो सकती है गलियों की गाली हिजड़ाको किन्नरकह देने भर से क्या देह के नासूर छिटक सकते हैं । परिवार के बीच से छिटककर नारकीय जीवन जीने को विवश किए जाने वाले ये बीच के लोगआखिर मनुष्य क्यों नहीं माने जाते । आजजबकि ऐसे असंख्य लोगों को समाज में स्वीकृति मिलने लगी हैहमारी संसद भी इस संदर्भ में पुरातनपंथी नहीं रही हैक्या यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि परिवार व समाज अपनी सोच के मकड़जाल से बाहर निकल आएंगेठीक उसी तरह जैसे इस उपन्यास के मुख्य चरित्र की मां वंदना बेन शाह अपने बेटे से घर वापसी की अपील करते हुए एक विस्तृत माफीनामा अखबारों में छपवाती है । यह अपील एक व्यक्ति भर की न रहकरसमूचे समाज की बन जाएयही वस्तुत: कथाकार की मूल मंशा है । एक एक्टिविस्ट रचनाकारकैसे अपनी रचना में मूल सरोकार के प्रति समर्पित हो सकता हैयह इस अनोखे और पठनीय उपन्यास की भाषा बताती है । यहां समाज की हर सतह उघड़ती है और एक नयी रचनात्मक सतह बनने को आतुर है

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