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Mati Manush Choon (HB)
Publisher:
Vani prakashan
| Author:
Abhay Mishra
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Vani prakashan
Author:
Abhay Mishra
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹250 ₹188
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In stock
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1-4 Days
In stock
Book Type |
---|
ISBN:
SKU
9789389012040
Categories Hindi, Uncategorized
Categories: Hindi, Uncategorized
Page Extent:
134
गंगा के दोनों किनारे धान की अकूत पैदावार देते थे, इसी तरह गेहूँ, दालें और सब्जियाँ क्या नहीं था जो गंगा न देती हो। लेकिन आर्सेनिक ने सबसे पहले धान को पकड़ा और उनकी थाली में पहुँच गया जो गंगा किनारे नहीं रहते। रही सही कसर खेतों में डाले जा रहे पेस्टिसाइड से पूरी कर दी जो बारिश के पानी के साथ बहकर गंगा में मिल जाता। अनाज और सब्ज़ियों में आर्सेनिक आने के कारण वह चारा बनकर आसानी से डेयरी में घुस गया और गाय-भैंसों के दूध से भी बीमारियाँ होने लगीं। भूमिगत जल में पाया जाने वाला ये ज़हर पता नहीं कैसे मछलियों में भी आ गया। मछलियों में आर्सेनिक की बात सुन सभी ने एक- दूसरे की ओर देखा, लेकिन गीताश्री अपनी ही रौ में थी। देखते-ही-देखते गंगा तट जहर उगलने लगे, जिस अमृत के लिए सभ्यताएँ खिंची चली आती थीं वह हलाहल में तब्दील हो गया, नतीजा, विस्थापन । लाखों बेमौत मारे गये और करोड़ों साफ़ पानी की तलाश में गंगा से दूर हो गये। ‘गंगा से दूर साफ़ पानी की तलाश, ‘ कहने में भी अजीब-सा लगता है, नहीं?” अनुपम भाई अक्सर कहा करते थे कि प्रकृति का अपना कैलेण्डर होता है और कुछ सौ बरस में उसका एक पन्ना पलटता है। नदी को लेकर क्रान्ति एक भोली-भाली सोच है इससे ज्यादा नहीं। वे कहते थे हम अपनी जीवन-चर्या से धीरे-धीरे ही नदी को ख़त्म करते हैं और जीवन-चर्या से धीरे-धीरे ही उसे बचा सकते हैं। उनका ‘प्रकृति का कैलेण्डर’ ही इस कथा का आधार बन सका है। नारों और वादों के स्वर्णयुग में जितनी बातें गंगा को लेकर कही जा रही हैं यदि वे सब लागू हो जायें तो क्या होगा? बस आज से 55-60 साल बाद सरकार और समाज के गंगा को गुनने – बुनने की कथा है ‘माटी मानुष चून’ ।
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Description
गंगा के दोनों किनारे धान की अकूत पैदावार देते थे, इसी तरह गेहूँ, दालें और सब्जियाँ क्या नहीं था जो गंगा न देती हो। लेकिन आर्सेनिक ने सबसे पहले धान को पकड़ा और उनकी थाली में पहुँच गया जो गंगा किनारे नहीं रहते। रही सही कसर खेतों में डाले जा रहे पेस्टिसाइड से पूरी कर दी जो बारिश के पानी के साथ बहकर गंगा में मिल जाता। अनाज और सब्ज़ियों में आर्सेनिक आने के कारण वह चारा बनकर आसानी से डेयरी में घुस गया और गाय-भैंसों के दूध से भी बीमारियाँ होने लगीं। भूमिगत जल में पाया जाने वाला ये ज़हर पता नहीं कैसे मछलियों में भी आ गया। मछलियों में आर्सेनिक की बात सुन सभी ने एक- दूसरे की ओर देखा, लेकिन गीताश्री अपनी ही रौ में थी। देखते-ही-देखते गंगा तट जहर उगलने लगे, जिस अमृत के लिए सभ्यताएँ खिंची चली आती थीं वह हलाहल में तब्दील हो गया, नतीजा, विस्थापन । लाखों बेमौत मारे गये और करोड़ों साफ़ पानी की तलाश में गंगा से दूर हो गये। ‘गंगा से दूर साफ़ पानी की तलाश, ‘ कहने में भी अजीब-सा लगता है, नहीं?” अनुपम भाई अक्सर कहा करते थे कि प्रकृति का अपना कैलेण्डर होता है और कुछ सौ बरस में उसका एक पन्ना पलटता है। नदी को लेकर क्रान्ति एक भोली-भाली सोच है इससे ज्यादा नहीं। वे कहते थे हम अपनी जीवन-चर्या से धीरे-धीरे ही नदी को ख़त्म करते हैं और जीवन-चर्या से धीरे-धीरे ही उसे बचा सकते हैं। उनका ‘प्रकृति का कैलेण्डर’ ही इस कथा का आधार बन सका है। नारों और वादों के स्वर्णयुग में जितनी बातें गंगा को लेकर कही जा रही हैं यदि वे सब लागू हो जायें तो क्या होगा? बस आज से 55-60 साल बाद सरकार और समाज के गंगा को गुनने – बुनने की कथा है ‘माटी मानुष चून’ ।
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