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Marxvadi Saundaryashastra : Samagra Chintan
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भारत में भी स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान दूसरे दशक में मार्क्सवाद की विचार दृष्टि आ चुकी थी। स्वप्नलोक के कवि टैगोर, कवि सुब्रह्मण्यम भारती और प्रेमचन्द पर। इसका तत्काल प्रभाव पड़ा था। इनके सहित अनेक रचनाकार क्रान्ति के स्वप्न देखने लगे थे और अपनी ‘बेलाग लेखनी से ब्रिटिश साम्राज्यवाद और देशी सामन्तवाद के खिलाफ़ सर्वहारा की संगठन की। आत्मशक्ति प्रदान कर रहे थे। तीसरे दशक के समाप्त होते-होते रचनाकारों में अभूतपूर्व लहर दौड़ी। भावुकता के स्तर पर ही सही संख्यातीत रचनाकार जन्मे। सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनन्द और प्रेमचन्द के प्रयास से प्रगतिशील लेखक संघ का जन्म हुआ। तत्काल बुर्जुआ सौन्दर्यवाद के खिलाफ़ जनवादी सौन्दर्य के पक्षधरों ने संकल्प लिया, संकल्प की नयी उत्तेजना और दृष्टिकोण के साथ आरोह-अवरोह से गुज़रता प्रगतिशील लेखन सम्प्रति राष्ट्रीय रचना कर्म के भीतर एक अनिवार्य धारा बन गया। पाँचवें दशक में इस धारा को राजनीतिक आक्रोश का शिकार होना पड़ा। छठवें दशक में आत्मवादी, प्रतिगामी और बुर्जुआ रचनाकारों ने संगठित हमला किया किन्तु अजेय जनवादी सौन्दर्य-दृष्टि रचनाकारों में जीवित रही। अटूट, दृढ़ जीवनी शक्ति का प्रमाण मुक्तिबोध की रचनाओं के प्रकाशनोपरान्त और
बुलन्दी से मिला। सातवें और आठवें दशकों में यह शक्ति इतनी प्रभावशील हो गयी कि बुर्जुआ कला के योजनाकार सांसत में पड़ गये। अतएव, आज हम जहाँ खड़े हैं, हमारे पास मार्क्सवादी रचनाकारों की समर्थ शृंखला है। अब ज़रूरत इस बात की है कि हम समूची विरासत को पहचानें, आत्मालोचन करें और बुर्जुआ संस्कृति की रक्षा के लिए किये जा रहे ताबड़तोड़ प्रयासों को आमूल नष्ट करने का बीड़ा लें। ‘मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र’ की यह पुस्तक ऐसे ही प्रयास का एक अंग है।
भारत में भी स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान दूसरे दशक में मार्क्सवाद की विचार दृष्टि आ चुकी थी। स्वप्नलोक के कवि टैगोर, कवि सुब्रह्मण्यम भारती और प्रेमचन्द पर। इसका तत्काल प्रभाव पड़ा था। इनके सहित अनेक रचनाकार क्रान्ति के स्वप्न देखने लगे थे और अपनी ‘बेलाग लेखनी से ब्रिटिश साम्राज्यवाद और देशी सामन्तवाद के खिलाफ़ सर्वहारा की संगठन की। आत्मशक्ति प्रदान कर रहे थे। तीसरे दशक के समाप्त होते-होते रचनाकारों में अभूतपूर्व लहर दौड़ी। भावुकता के स्तर पर ही सही संख्यातीत रचनाकार जन्मे। सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनन्द और प्रेमचन्द के प्रयास से प्रगतिशील लेखक संघ का जन्म हुआ। तत्काल बुर्जुआ सौन्दर्यवाद के खिलाफ़ जनवादी सौन्दर्य के पक्षधरों ने संकल्प लिया, संकल्प की नयी उत्तेजना और दृष्टिकोण के साथ आरोह-अवरोह से गुज़रता प्रगतिशील लेखन सम्प्रति राष्ट्रीय रचना कर्म के भीतर एक अनिवार्य धारा बन गया। पाँचवें दशक में इस धारा को राजनीतिक आक्रोश का शिकार होना पड़ा। छठवें दशक में आत्मवादी, प्रतिगामी और बुर्जुआ रचनाकारों ने संगठित हमला किया किन्तु अजेय जनवादी सौन्दर्य-दृष्टि रचनाकारों में जीवित रही। अटूट, दृढ़ जीवनी शक्ति का प्रमाण मुक्तिबोध की रचनाओं के प्रकाशनोपरान्त और
बुलन्दी से मिला। सातवें और आठवें दशकों में यह शक्ति इतनी प्रभावशील हो गयी कि बुर्जुआ कला के योजनाकार सांसत में पड़ गये। अतएव, आज हम जहाँ खड़े हैं, हमारे पास मार्क्सवादी रचनाकारों की समर्थ शृंखला है। अब ज़रूरत इस बात की है कि हम समूची विरासत को पहचानें, आत्मालोचन करें और बुर्जुआ संस्कृति की रक्षा के लिए किये जा रहे ताबड़तोड़ प्रयासों को आमूल नष्ट करने का बीड़ा लें। ‘मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र’ की यह पुस्तक ऐसे ही प्रयास का एक अंग है।
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