Mann Bawara

Publisher:
Notion Press
| Author:
Ruby Ahluwalia
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Notion Press
Author:
Ruby Ahluwalia
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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314

मुझे लगता है कि हमारी रूह हमारे मन में ही बसती है। ज़िंदगी को अगर उसकी रूहानियत में जीना है तो मन की सुनते हुए ही जी लेना चाहिए। पर समाज के अपने नियम हैं, अपने क़ायदे हैं, जिनका लक्ष्य ही है इस बावरे मन को संयम में रखना। अपनी ज़िंदगी में काफ़ी समय तक मैंने सिर्फ़ अपने मन की ही सुनी और अपने मन की ही करी। फिर ना जाने क्यों और कैसे एक ख़ास मोड़ पर आकर मैंने अपना विश्वास खो दिया। मैं ज़िंदगी के मेले में नियमों से निर्धारित होने लगी। जीवन बोझ सा लगने लगा और उसके मायने मेरे लिए गुम होने लगे। वहीं से शुरू हुआ बीमारी का सफ़र जिसने आख़िरकार कैन्सर का रूपले लिया। अपने मन की ना सुनना और ना करना इससे बड़ा क्या धोखा कर सकते हैं हम अपने आप से? मैंने क्यों किया यह धोखा अपने आपसे? कैसे इस बंधे हुए मन ने अंदर ही अंदर मेरे शरीर के सम्पूर्ण विज्ञान को बदल दिया और उसकी संरचना में व्याधि उत्पन्न कर कैन्सर की बीमारी को जन्म दे दिया? क्या हुआ मेरे साथ और कैसे मैंने अपने खोए हुए मन को वापिस खोज कर उसके बावरेपन में ही अपने कैन्सर के सही इलाज को तलाशा? कैसे मैंने यह समझा कि मन की बावरियत ही तो ज़िंदगी है और कैसे हम सभी अपने आपको खुद ही के ही बनाए हुए गड्ढों में से उबार सकते हैं, कैसे अपने घावों को भर सकते हैं और कैसे हम अपने मन के बावरेपन में अपनी जिंदगी के मायने खोज सकते हैं?

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Description

मुझे लगता है कि हमारी रूह हमारे मन में ही बसती है। ज़िंदगी को अगर उसकी रूहानियत में जीना है तो मन की सुनते हुए ही जी लेना चाहिए। पर समाज के अपने नियम हैं, अपने क़ायदे हैं, जिनका लक्ष्य ही है इस बावरे मन को संयम में रखना। अपनी ज़िंदगी में काफ़ी समय तक मैंने सिर्फ़ अपने मन की ही सुनी और अपने मन की ही करी। फिर ना जाने क्यों और कैसे एक ख़ास मोड़ पर आकर मैंने अपना विश्वास खो दिया। मैं ज़िंदगी के मेले में नियमों से निर्धारित होने लगी। जीवन बोझ सा लगने लगा और उसके मायने मेरे लिए गुम होने लगे। वहीं से शुरू हुआ बीमारी का सफ़र जिसने आख़िरकार कैन्सर का रूपले लिया। अपने मन की ना सुनना और ना करना इससे बड़ा क्या धोखा कर सकते हैं हम अपने आप से? मैंने क्यों किया यह धोखा अपने आपसे? कैसे इस बंधे हुए मन ने अंदर ही अंदर मेरे शरीर के सम्पूर्ण विज्ञान को बदल दिया और उसकी संरचना में व्याधि उत्पन्न कर कैन्सर की बीमारी को जन्म दे दिया? क्या हुआ मेरे साथ और कैसे मैंने अपने खोए हुए मन को वापिस खोज कर उसके बावरेपन में ही अपने कैन्सर के सही इलाज को तलाशा? कैसे मैंने यह समझा कि मन की बावरियत ही तो ज़िंदगी है और कैसे हम सभी अपने आपको खुद ही के ही बनाए हुए गड्ढों में से उबार सकते हैं, कैसे अपने घावों को भर सकते हैं और कैसे हम अपने मन के बावरेपन में अपनी जिंदगी के मायने खोज सकते हैं?

About Author

रूबी अहलूवालिया भारतीय सिविल सर्विसेज की अधिकारी रही हैं। सामाजिक क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए अपना सारा समय दें सकें इसीलिए उन्होंने हाल ही में अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया है। वह अब अपने पति के साथ गोवा में रहती है। अपनी संस्था 'संजीवनी लाइफ बियॉन्ड कैंसर के ज़रिए वह देश के २३ अस्पतालों में वंचित कैंसर रोगियों के समग्र इलाज और पुनर्वास मुफ्त केंद्र चलाती हैं।

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