Mam Trailokyam

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
डॉ. अनिल कुमार पाठक
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Vani Prakashan
Author:
डॉ. अनिल कुमार पाठक
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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भारतीय संस्कृति की अजम्र धारा में प्रवहमान अनन्त रत्नों के अप्रतिम ‘त्रिक’ के रूप में माता, पिता एवं गुरु की महत्ता सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है। इन तीनों के विराट् स्वरूप व महिमा को वर्णित करते हुए रचित मम त्रैलोक्यम् ग्रन्थ से पावन आर्ष संस्कृति एवं परम्परा को नवजीवन प्राप्त हुआ है। हम प्रायः अपने अत्यन्त आत्मीय स्वजन को उतनी महत्ता और सम्मान नहीं देते हैं जितना किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं जो कदाचित् हमारे सुख-दुःख, आपत्ति-विपत्ति एवं संकट का साथी नहीं रहा है। हम अपने अनन्य एवं अति निकटस्थ के योगदान को विस्मृत कर देते हैं। इन्हीं अत्यन्त आत्मीय एवं निकटस्थ महाविभूतियों में सर्वोपरि हैं- माता, पिता एवं गुरु । जनसामान्य में एक प्राचीन कहावत प्रचलित है- ‘घर का जोगी जागे णा, आन गाँव का सिद्ध’, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में लेखक द्वारा इन अप्रतिम रत्नों के “त्रिक’ की महत्ता को “अत्यन्त भक्तिमयी विधि से प्रस्तुत करते हुए उनके प्रति अपनी आस्था एवं श्रद्धा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। विभिन्न महाचरितों के आख्यानों के माध्यम से हमारे जीवन के महत्त्वपूर्ण ‘त्रिक’ को तीन आयामों लोकों के रूप में प्रस्तुत किया है।
यद्यपि वर्तमान में उक्त ‘त्रिक’ की स्थिति एक संक्रमण के दौर से गुज़र रही है और एक ऐसा परिवेश उत्पन्न हो गया है जो अन्धकारमय वातावरण बना रहा है, किन्तु यह ग्रन्थ, महान् भारतीय परम्परा के उन्नत एवं गौरवशाली क्षणों के विवरण, संस्मरण आदि के माध्यम से प्रकाश की किरण लिए हुए समाज को नयी राह दिखाने के लिए तत्पर है। निश्चित रूप से एक उदात्त एवं सकारात्मक दृष्टिकोण के माध्यम से ही हम अभीप्सित लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं और इसे प्राप्त करने में ऐसे कालजयी ग्रन्थ ही हमारी सहायता कर सकते हैं। माता, पिता एवं गुरु के अनुभूतिजन्य संस्मरणों के माध्यम से अभिव्यक्त विचार निस्सन्देह इस दिशा में पथ-प्रदर्शक का कार्य करेंगे, फलतः इस ग्रन्थ की भी महत्ता सदैव बनी रहेगी।

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Description

भारतीय संस्कृति की अजम्र धारा में प्रवहमान अनन्त रत्नों के अप्रतिम ‘त्रिक’ के रूप में माता, पिता एवं गुरु की महत्ता सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है। इन तीनों के विराट् स्वरूप व महिमा को वर्णित करते हुए रचित मम त्रैलोक्यम् ग्रन्थ से पावन आर्ष संस्कृति एवं परम्परा को नवजीवन प्राप्त हुआ है। हम प्रायः अपने अत्यन्त आत्मीय स्वजन को उतनी महत्ता और सम्मान नहीं देते हैं जितना किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं जो कदाचित् हमारे सुख-दुःख, आपत्ति-विपत्ति एवं संकट का साथी नहीं रहा है। हम अपने अनन्य एवं अति निकटस्थ के योगदान को विस्मृत कर देते हैं। इन्हीं अत्यन्त आत्मीय एवं निकटस्थ महाविभूतियों में सर्वोपरि हैं- माता, पिता एवं गुरु । जनसामान्य में एक प्राचीन कहावत प्रचलित है- ‘घर का जोगी जागे णा, आन गाँव का सिद्ध’, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में लेखक द्वारा इन अप्रतिम रत्नों के “त्रिक’ की महत्ता को “अत्यन्त भक्तिमयी विधि से प्रस्तुत करते हुए उनके प्रति अपनी आस्था एवं श्रद्धा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। विभिन्न महाचरितों के आख्यानों के माध्यम से हमारे जीवन के महत्त्वपूर्ण ‘त्रिक’ को तीन आयामों लोकों के रूप में प्रस्तुत किया है।
यद्यपि वर्तमान में उक्त ‘त्रिक’ की स्थिति एक संक्रमण के दौर से गुज़र रही है और एक ऐसा परिवेश उत्पन्न हो गया है जो अन्धकारमय वातावरण बना रहा है, किन्तु यह ग्रन्थ, महान् भारतीय परम्परा के उन्नत एवं गौरवशाली क्षणों के विवरण, संस्मरण आदि के माध्यम से प्रकाश की किरण लिए हुए समाज को नयी राह दिखाने के लिए तत्पर है। निश्चित रूप से एक उदात्त एवं सकारात्मक दृष्टिकोण के माध्यम से ही हम अभीप्सित लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं और इसे प्राप्त करने में ऐसे कालजयी ग्रन्थ ही हमारी सहायता कर सकते हैं। माता, पिता एवं गुरु के अनुभूतिजन्य संस्मरणों के माध्यम से अभिव्यक्त विचार निस्सन्देह इस दिशा में पथ-प्रदर्शक का कार्य करेंगे, फलतः इस ग्रन्थ की भी महत्ता सदैव बनी रहेगी।

About Author

डॉ. अनिल कुमार पाठक दार्शनिक एवं साहित्यिक अध्यवसाय की पृष्ठभूमि रखने वाले डॉ. अनिल कुमार पाठक विभिन्‍न भाषाओं के साहित्य के अध्येता होने के साथ ही मानववाद विषय पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा “डॉक्टरेट' की उपाधि से विभूषित हैं। उन्होंने मानववाद पर केवल शोधकार्य ही नहीं किया है अपितु उसे अपने जीवन में 'मनसा-वाचा-कर्मणा” अपनाया भी है । डॉ. पाठक मानवीय संवेदना से स्पन्दित होने के साथ ही मानववादी मूल्यों के मर्मज्ञ भी हैं । उन्होंने हिन्दी काव्य की विभिन्‍न विधाओं यथा कविता, गीत, कहानी, नाट्यकाव्य, लघु नाटिका आदि में साहित्य सर्जना की है जो आज भी अनवरत चल रही है। माता-पिता की स्मृतियों को समर्पित काव्यसंग्रह पारस बेला के साथ ही गीत सीत के नाम; अप्रतिय; प्राण मेरे; लावारिस नहीं, सेरी माँ है. बचपन से पचपन सहित अन्य प्रकाशित तथा प्रकाशनाधीन कृतियों के माध्यम से जहाँ वह अपने रचना-संसार को नित्य नवीन आयाम देने हेतु कटिबद्ध हैं, वहीं उनकी मर्मस्पर्शी कहानियाँ, गीत और परिचर्चा आदि आकाशवाणी के विभिन्‍न केन्द्रों से नियमित प्रसारित होते रहते हैं। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक दायित्वों के निर्वहन के साथ ही उनके द्वारा एक दशक से अधिक समय से कविता की त्रैमासिक पत्रिका पारस परस का नियमित सम्पादन किया जा रहा है । डॉ. पाठक की अश्रान्त लेखनी सम्प्रति भारतीय संस्कृति, परम्परा के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य की विभिन्‍न विधाओं पर निरन्तर क्रियाशील है ।

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