Kavi Ki Nai Duniya 180

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Macaulay, Elphinstone Aur Bharatiya Shiksha

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
सम्पादक : हृदय कान्त दीवान, रमा कान्त अग्निहोत्री, अरुण चतुर्वेदी, वेद दान
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
सम्पादक : हृदय कान्त दीवान, रमा कान्त अग्निहोत्री, अरुण चतुर्वेदी, वेद दान
Language:
Hindi
Format:
Paperback

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1-4 Days

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Availiblity

ISBN:
SKU 9789386799128 Category
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Page Extent:
360

स्वतन्त्रता के 70 साल बाद भी यह माना जाता है कि हमारी शिक्षा मैकॉले, वुड, सार्जेण्ट, बेंटिक व ऐलफिन्सटन के विचारों तले चरमरा रही है। इन लोगों ने ऐसे कौन से कदम उठाए जिनसे भारत में शिक्षण, ज्ञान-निर्माण व अन्य सभी बौद्धिक कार्य कुन्द पड़ गये? क्या मैकॉलेवादी शिक्षा के लिए, हम स्वयं जिम्मेदार नहीं हैं? क्या मैकॉले को एक खलनायक मानें या एक महानायक या एक साधारण लेखक व अफसर? एक ऐसा इन्सान जो कई अलग-अलग परिस्थितियों के कारण भारत के इतिहास का एक मुख्य एवं विवादास्पद हिस्सा बन गया। मैकॉले को किस नज़रिए से देखा जाए यह कहना सचमुच बहुत कठिन है। यदि आप आज तक इस दुविधा में नहीं थे तो इस पुस्तक के लेखों को पढ़कर निश्चित इन अलग-अलग दृष्टिकोणों के बारे में सोचना अवश्य शुरू कर देंगे। मैकॉले को शिक्षा महाविद्यालयों के लगभग हर सेमिनार, कक्षाओं व चर्चाओं में कोसा जाता है। यह कहा जाता है कि आज हमारी शिक्षा व्यवस्था के सामने जो चुनौतियाँ हैं और इसकी जो स्थिति है उसकी बदहाल ज़िम्मेदारी मैकॉले की ही है। यह सवाल पूछना आवश्यक है कि क्या इसे सन्तोषजनक उत्तर माना जाए? मैकॉले की शिक्षा पद्धति के वे कौन से मुख्य पहलू हैं जो हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था से ऐसे चिपक गये हैं कि हम सब चाह कर भी उनसे विलग नहीं हो पा रहे हैं। या फिर मैकॉले का नाम सिर्फ़ एक बहाना है और असल में हम सभी लोगों को शिक्षा में शामिल ही नहीं करना चाहते? शिक्षा के संवादों व परिचर्चाओं में संवैधानिक लक्ष्यों को हासिल करने के सम्बन्ध में एक असहायता नज़र आती है।

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स्वतन्त्रता के 70 साल बाद भी यह माना जाता है कि हमारी शिक्षा मैकॉले, वुड, सार्जेण्ट, बेंटिक व ऐलफिन्सटन के विचारों तले चरमरा रही है। इन लोगों ने ऐसे कौन से कदम उठाए जिनसे भारत में शिक्षण, ज्ञान-निर्माण व अन्य सभी बौद्धिक कार्य कुन्द पड़ गये? क्या मैकॉलेवादी शिक्षा के लिए, हम स्वयं जिम्मेदार नहीं हैं? क्या मैकॉले को एक खलनायक मानें या एक महानायक या एक साधारण लेखक व अफसर? एक ऐसा इन्सान जो कई अलग-अलग परिस्थितियों के कारण भारत के इतिहास का एक मुख्य एवं विवादास्पद हिस्सा बन गया। मैकॉले को किस नज़रिए से देखा जाए यह कहना सचमुच बहुत कठिन है। यदि आप आज तक इस दुविधा में नहीं थे तो इस पुस्तक के लेखों को पढ़कर निश्चित इन अलग-अलग दृष्टिकोणों के बारे में सोचना अवश्य शुरू कर देंगे। मैकॉले को शिक्षा महाविद्यालयों के लगभग हर सेमिनार, कक्षाओं व चर्चाओं में कोसा जाता है। यह कहा जाता है कि आज हमारी शिक्षा व्यवस्था के सामने जो चुनौतियाँ हैं और इसकी जो स्थिति है उसकी बदहाल ज़िम्मेदारी मैकॉले की ही है। यह सवाल पूछना आवश्यक है कि क्या इसे सन्तोषजनक उत्तर माना जाए? मैकॉले की शिक्षा पद्धति के वे कौन से मुख्य पहलू हैं जो हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था से ऐसे चिपक गये हैं कि हम सब चाह कर भी उनसे विलग नहीं हो पा रहे हैं। या फिर मैकॉले का नाम सिर्फ़ एक बहाना है और असल में हम सभी लोगों को शिक्षा में शामिल ही नहीं करना चाहते? शिक्षा के संवादों व परिचर्चाओं में संवैधानिक लक्ष्यों को हासिल करने के सम्बन्ध में एक असहायता नज़र आती है।

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