Kuchh Pal Sath Raho…

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
तसलीमा नसरीन, अनुवाद- सुशील
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
तसलीमा नसरीन, अनुवाद- सुशील
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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116

प्रेम, मृत्यु, कलकत्ता, निःसंगता – मेरे प्रिय विषय इस संग्रह में शामिल हैं। सब कुछ की तरह, अब प्रेम भी कहीं और ज़्यादा घरेलू हो गया है। ये कविताएँ मैंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पूरे साल भर रहने के दौरान, कैम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स में बैठकर लिखी हैं। कविता लिखने में, मैंने साल भर नहीं लगाया, जाड़े का मौसम ही काफ़ी था। इन्हें कविता भी कैसे कहूँ; इनमें ढेर सारे तो सिर्फ़ ख़त हैं । सुदूर किसी को लिखे गये, रोज-रोज के सीधे-सरल ख़त ! चार्ल्स नदी के पार, कैम्ब्रिज के चारों तरफ़ जब बर्फ ही बर्फ़ बिछी होती है और मेरी शीतार्त देह जमकर, लगभग पथराई होती है, मैं आधे सच और आधे सपने से, कोई प्रेमी निकाल लेती हूँ और अपने को प्यार की तपिश देती हूँ, अपने को जिन्दा रखती हूँ। इस तरह समूचे मौसम की निःसंगता में, मैं अपने को फिर जिन्दा कर लेती हूँ ।

और रही मृत्यु ! और है कलकत्ता ! निःसंगता! मृत्यु तो ख़ैर, मेरे साथ चलती ही रहती है, अपने किसी बेहद अपने का ‘न होना’ भी साथ-साथ चलता रहता है! हर पल साथ होता है! उसके लिए शीत, ग्रीष्म की ज़रूरत नहीं होती। कलकत्ते के लिए भी नहीं होती। निःसंगता के लिए तो बिल्कुल नहीं होती। ये सब क्या मुझे छोड़कर जाना चाहते हैं? वैसे मैं भी भला कहाँ चाहती हूँ कि ये सब मुझसे दूर जायें। कौन कहता है कि निःसंगता हमेशा तकलीफ ही देती है, सुख भी तो देती है।

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Description

प्रेम, मृत्यु, कलकत्ता, निःसंगता – मेरे प्रिय विषय इस संग्रह में शामिल हैं। सब कुछ की तरह, अब प्रेम भी कहीं और ज़्यादा घरेलू हो गया है। ये कविताएँ मैंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पूरे साल भर रहने के दौरान, कैम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स में बैठकर लिखी हैं। कविता लिखने में, मैंने साल भर नहीं लगाया, जाड़े का मौसम ही काफ़ी था। इन्हें कविता भी कैसे कहूँ; इनमें ढेर सारे तो सिर्फ़ ख़त हैं । सुदूर किसी को लिखे गये, रोज-रोज के सीधे-सरल ख़त ! चार्ल्स नदी के पार, कैम्ब्रिज के चारों तरफ़ जब बर्फ ही बर्फ़ बिछी होती है और मेरी शीतार्त देह जमकर, लगभग पथराई होती है, मैं आधे सच और आधे सपने से, कोई प्रेमी निकाल लेती हूँ और अपने को प्यार की तपिश देती हूँ, अपने को जिन्दा रखती हूँ। इस तरह समूचे मौसम की निःसंगता में, मैं अपने को फिर जिन्दा कर लेती हूँ ।

और रही मृत्यु ! और है कलकत्ता ! निःसंगता! मृत्यु तो ख़ैर, मेरे साथ चलती ही रहती है, अपने किसी बेहद अपने का ‘न होना’ भी साथ-साथ चलता रहता है! हर पल साथ होता है! उसके लिए शीत, ग्रीष्म की ज़रूरत नहीं होती। कलकत्ते के लिए भी नहीं होती। निःसंगता के लिए तो बिल्कुल नहीं होती। ये सब क्या मुझे छोड़कर जाना चाहते हैं? वैसे मैं भी भला कहाँ चाहती हूँ कि ये सब मुझसे दूर जायें। कौन कहता है कि निःसंगता हमेशा तकलीफ ही देती है, सुख भी तो देती है।

About Author

तसलीमा नसरीन ने अनगिनत पुरस्कार और सम्मान अर्जित किये हैं, जिनमें शामिल हैं-मुक्त चिन्तन के लिए यूरोपीय संसद द्वारा प्रदत्त-सखाराव पुरस्कार सहिष्णुता और शान्ति प्रचार के लिए यूनेस्को पुरस्कार; फ्रांस सरकार द्वारा मानवाधिकार पुरस्कार; धार्मिक तसलीमा नसरीन आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए फ्रांस का एडिट द नान्त पुरस्कार; स्वीडन लेखक संघ का खोलस्की पुरस्कार; जर्मनी की मानववादी संस्था का अर्विन फिशर पुरस्कार संयुक्त राष्ट्र का फ्रीडम फ्रॉम रिलीजन फाउण्डेशन से फ्री थॉट हीरोइन पुरस्कार और बेल्जियम के मेंट 'विश्वविद्यालय से सम्मानित डॉक्टरेट! वे अमेरिका की ह्युमेनिस्ट अकादमी की घुमेनिस्ट लॉरिएट हैं। भारत में दो बार, अपने 'निर्वाचित कलाम' और 'मेरे बचपन के दिन' के लिए वे 'आनन्द पुरस्कार' से सम्मानित हो चुकी हैं। तसलीमा की पुस्तकें अंग्रेज़ी, फ्रेंच, इतालवी, स्पेनिश, जर्मन समेत दुनिया की तीस भाषाओं में अनूदित हुई हैं। मानववाद, मानवाधिकार, नारी-स्वाधीनता और नास्तिकता जैसे विषयों पर दुनिया के अनगिनत विश्वविद्यालयों के अलावा, इन्होंने विश्वस्तरीय मंचों पर अपने बयान जारी किये हैं। 'अभिव्यक्ति के अधिकार के समर्थन में वे समूची दुनिया में, एक आन्दोलन का नाम बन चुकी हैं। तसलीमा कहती है- 'मन में चन्द आवाजें उभरती हैं, मैंने उन्हें कविता नाम दिया है।' यहाँ तो मुद्दत हुए, मन ने आवाजें देना बन्द कर दिया है। मुद्दत हुए, मन से मेरा अनबोला है, इसलिए कविताओं ने भी चुप्पी साध रखी है। अपना ही मन अगर अपने से नाराज हो, तो इन्सान जीते जी ताबूत में कैद, सिर्फ छटपटाता रहता है। पता नहीं, यह ताबूत कभी टूटेगा या नहीं रही निःसंगता और प्यार की बात... और औरत की बात! हाँ, अब बहुत हुआ औरत को भले बेअदब, बदतमीज़, फर्राट कहा जाये, अब अपने हक के लिए, उसे उठकर खड़ी होना है। पुरुषतन्त्र की ज्यादतियों के खिलाफ, उसे विरोध का इतिहास लिखना है। विरोध मर्द से नहीं, मर्द की मनमानी नृशंसता, तानाशाही से है। पुरुषतन्त्र के खिलाफ धार्मिक कट्टरता की फसल है। साम्प्रदायिकता इस झाड़-झंखाड़ ने तो मानवता के कल्पवृक्ष को ही निगल लिया है। इसे जड़ से निर्मूल करना, इन्सानियत की पहली शर्त है 'कुछ पल साथ रहो" तसलीमा की कविताओं का काव्यानुवाद है, यह दावा नहीं करूँगी, में इसे भावानुवाद कहूँगी फैसला पाठकों पर है, क्योंकि पाठक मेरे अपने हैं, मेरी ताकत हैं। सुशील गुप्ता, अनुवादिका

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