Kavve Aur Kala Pani

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
निर्मल वर्मा
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Vani Prakashan
Author:
निर्मल वर्मा
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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निर्मल वर्मा के भाव-बोध में एक खुलापन निश्चय ही है-न केवल ‘रिश्तों की लहूलुहान पीड़ा’ के प्रति, बल्कि मनुष्य के उस अनुभव और उस वृत्ति के प्रति भी, जो उसे ‘जिन्दगी के मतलब की खोज’ में प्रवृत्त करती है। उनके जीवन-बोध में दोनों स्थितियों और वृत्तियों के लिए गुंजाइश निकल आती है और यह ‘रिश्तों की उस लहूलुहान पीड़ा’ के एकाग्र अनुभव और आकलन का अनिवार्य प्रतिफलन है….

जब हम इन पात्रों, स्थितियों और संरचनाओं से वास्तव में उलझते हैं – एक के बाद एक कहानी में उन्हीं स्थायीभाव सरीखे द्वन्द्वों और प्रतीतियों से टकराते हैं, तब हम लेखक की असली ‘एंग्विश’, उसकी प्रश्नाकुलता के वास्तविक धरातल तक पहुँच पाते हैं। तब इन कहानियों का अनिवार्य सम्बन्ध न केवल मानव-व्यक्तियों की मूलभूत आस्तित्विक वेदनाओं से हमें दिखाई देने लगता है, बल्कि हमारे अपने समाज और परिवेश के सत्य की हमारे मध्यवर्गीय जीवनानुभव के दुरतिक्राम्य तथ्यों की भी गूँज उनमें सुनाई देने लगती है । बाँझ दुख की यह सत्ता, अकेली आकृतियों का यह जीवन-मरण हमें तब न विजातीय लगता है, न व्यक्तिवादी पलायन, न कलावादी जीवनद्रोह ।

– रमेशचन्द्र शाह

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Description

निर्मल वर्मा के भाव-बोध में एक खुलापन निश्चय ही है-न केवल ‘रिश्तों की लहूलुहान पीड़ा’ के प्रति, बल्कि मनुष्य के उस अनुभव और उस वृत्ति के प्रति भी, जो उसे ‘जिन्दगी के मतलब की खोज’ में प्रवृत्त करती है। उनके जीवन-बोध में दोनों स्थितियों और वृत्तियों के लिए गुंजाइश निकल आती है और यह ‘रिश्तों की उस लहूलुहान पीड़ा’ के एकाग्र अनुभव और आकलन का अनिवार्य प्रतिफलन है….

जब हम इन पात्रों, स्थितियों और संरचनाओं से वास्तव में उलझते हैं – एक के बाद एक कहानी में उन्हीं स्थायीभाव सरीखे द्वन्द्वों और प्रतीतियों से टकराते हैं, तब हम लेखक की असली ‘एंग्विश’, उसकी प्रश्नाकुलता के वास्तविक धरातल तक पहुँच पाते हैं। तब इन कहानियों का अनिवार्य सम्बन्ध न केवल मानव-व्यक्तियों की मूलभूत आस्तित्विक वेदनाओं से हमें दिखाई देने लगता है, बल्कि हमारे अपने समाज और परिवेश के सत्य की हमारे मध्यवर्गीय जीवनानुभव के दुरतिक्राम्य तथ्यों की भी गूँज उनमें सुनाई देने लगती है । बाँझ दुख की यह सत्ता, अकेली आकृतियों का यह जीवन-मरण हमें तब न विजातीय लगता है, न व्यक्तिवादी पलायन, न कलावादी जीवनद्रोह ।

– रमेशचन्द्र शाह

About Author

निर्मल वर्मा (1929-2005) भारतीय मनीषा की उस उज्ज्वल परम्परा के प्रतीक-पुरुष हैं, जिनके जीवन में कर्म, चिन्तन और आस्था के बीच कोई फाँक नहीं रह जाती। कला का मर्म जीवन का सत्य बन जाता है और आस्था की चुनौती जीवन की कसौटी। ऐसा मनीषी अपने होने की कीमत देता भी है और माँगता भी। अपने जीवनकाल में गलत समझे जाना उसकी नियति है और उससे बेदाग उबर आना उसका पुरस्कार। निर्मल वर्मा के हिस्से में भी ये दोनों बखूब आये। स्वतन्त्र भारत की आरम्भिक आधी से अधिक सदी निर्मल वर्मा की लेखकीय उपस्थिति से गरिमांकित रही। वह उन थोड़े से रचनाकारों में थे जिन्होंने संवेदना की व्यक्तिगत स्पेस और उसके जागरूक वैचारिक हस्तक्षेप के बीच एक सुन्दर सन्तुलन का आदर्श प्रस्तुत किया। उनके रचनाकार का सबसे महत्त्वपूर्ण दशक, साठ का दशक, चेकोस्लोवाकिया के विदेश प्रवास में बीता। अपने लेखन में उन्होंने न केवल मनुष्य के दूसरे मनुष्यों के साथ सम्बन्धों की चीर-फाड़ की, वरन् उसकी सामाजिक, राजनैतिक भूमिका क्या हो, तेजी से बदलते जाते हमारे आधुनिक समय में एक प्राचीन संस्कृति के वाहक के रूप में उसके आदर्शों की पीठिका क्या हो, इन सब प्रश्नों का भी सामना किया। अपने जीवनकाल में निर्मल वर्मा साहित्य के लगभग सभी श्रेष्ठ सम्मानों से समादृत हुए, जिनमें साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1985), ज्ञानपीठ पुरस्कार (1999), साहित्य अकादेमी महत्तर सदस्यता (2005) उल्लेखनीय हैं। भारत के राष्ट्रपति द्वारा तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान, पद्मभूषण, उन्हें सन् 2002 में दिया गया। अक्तूबर 2005 में निधन के समय निर्मल वर्मा भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से नोबल पुरस्कार के लिए नामित थे।

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