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Karam Sanyasi Krishna (HB)
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व्यासदेव प्रणीत ‘महाभारत’ ग्रन्थ में भारत के राष्ट्रीय युग-परिवर्तन का इतिहास है। वह उस दीप-स्तम्भ के समान है, जिसके प्रकाश में अतीत की चित्रावली के साथ-साथ युग-क्रान्ति के पश्चात् स्थापित होनेवाली नवीन राजसत्ता, समाज और व्यक्ति के नवीन रूप, नवीन उत्साह और नवीन आकांक्षाओं की भी झलक प्राप्त होती है। यद्यपि उस ग्रन्थ में कौरव-पांडवों के भीषण युद्ध का वर्णन है, परन्तु रचना के मूल नायक कृष्ण हैं।
कृष्ण के जिन स्वरूपों का उक्त ग्रन्थ में उद्घाटन हुआ है, उनमें युग-पुरुष, विभूति, तत्त्वज्ञ तथा पूर्णावतार मुख्य हैं। यदि कृष्ण के अवतार रूप को वादग्रस्त भी मान लिया जाए तब भी उनके शेष तीन रूप ही उन्हें मानवेतर या महामानव के पद पर आसीन करने को पर्याप्त हैं। उनका चरित्र इतना विशाल और गूढ़ है कि उसका पूर्ण दर्शन सम्भव नहीं। मानवीय जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं जो उनके क्रियात्मक रूप से अछूता बचा हो। प्रथम रूप में वे अपने युग के नरोत्तम, दूसरे में महामानव और तीसरे में जगद्गुरु हैं। इन सब कारणों से वे पूर्ण पुरुष कहे व माने जाते हैं। योगेश्वर कृष्ण ने जिस अध्यात्म की चर्चा की तथा जिस स्थिति को प्राप्त करना प्रगतिशील मानवी जीवन की सबसे उत्कृष्ट उपलब्धि बतलाई है, वह इस जीवन से विलग किसी अन्य क्षेत्र की गतिविधि नहीं। यथार्थ में गीता-प्रतिपादित अध्यात्म मानवी-जीवन का ही विषय है और उसी का अंग है। वह संसार के व्यवहार से सम्बन्धित है। वह व्यक्तिगत व सामाजिक व्यवहार शुद्धि पर अवलम्बित है। आसुरी वृत्ति का त्याग और सात्त्विकता का अर्जन उस मार्ग के दिशा-सूचक संकेत-चिन्ह हैं।
यह पुस्तक पश्चिम के प्रभावस्वरूप भारत में कृष्ण को लेकर प्रचलित उन धारणाओं का खंडन करती है
जो कृष्ण की ऐतिहासिकता और गुण-सम्पन्नता को क्षतिग्रस्त करने का प्रयास करती है। कृष्ण के सन्दर्भ में प्रक्षेपित संशयों का निराकरण करते हुए विद्वान लेखक इस पुस्तक में कृष्ण की नितान्त आधुनिक और समीचीन व्याख्या प्रस्तुत करते हैं और अकाट्य तथा प्रखर तर्कों के आधार पर एक सम्पूर्ण कृष्ण-छवि की रचना करते हैं।
व्यासदेव प्रणीत ‘महाभारत’ ग्रन्थ में भारत के राष्ट्रीय युग-परिवर्तन का इतिहास है। वह उस दीप-स्तम्भ के समान है, जिसके प्रकाश में अतीत की चित्रावली के साथ-साथ युग-क्रान्ति के पश्चात् स्थापित होनेवाली नवीन राजसत्ता, समाज और व्यक्ति के नवीन रूप, नवीन उत्साह और नवीन आकांक्षाओं की भी झलक प्राप्त होती है। यद्यपि उस ग्रन्थ में कौरव-पांडवों के भीषण युद्ध का वर्णन है, परन्तु रचना के मूल नायक कृष्ण हैं।
कृष्ण के जिन स्वरूपों का उक्त ग्रन्थ में उद्घाटन हुआ है, उनमें युग-पुरुष, विभूति, तत्त्वज्ञ तथा पूर्णावतार मुख्य हैं। यदि कृष्ण के अवतार रूप को वादग्रस्त भी मान लिया जाए तब भी उनके शेष तीन रूप ही उन्हें मानवेतर या महामानव के पद पर आसीन करने को पर्याप्त हैं। उनका चरित्र इतना विशाल और गूढ़ है कि उसका पूर्ण दर्शन सम्भव नहीं। मानवीय जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं जो उनके क्रियात्मक रूप से अछूता बचा हो। प्रथम रूप में वे अपने युग के नरोत्तम, दूसरे में महामानव और तीसरे में जगद्गुरु हैं। इन सब कारणों से वे पूर्ण पुरुष कहे व माने जाते हैं। योगेश्वर कृष्ण ने जिस अध्यात्म की चर्चा की तथा जिस स्थिति को प्राप्त करना प्रगतिशील मानवी जीवन की सबसे उत्कृष्ट उपलब्धि बतलाई है, वह इस जीवन से विलग किसी अन्य क्षेत्र की गतिविधि नहीं। यथार्थ में गीता-प्रतिपादित अध्यात्म मानवी-जीवन का ही विषय है और उसी का अंग है। वह संसार के व्यवहार से सम्बन्धित है। वह व्यक्तिगत व सामाजिक व्यवहार शुद्धि पर अवलम्बित है। आसुरी वृत्ति का त्याग और सात्त्विकता का अर्जन उस मार्ग के दिशा-सूचक संकेत-चिन्ह हैं।
यह पुस्तक पश्चिम के प्रभावस्वरूप भारत में कृष्ण को लेकर प्रचलित उन धारणाओं का खंडन करती है
जो कृष्ण की ऐतिहासिकता और गुण-सम्पन्नता को क्षतिग्रस्त करने का प्रयास करती है। कृष्ण के सन्दर्भ में प्रक्षेपित संशयों का निराकरण करते हुए विद्वान लेखक इस पुस्तक में कृष्ण की नितान्त आधुनिक और समीचीन व्याख्या प्रस्तुत करते हैं और अकाट्य तथा प्रखर तर्कों के आधार पर एक सम्पूर्ण कृष्ण-छवि की रचना करते हैं।
About Author
झुन्नीलाल वर्मा
साधारण से पटवारी परिवार में 26 सितम्बर, 1889 को जन्मे झुन्नीलाल वर्मा सुदृढ़ इच्छाशक्ति के पर्याय थे। आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए., एल.एल.बी. तक शिक्षा प्राप्त की और शिक्षक के रूप में जीवन प्रारम्भ कर नायब तहसीलदार बने। सरकारी नौकरी छोड़कर वकालत प्रारम्भ की और जीवनपर्यन्त मध्य भारत के अग्रणी वकीलों में शामिल रहे। अपनी कर्मयात्रा में आपने सचिव केन्द्रीय सहकारी बैंक, चेयरमैन डिस्ट्रिक्ट काउंसिल, सागर विश्वविद्यालय कार्यकारिणी के सदस्य और डीन फ़ैकल्टी ऑफ़ लॉ, सी.पी. एंड बरार विधान परिषद के सदस्य आदि पदों को सुशोभित किया। वर्मा जी ने सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक स्व. हरीसिंह गौर के साथ काम किया और विश्वविद्यालय कार्यकारिणी के उपाध्यक्ष पद पर सात वर्षों तक आसीन रहे। दमोह महाविद्यालय एवं विधि महाविद्यालय के संस्थापक अध्यक्ष रहे। उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाने के लिए ही विधि महाविद्यालय का नाम जे.एल. वर्मा विधि महाविद्यालय किया गया है। स्वतंत्रता आन्दोलन में भी वर्मा जी ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। इस क्रम में 2 दिसम्बर, 1933 उनके लिए यादगार दिन था जब उन्हें महात्मा गांधी की अगवानी और मानपत्र समर्पित करने का अवसर मिला। 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के दौरान, महाकौशल प्रान्त के प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख के तौर पर
पं. जवाहरलाल नेहरू से भी मुलाक़ात की।
छात्र-जीवन से ही वर्मा जी का साहित्य के प्रति विशेष अनुराग था। उनकी साहित्य-प्रतिभा की साफ़ तस्वीर उनके ग्रन्थ ‘भरत-दर्शन’ में प्राप्त होती है जो 1956 में इंडियन प्रेस पब्लिकेशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ था। इसके बारे में मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था कि भरत चरित्र आकाश की तरह निष्पंक है और वर्मा जी ने अपनी लेखनी का उत्कृष्ट उपयोग किया है। साम्प्रदायिक सद्भाव पर लिखा गया उनका नाटक ‘मानवाश्रम’ भी काफ़ी लोकप्रिय था। उनका नवीनतम ग्रन्थ ‘कर्म संन्यासी कृष्ण’ श्रीकृष्ण की कथा और कौशल की स्पष्ट छवियाँ हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है। मानवीय मूल्यों में उनकी असन्दिग्ध आस्था थी, वे कहा करते थे कि “जागृत का संकेत सदा गति श्रम में उसका खो जाना है।”
उनकी कर्मयात्रा 11 दिसम्बर, 1980 को समाप्त हुई।
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