Kala Shukravar (PB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
Sudha Arora
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Rajkamal
Author:
Sudha Arora
Language:
Hindi
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Hardback

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समकालीन कहानी में कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और उषा प्रियम्वदा के एकदम बाद की पीढ़ी में सुधा अरोड़ा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। चार दशकों की विशिष्ट कथा-यात्रा में एक लम्बे अन्तराल के बाद सुधा अरोड़ा का यह कहानी-संग्रह ‘काला शुक्रवार’ न सिर्फ़ उनके पाठकों को उत्साहित करता है, बल्कि समकालीन महिला-लेखन की एक सार्थक और संवेदनशील पहचान बनाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
सुधा अरोड़ा की कहानियाँ ‘स्व’ से प्रारम्भ कर समाज की पेचीदा समस्याओं और समय के बड़े सवालों से जूझती हैं। ‘काला शुक्रवार’ और ‘बलवा’ में प्रकटतम रूप में तो ‘दमनचक्र’ और ‘भ्रष्टाचार की जय’ में तीखे रूप में उस राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था की विद्रूपताओं, भ्रष्टाचार के घिनौने रूप और आपराधिक चरित्रों के राजनीतिक संरक्षण की बखिया उधेड़ी गई है जिसने सामान्य आदमी के सुख-चैन को छीनकर जीने लायक़ नहीं रहने दिया है। आदमी के निरन्तर अमानवीय होते चले जाने की प्रक्रिया को सन् सैंतालीस के साम्प्रदायिक दंगों से लेकर अब तक के राजनीतिक सन्दर्भों में विश्लेषित करती उनकी चिन्ता बेहतर मानवीय मूल्यों को बचाने की है।
सुधा अरोड़ा की कहानियाँ एक व्यापक फलक पर बदलती हुई दुनिया में स्त्री के सतत और परिवर्तनकारी संघर्ष को सार्थक स्वर और दिशा देती भी दिखाई देती हैं। ‘रहोगी तुम वही’ से लेकर ‘अन्नपूर्णा मंडल की आख़िरी चिट्ठी’ तक सुधा अरोड़ा की कहानियाँ स्त्री-सुलभ सीमित संसार की वैयक्तिक अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं, बल्कि इनमें पुरुषशासित समाज में स्त्री के लिए जायज़ और सम्मानजनक ‘स्पेस’ बनाने की उद्दाम लालसा पूरी गहराई के साथ महसूस की जा सकती है। आज के समय और परिवेश की गहरी पहचान, कथा-शैली में एक अन्तरंग निजता का सम्मोहक प्रभाव एवं गद्य में सरलीकरण का सौन्दर्य और इन सबके बीच व्यंग्य की तिक्तता सुधा अरोड़ा की इन बहुचर्चित कहानियों को एक विशिष्ट कथा-रस प्रदान करती है और पाठक को आद्यन्त बाँधे रखने में सक्षम सिद्ध होती है।
इन कहानियों के ज़रिए आज की जटिल महानगरीय विसंगतियों में एक सार्थक और साहसिक हस्तक्षेप की महत्त्वपूर्ण सम्भावना भी बनती दिखाई देती है।

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Description

समकालीन कहानी में कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और उषा प्रियम्वदा के एकदम बाद की पीढ़ी में सुधा अरोड़ा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। चार दशकों की विशिष्ट कथा-यात्रा में एक लम्बे अन्तराल के बाद सुधा अरोड़ा का यह कहानी-संग्रह ‘काला शुक्रवार’ न सिर्फ़ उनके पाठकों को उत्साहित करता है, बल्कि समकालीन महिला-लेखन की एक सार्थक और संवेदनशील पहचान बनाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
सुधा अरोड़ा की कहानियाँ ‘स्व’ से प्रारम्भ कर समाज की पेचीदा समस्याओं और समय के बड़े सवालों से जूझती हैं। ‘काला शुक्रवार’ और ‘बलवा’ में प्रकटतम रूप में तो ‘दमनचक्र’ और ‘भ्रष्टाचार की जय’ में तीखे रूप में उस राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था की विद्रूपताओं, भ्रष्टाचार के घिनौने रूप और आपराधिक चरित्रों के राजनीतिक संरक्षण की बखिया उधेड़ी गई है जिसने सामान्य आदमी के सुख-चैन को छीनकर जीने लायक़ नहीं रहने दिया है। आदमी के निरन्तर अमानवीय होते चले जाने की प्रक्रिया को सन् सैंतालीस के साम्प्रदायिक दंगों से लेकर अब तक के राजनीतिक सन्दर्भों में विश्लेषित करती उनकी चिन्ता बेहतर मानवीय मूल्यों को बचाने की है।
सुधा अरोड़ा की कहानियाँ एक व्यापक फलक पर बदलती हुई दुनिया में स्त्री के सतत और परिवर्तनकारी संघर्ष को सार्थक स्वर और दिशा देती भी दिखाई देती हैं। ‘रहोगी तुम वही’ से लेकर ‘अन्नपूर्णा मंडल की आख़िरी चिट्ठी’ तक सुधा अरोड़ा की कहानियाँ स्त्री-सुलभ सीमित संसार की वैयक्तिक अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं, बल्कि इनमें पुरुषशासित समाज में स्त्री के लिए जायज़ और सम्मानजनक ‘स्पेस’ बनाने की उद्दाम लालसा पूरी गहराई के साथ महसूस की जा सकती है। आज के समय और परिवेश की गहरी पहचान, कथा-शैली में एक अन्तरंग निजता का सम्मोहक प्रभाव एवं गद्य में सरलीकरण का सौन्दर्य और इन सबके बीच व्यंग्य की तिक्तता सुधा अरोड़ा की इन बहुचर्चित कहानियों को एक विशिष्ट कथा-रस प्रदान करती है और पाठक को आद्यन्त बाँधे रखने में सक्षम सिद्ध होती है।
इन कहानियों के ज़रिए आज की जटिल महानगरीय विसंगतियों में एक सार्थक और साहसिक हस्तक्षेप की महत्त्वपूर्ण सम्भावना भी बनती दिखाई देती है।

About Author

सुधा अरोड़ा

सातवें दशक की चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा का जन्म 4 अक्टूबर, 1946 को लाहौर में हुआ। कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1967 में हिन्दी साहित्य में एम.ए. तथा बी.ए. ऑनर्स में दो बार स्वर्णपदक प्राप्त करनेवाली सुधा जी ने 1969 से 1971 तक कलकत्ता के दो डिग्री कॉलेजों में अध्यापन-कार्य किया।

उनकी पहली कहानी 'मरी हुई चीज़’ 'ज्ञानोदय’ में सितम्बर 1965 में और पहला कहानी-संग्रह 'बग़ैर तराशे हुए’ 1967 में प्रकाशित हुआ। 1991 में हेल्प सलाहकार केन्द्र, मुम्बई से जुड़ने के बाद वे सामाजिक कार्यों के प्रति समर्पित रहीं।

अब तक उनके बारह कहानी-संकलन जिनमें 'महानगर की मैथिली’, 'काला शुक्रवार’ और 'रहोगी तुम वही’ चर्चित रहे हैं, एक कविता-संकलन तथा एक उपन्यास के अतिरिक्त वैचारिक लेखों की दो किताबें 'आम औरत : जि़न्दा सवाल’ और 'एक औरत की नोटबुक’ प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने बड़े पैमाने पर अनुवाद, सम्पादन और स्तम्भ-लेखन भी किया है तथा भंवरी देवी पर बनी फि़ल्म 'बवंडर’ की पटकथा लिखी है।

कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ़्रेंच , पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित और इन भाषाओं के संकलनों में प्रकाशित।

1977-78 में पाक्षिक 'सारिका’ में 'आम औरत : जि़न्दा सवाल’, 1997-98 में दैनिक अख़बार 'जनसत्ता’ में साप्ताहिक स्तम्भ 'वामा’, 2004 से 2009 तक 'कथादेश’ में 'औरत की दुनिया’ और 2013 से 'राख में दबी चिनगारी’—उनके स्तम्भ ने साहित्यिक परिदृश्य पर अपनी ख़ास जगह बनाई है।

1978 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का विशेष पुरस्कार, 2008 में 'भारत निर्माण सम्मान’, 2010 में 'प्रियदर्शिनी पुरस्कार’, 2011 में 'वीमेन्स अचीवर अवॉर्ड’, 2012 में 'महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादमी सम्मान’ और 2014 में 'वाग्मणि सम्मान’ आदि से सम्मानित हो चुकी हैं।

सम्प्रति : मुम्बई में स्वतंत्र लेखन।

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