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Kala Aur Sanskriti HC
Publisher:
Lokbharti
| Author:
Vasudev sharan Agarwal
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Lokbharti
Author:
Vasudev sharan Agarwal
Language:
Hindi
Format:
Hardback
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Weight | 350 g |
---|---|
Book Type |
ISBN:
SKU
9789389243321
Categories Hindi, Uncategorized
Categories: Hindi, Uncategorized
Page Extent:
215
‘कला और संस्कृति’ समय-समय पर लिखे हुए मेरे कुछ निबन्धों का संग्रह है । ‘संस्कृति’ मानव जीवन की प्रेरक शक्ति और राष्ट्रीय जीवन की आवश्यकता है । वह मानवी जीवन को अध्यात्म प्रेरणा प्रदान करती है । उसे बुद्धि का कुतूहल मात्र नहीं कहा जा सकता । संस्कृति के विषय में भारतीय दृष्टिकोण की इस विशेषता को प्रस्तुत लेखों में विशद किया गया है । लोक का जो प्रत्यक्ष जीवन है उसको जाने बिना हम मानव जीवन को पूरी तरह नहीं समझ सकते । कारण भारतीय संस्कृति में सब भूतों में व्याप्त एक अन्तर्यामी अध्यात्म तत्व को जानने पर अधिक बल दिया गया है । हमारी संस्कृति उन समस्त रूपों का समुदाय है जिनकी सृष्टि ही मानवीय प्रयत्नों में यहॉ की गई है । उनकी उद्दात्त प्रेरणाओं को लेकर ही हमें आगे बढ़ना होगा । रथूल जीवन में संस्कृति की अभिव्यक्ति ‘कला’ को जन्म देती है । कला का सम्बन्ध जीवन के मूर्त रूप से है । कला मानवीय जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है । वह कुछ व्यक्तियों के विलास साधन के लिए नहीं होती । वह शिक्षण, आनंद और अध्यात्म साधना के उद्देश्य से आगे बढ़ती है । इसी से जहाँ जो सौन्दर्य क्री परम्परा बची है उसे सहानुभूति के साथ समझ कर पुन: विकसित करना होगा । भारतीय कला न केवल रूप विधान की दृष्टि से समृद्ध है वरन् उसकी शब्दावली भी अत्यन्त विकसित है । समय रहते कला की पारिभाषिक शब्दावली की रक्षा करना भी हमारा आवश्यक कर्त्तव्य है । अन्त में यह कहा जा सकता है कि पूर्व मानव के जीवन में जो महत्त्व धर्म और अध्यात्म का था वही अपने वाले युग में कला और संस्कृति को प्राप्त होगा । – वासुदेवशरण अग्रवाल.
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Description
‘कला और संस्कृति’ समय-समय पर लिखे हुए मेरे कुछ निबन्धों का संग्रह है । ‘संस्कृति’ मानव जीवन की प्रेरक शक्ति और राष्ट्रीय जीवन की आवश्यकता है । वह मानवी जीवन को अध्यात्म प्रेरणा प्रदान करती है । उसे बुद्धि का कुतूहल मात्र नहीं कहा जा सकता । संस्कृति के विषय में भारतीय दृष्टिकोण की इस विशेषता को प्रस्तुत लेखों में विशद किया गया है । लोक का जो प्रत्यक्ष जीवन है उसको जाने बिना हम मानव जीवन को पूरी तरह नहीं समझ सकते । कारण भारतीय संस्कृति में सब भूतों में व्याप्त एक अन्तर्यामी अध्यात्म तत्व को जानने पर अधिक बल दिया गया है । हमारी संस्कृति उन समस्त रूपों का समुदाय है जिनकी सृष्टि ही मानवीय प्रयत्नों में यहॉ की गई है । उनकी उद्दात्त प्रेरणाओं को लेकर ही हमें आगे बढ़ना होगा । रथूल जीवन में संस्कृति की अभिव्यक्ति ‘कला’ को जन्म देती है । कला का सम्बन्ध जीवन के मूर्त रूप से है । कला मानवीय जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है । वह कुछ व्यक्तियों के विलास साधन के लिए नहीं होती । वह शिक्षण, आनंद और अध्यात्म साधना के उद्देश्य से आगे बढ़ती है । इसी से जहाँ जो सौन्दर्य क्री परम्परा बची है उसे सहानुभूति के साथ समझ कर पुन: विकसित करना होगा । भारतीय कला न केवल रूप विधान की दृष्टि से समृद्ध है वरन् उसकी शब्दावली भी अत्यन्त विकसित है । समय रहते कला की पारिभाषिक शब्दावली की रक्षा करना भी हमारा आवश्यक कर्त्तव्य है । अन्त में यह कहा जा सकता है कि पूर्व मानव के जीवन में जो महत्त्व धर्म और अध्यात्म का था वही अपने वाले युग में कला और संस्कृति को प्राप्त होगा । – वासुदेवशरण अग्रवाल.
About Author
जन्म: 1904 शिक्षा: 1929 में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए., 1946 में पी-एच.डी. तथा में डी.लिट् की उपाधियाँ प्राप्त कीं। गतिविधियाँ: 1940 तक मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय के अध्यक्ष पद पर रहे। 1946 से लेकर 1951 तक सेंट्रल एशियन एक्टिविटीज म्यूजियम के सुपरिंटेंडेंट और भारतीय पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्य। 1951 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ इंडोलॉजी में प्रोफेसर नियुक्त हुए। 1952 में लखनऊ विश्वविद्यालय में राधाकुमुद मुखर्जी व्याख्यान-निधि की ओर से व्याख्याता नियुक्त हुए। आप भारतीय मुद्रा परिषद् (नागपुर), भारतीय संग्रहालय परिषद् (पटना) और ऑल इंडिया ओरियंटल कांग्रेस, फाइन आर्ट सेक्सन (मुम्बई) आदि संस्थाओं के सभापति भी रहे। प्रकाशित कृतियाँ: पृथ्वी-पुत्र (1949), उरुज्योति (1952), कला और संस्कृति (1952), कल्पवृक्ष (1953), माता भूमि (1953), हर्षचरित - एक सांस्कृतिक अध्ययन (1953), पोद्दार अभिनन्दन ग्रन्थ (1953), भारत की मौलिक एकता (1954), मलिक मुहम्मद जायसी: पदमावत (1955), पाणिनिकालीन भारतवर्ष (1955), भारतसावित्री (1957), कादम्बरी (1958)। राधाकुमुद मुखर्जीकृत हिन्दू सभ्यता का अनुवाद (1955)। शृंगारहाट का सम्पादन डॉ. मोती चन्द के साथ मिलकर। कालिदास के मेघदूत एवं बाणभट्ट के हर्षचरित की नवीन पीठिका प्रस्तुत की। भारतीय साहित्य और संस्कृति के गम्भीर अध्येता के रूप में इनका नाम देश के विद्वानों में अग्रणी। निधन: 1966.
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