Jidhar Kuchh Nahin (HB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
Devi Prasad Mishra
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Rajkamal
Author:
Devi Prasad Mishra
Language:
Hindi
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Hardback

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‘जिधर कुछ नहीं’ की विशिष्टता यह नहीं है कि यह हिन्दी की सबसे लम्बी कविताओं में एक है बल्कि यह कि यह एक नई तरकीब से लिखी गई है और वैकल्पिक नागरिकता को आविष्कृत करने के लिए एक दुष्कर और लम्बी अन्तर्यात्रा पर निकली हुई है। यह वैकल्पिक सृष्टि को खोजना तो है लेकिन इसके लिए भारतीय पृथ्वी के कोलाहल, वैषम्य और क़ैद से गुज़रने से कोई निज़ात नहीं है। दरअस्ल, जो शोर, दिग्भ्रम, अमर्ष, धुंध और अँधेरा मौजूद है, उसी के पीछे और नीचे वैकल्पिक नागरिकता छिपी हुई है। तो खोज का प्रश्न राजनीतिक प्रबोध और बड़ी समाजार्थिक परिकल्पना से जुड़ा हुआ है। देवी एक ऐसी सामाजिक सुरंग से गुज़रने और पाठक को गुज़ारने का चयन करते हैं जिसके कितने ही स्टेशन और अड्डे ढहा दिये गये हैं या जला दिये गये हैं। यह कठिन समय में लिखी गई कविता है जब राज्य के चरित्र को बदल दिया गया है, जब उत्तर-सत्य का बोलबाला है, जब बड़ी संकल्पनाएँ नष्ट की जा रही हैं, जब ज्ञान की जगह अंधी आस्था को स्थापित किया जा रहा है, जब अपराध को वैधता दी जा रही है, जब सामाजिक रचना के लिए मानवीय अन्तर्दृष्टि की जगह घृणादृष्टि ले रही है, जब ज्ञान को संदेहास्पद बनाया जा रहा है और इतिहास का विभाजक पाठ तैयार किया जा रहा है। उजाड़ने का यह काम भले ही बहुत क्रूर तरीक़े से किया गया दिख रहा हो, इस अमानवीय और नागरिकता विरोध की दीर्घ और सत्तात्मक परंपरा है। इस रौशनी में देखने पर यह साफ़ होगा कि यह कविता किसी भी तरह से प्रतिक्रियात्मक संरचना भर नहीं है बल्कि एक दस्तावेज़ी और ऐतिहासिक कामकाज है जिसकी प्रासंगिकता असमाप्य है क्योंकि ताक़त का दुरुपयोग ख़त्म होता नहीं दिखता। इस कविता में देवी कहन का अप्रतिम हुनर दिखाते हैं, हिन्दवी की तमाम प्रविधियों से लेन-देन शुरू कर देते हैं और इस कारोबार की अनायासता में एक नयी काव्य तकनीक हासिल कर लेते हैं। वह अनुभव की विपुलता से गुज़रते हुए कितनी ही बार रेटरिक को काव्यात्मक विज़न और परानुभूति की बड़ी सूझ में बदल देते हैं। इस महाकविता का पाठ उतना कठिन नहीं है जितना वह अपनी संरचना में दिखता है जो भले ही समकालीनता के कोने में किये गये एकांतिक दुस्साहस का नतीजा हो या किसी फक्कड़ के हाथ लग जाने वाली मौलिकता की जादुई भभूत। वैकल्पिक की खोज में भटकती कविता की परिकल्पना और संरचना दोनों अपूर्व हैं जो भारतीय और विश्व कविता के बीच गर्दन बहुत ऊँची करके खड़ी हो सकती हैं। किताब के अन्त में आता उत्तर कथन इस कविता के आलोक में राजकीय दमन और रचना के बीच के जटिल सम्बन्ध को जिस तरह से देखता है, हिन्दी विचार जगत में वह विरल है।’

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Description

‘जिधर कुछ नहीं’ की विशिष्टता यह नहीं है कि यह हिन्दी की सबसे लम्बी कविताओं में एक है बल्कि यह कि यह एक नई तरकीब से लिखी गई है और वैकल्पिक नागरिकता को आविष्कृत करने के लिए एक दुष्कर और लम्बी अन्तर्यात्रा पर निकली हुई है। यह वैकल्पिक सृष्टि को खोजना तो है लेकिन इसके लिए भारतीय पृथ्वी के कोलाहल, वैषम्य और क़ैद से गुज़रने से कोई निज़ात नहीं है। दरअस्ल, जो शोर, दिग्भ्रम, अमर्ष, धुंध और अँधेरा मौजूद है, उसी के पीछे और नीचे वैकल्पिक नागरिकता छिपी हुई है। तो खोज का प्रश्न राजनीतिक प्रबोध और बड़ी समाजार्थिक परिकल्पना से जुड़ा हुआ है। देवी एक ऐसी सामाजिक सुरंग से गुज़रने और पाठक को गुज़ारने का चयन करते हैं जिसके कितने ही स्टेशन और अड्डे ढहा दिये गये हैं या जला दिये गये हैं। यह कठिन समय में लिखी गई कविता है जब राज्य के चरित्र को बदल दिया गया है, जब उत्तर-सत्य का बोलबाला है, जब बड़ी संकल्पनाएँ नष्ट की जा रही हैं, जब ज्ञान की जगह अंधी आस्था को स्थापित किया जा रहा है, जब अपराध को वैधता दी जा रही है, जब सामाजिक रचना के लिए मानवीय अन्तर्दृष्टि की जगह घृणादृष्टि ले रही है, जब ज्ञान को संदेहास्पद बनाया जा रहा है और इतिहास का विभाजक पाठ तैयार किया जा रहा है। उजाड़ने का यह काम भले ही बहुत क्रूर तरीक़े से किया गया दिख रहा हो, इस अमानवीय और नागरिकता विरोध की दीर्घ और सत्तात्मक परंपरा है। इस रौशनी में देखने पर यह साफ़ होगा कि यह कविता किसी भी तरह से प्रतिक्रियात्मक संरचना भर नहीं है बल्कि एक दस्तावेज़ी और ऐतिहासिक कामकाज है जिसकी प्रासंगिकता असमाप्य है क्योंकि ताक़त का दुरुपयोग ख़त्म होता नहीं दिखता। इस कविता में देवी कहन का अप्रतिम हुनर दिखाते हैं, हिन्दवी की तमाम प्रविधियों से लेन-देन शुरू कर देते हैं और इस कारोबार की अनायासता में एक नयी काव्य तकनीक हासिल कर लेते हैं। वह अनुभव की विपुलता से गुज़रते हुए कितनी ही बार रेटरिक को काव्यात्मक विज़न और परानुभूति की बड़ी सूझ में बदल देते हैं। इस महाकविता का पाठ उतना कठिन नहीं है जितना वह अपनी संरचना में दिखता है जो भले ही समकालीनता के कोने में किये गये एकांतिक दुस्साहस का नतीजा हो या किसी फक्कड़ के हाथ लग जाने वाली मौलिकता की जादुई भभूत। वैकल्पिक की खोज में भटकती कविता की परिकल्पना और संरचना दोनों अपूर्व हैं जो भारतीय और विश्व कविता के बीच गर्दन बहुत ऊँची करके खड़ी हो सकती हैं। किताब के अन्त में आता उत्तर कथन इस कविता के आलोक में राजकीय दमन और रचना के बीच के जटिल सम्बन्ध को जिस तरह से देखता है, हिन्दी विचार जगत में वह विरल है।’

About Author

देवी प्रसाद मिश्र

कवि-कथाकार-विचारक-फ़िल्मकार देवी प्रसाद मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश में प्रतापगढ़ ज़िले के रामपुर कसिहा नामक गाँव में अपनी नानी के घर में हुआ। बचपन पिता के स्थानांतरणों के साथ ग्वालियर, रीवा, इलाहाबाद में बीता। पढ़ने में वह हर कक्षा में अव्वल रहे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए करने तक। पता नहीं क्या ख़ब्त थी कि पूरे दो साल के अध्ययन के बाद एम.ए. (इतिहास) की फ़ाइनल परीक्षा में नहीं बैठे। इस तरह भटकने का सर्टिफ़िकेट लेकर बेमन कभी यहाँ, कभी वहाँ इलाहाबाद, दिल्ली और बंबई में पत्रकारिता के संस्थानों में कुछ-कुछ समय काम किया। कॉलम लिखे। फिर बचपन के दोस्त निशीथ की संस्था 'नॉलेज लिंक्स' में जीविका के निमित्त ग्रामीण सामुदायिक जीवन को लेकर उपयोगितावादी वृत्तचित्र बनाते रहे। तीन दशकों से भी ज़्यादा वक़्त हो गया कि जब पहली और एक मात्र कविता की किताब प्रार्थना के शिल्प में नहीं आयी थी। इस तरह देवी हिन्दी में लगभग बिना किताब का लेखक होकर काम करते रहे हैं जिसके लिए हिन्दी विवेक के प्रति वह अवनत हैं। प्रकाशित होने की ललक से हीन वह किताबों को अब धीरे-धीरे इसलिए छपवाने के लिए पर्युत्सुक हैं कि उनके न रहने पर कोई दूसरा उनकी किताबों को संपादित करते हुए रचनाओं के भिन्न-भिन्न संस्करणों के बिखराव में उलझकर रचनाओं के अशोधित वर्ज़न किताबों में न डाल दे। 'जिधर कुछ नहीं' इस कड़ी की ही काव्य-पुस्तक है। उन्हें कविता के लिए 'भारतभूषण स्मृति सम्मान', 'शरद बिल्लौरे सम्मान' और 'संस्कृति सम्मान' मिला और हेम ज्योतिका के साथ बनाये वृत्तचित्र के लिए 'राष्ट्रीय सम्मान' जिसे उन्होंने एक मोड़ पर सरकार के फ़ासिस्टी रवैये के विरोध में वापस कर दिया। इलस्ट्रेटेड वीकली ने उन्हें 1993 में देश के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले 13 अग्रणी लोगों में शामिल किया। उनकी आजीविका का आधार फ़िल्में बनती रही हैं। उनकी फ़िल्म सतत  को कान के शॉर्ट फ़िल्म कॉरनर में शामिल किया गया और निष्क्रमण नाम की फ़िल्म को फ़्रांस की गोनेला कंपनी ने विश्वव्यापी वितरण के लिए स्वीकार किया। ये दोनों ही फ़िल्में गुना ज़िले के ग़ैरपेशेवर आदिवासी बच्चों को चरित्र बना कर बनायी गयीं। यह सब इसलिए कि नाम की उनकी फ़िल्म कवयित्री ज्योत्सना पर बनायी गयी डॉक्यूमेंट्री है जिन्होंने हिन्दी कविता की मुख्यधारा को धता बताते हुए एक असहमत और आज़ाद जीवन जिया और ज़िंदगी को उसकी आत्यंतिकता में समझने की कोशिश में हँसी-खेल में उसे ख़त्म कर दिया। उन्होंने नज़ीर अकबराबादी और महादेवी वर्मा पर आदमीनामा और पंथ होने दो अपरिचित  शीर्षक से दो शैक्षिक वृत्तचित्र केंद्रीय हिन्दी संस्थान के लिए बनाये। 

देवी ग़ाज़ियाबाद में राज नगर एक्सटेंशन में रहते हैं।

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