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Hindu-Ekta Banam Jnan Kee Rajneeti (CSDS)

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
अभय कुमार दुबे
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
अभय कुमार दुबे
Language:
Hindi
Format:
Paperback

200

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SKU 9789389012460 Category
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280

विमर्श-नवीसी (डिस्कोर्स मैपिंग) की शैली में लिखे गये इस लम्बेनिबंध का मक़सद बहुसंख्यकवाद विरोधी विमर्श के भीतर चलने वाली ज्ञान की राजनीति को सामने लाना है। यह निबंध इस विमर्श के उस हिस्से को मंचस्थ और मुखर भी करना चाहता है जिसे इस राजनीति के दबाव में पिछले चालीस साल से कमोबेश पृष्ठभूमि में रखा गया है। दरअसल, बहुसंख्यकवाद विरोधी राजनीति का वैचारिक अभिलेखागार दो हिस्सों में बँटा हुआ है। सार्वजनिक जीवन में आम तौर पर इसके एक हिस्से की आवाज़ ही सुनाई देती है। दूसरा हिस्सा ठंडे बस्ते में उपेक्षित पड़ा रहता है। नतीजे के तौर पर हिंदुत्व के ख़िलाफ़ होने वाले संघर्ष में केवल आधी ताक़त का ही इस्तेमाल हो पा रहा है। सिंहावलोकन करने पर यह भी दिखता है कि विमर्श के जिस हिस्से की उपेक्षा हुई है वह समाज, संस्कृति और राजनीति की जमीन के कहीं अधिक निकट है। दरअसल, विमर्श का मुखर हिस्सा अत्यधिक विचारधारात्मक होने के नाते के तक़रीबन एक आस्था का रूप ले चुका है, जबकि उपेक्षित हिस्साअधिक शोधपरक और तर्कसंगत समाजवैज्ञानिकता से सम्पन्न है। मध्ययुग से धीरे-धीरे बनने वाली प्रतिक्रियामूलक हिंदू आत्म-छवि से लेकर सामाजिक बहुलतावाद से बिना विशेष छेड़छाड़ किये हुए ऊपर से आरोपित समरूप हिंदू पहचान के राजनीतिक प्रसार तक, सामाजिक न्याय की राजनीति के अंतर्विरोधों से लेकर कमज़ोर समझी जाने वाली जातियों के भीतर प्रभुत्वशाली समुदायों के उदय तक, और पिछले – पच्चीस साल में सेकुलरवाद के बहुलतावादी संस्करण से लेकर लोकतंत्र की बहुसंख्यकवादी समझ के प्रचलन तक समाज और राजनीति की संरचनागत स्थितियाँ हिंदुत्ववादी राजनीति के लिए मुफीद बनती जा रही हैं। यह नहीं माना जा सकता कि मध्यमार्गी विमर्श इस निष्पत्ति से कभी पूरी तरह नावाक़िफ़ था, लेकिन वह इसे एक स्वरचित राजनीतिक सहीपन के प्रभाव में है। नज़रअंदाज़ ज़रूर करता रहा। – भाजपा समेत संघ परिवार के संगठनों ने उसकी इस गफ़लत और मुगालते का लाभ उठाया, और निरंतर अनुकूल होती सामाजिक-राजनीतिक जमीन पर एक ख़ास तरह की राजनीतिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जिस पर उसने विभिन्न अंतर्विरोधों और विरोधाभासों के लम्बे दौर से गुजरते हुए महारत हासिल की है।

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विमर्श-नवीसी (डिस्कोर्स मैपिंग) की शैली में लिखे गये इस लम्बेनिबंध का मक़सद बहुसंख्यकवाद विरोधी विमर्श के भीतर चलने वाली ज्ञान की राजनीति को सामने लाना है। यह निबंध इस विमर्श के उस हिस्से को मंचस्थ और मुखर भी करना चाहता है जिसे इस राजनीति के दबाव में पिछले चालीस साल से कमोबेश पृष्ठभूमि में रखा गया है। दरअसल, बहुसंख्यकवाद विरोधी राजनीति का वैचारिक अभिलेखागार दो हिस्सों में बँटा हुआ है। सार्वजनिक जीवन में आम तौर पर इसके एक हिस्से की आवाज़ ही सुनाई देती है। दूसरा हिस्सा ठंडे बस्ते में उपेक्षित पड़ा रहता है। नतीजे के तौर पर हिंदुत्व के ख़िलाफ़ होने वाले संघर्ष में केवल आधी ताक़त का ही इस्तेमाल हो पा रहा है। सिंहावलोकन करने पर यह भी दिखता है कि विमर्श के जिस हिस्से की उपेक्षा हुई है वह समाज, संस्कृति और राजनीति की जमीन के कहीं अधिक निकट है। दरअसल, विमर्श का मुखर हिस्सा अत्यधिक विचारधारात्मक होने के नाते के तक़रीबन एक आस्था का रूप ले चुका है, जबकि उपेक्षित हिस्साअधिक शोधपरक और तर्कसंगत समाजवैज्ञानिकता से सम्पन्न है। मध्ययुग से धीरे-धीरे बनने वाली प्रतिक्रियामूलक हिंदू आत्म-छवि से लेकर सामाजिक बहुलतावाद से बिना विशेष छेड़छाड़ किये हुए ऊपर से आरोपित समरूप हिंदू पहचान के राजनीतिक प्रसार तक, सामाजिक न्याय की राजनीति के अंतर्विरोधों से लेकर कमज़ोर समझी जाने वाली जातियों के भीतर प्रभुत्वशाली समुदायों के उदय तक, और पिछले – पच्चीस साल में सेकुलरवाद के बहुलतावादी संस्करण से लेकर लोकतंत्र की बहुसंख्यकवादी समझ के प्रचलन तक समाज और राजनीति की संरचनागत स्थितियाँ हिंदुत्ववादी राजनीति के लिए मुफीद बनती जा रही हैं। यह नहीं माना जा सकता कि मध्यमार्गी विमर्श इस निष्पत्ति से कभी पूरी तरह नावाक़िफ़ था, लेकिन वह इसे एक स्वरचित राजनीतिक सहीपन के प्रभाव में है। नज़रअंदाज़ ज़रूर करता रहा। – भाजपा समेत संघ परिवार के संगठनों ने उसकी इस गफ़लत और मुगालते का लाभ उठाया, और निरंतर अनुकूल होती सामाजिक-राजनीतिक जमीन पर एक ख़ास तरह की राजनीतिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जिस पर उसने विभिन्न अंतर्विरोधों और विरोधाभासों के लम्बे दौर से गुजरते हुए महारत हासिल की है।

About Author

विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में $फेलो और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक। पिछले दस साल से हिंदी-रचनाशीलता और आधुनिक विचारों की अन्योन्यक्रिया का अध्ययन। साहित्यिक रचनाओं को समाजवैज्ञानिक दृष्टि से परखने का प्रयास। समाज-विज्ञान को हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में लाने की परियोजना के तहत पंद्रह ग्रंथों का सम्पादन और प्रस्तुति। कई विख्यात विद्वानों की रचनाओं के अनुवाद। समाज-विज्ञान और मानविकी की पूर्व-समीक्षित पत्रिका प्रतिमान समय समाज संस्कृति के सम्पादक। पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेखन और टीवी चैनलों पर होने वाली चर्चाओं में नियमित भागीदारी।

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