Girde-Mehtab

Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
अहमद मुश्ताक़
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
अहमद मुश्ताक़
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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80

गिर्दे महताब –
उन दिनों लाहौर की रातें जागती थीं। जहाँ अब नयी आबादियाँ बस गयी हैं। वहाँ हरे-भरे जंगल थे। वापटा हाउस की जगह मैट्रो होटल था। जहाँ रात गये तक शहर के ज़िन्दा दिल जमा होते थे। असेम्बली के सामने मल्का के बुत के चारों तरफ़ दरख़्तों की सभा थी, जो दायरे बनाकर रात भर नाचते थे और ‘आते जाते मुसाफ़िरों’ को अपनी छाँव में लोरियाँ देकर सुलाते थे। सड़कों पर कोई-कोई मोटर नज़र आती थी। ताँगे थे और पैदल चलने वाली मख़्लूक़। न रायटर्स गिल्ड थी न आदम जी और दाउद प्राइज़ थे और न ग़ैरमुल्क़ी वज़ाइफ। जिस तरह क़यामे-पाकिस्तान के वक़्त सरकारी दफ़्तरों में जदीद क़िस्म का आरायशी सामान न था। बस चन्द पैंसिलों और चन्द बेदाग़ काग़ज़ थे और बाबा-ए-क़ौम का ज़हन और पूरी क़ौम का अज़्म था। इसी तरह अदीबों के पास ना कारें थीं न फ़्रिज और न टेलीविज़न सैट। न बड़े होटलों के बिल अदा करने के लिए रक़म थी। इनकी जेब में चन्द आने और एक मामूली सा क़लम होता था और एक काग़ज़ पर सादा तहरीर होती थी।
यार सब जमा हुए रात की तारीक़ी में
कोई रोकर तो कोई बाल-बनाकर आया।
रात की में जमा होने वाले ये हमअस्र अपनी आँखों में रफ़्तगाँ के ख़्वाब और मुस्तक़बिल का सूरज लेकर घर से निकलते थे और लाहौर के चायख़ानों, कुतबख़ानों और गलियों में सितारों की तरह गर्दिश करते नज़र आते थे। मगर इनकी रविश नये अदब के मैमारों और मुशायरे के शाइरों से अलग थी। ये तन्हाई में छुपकर रो लेते थे। मगर रिक़्क़त भरी समानती तहरीरें नहीं लिखते थे, न बाल बिखराकर महफ़िले-अदब में आते थे।
इन्हीं दिनों एक लड़का मुझे एक चायख़ाने में नज़र आया जिसकी आँखों में बेदारी की थकन और मुस्तक़बिल के ख़्वाब थे। सफ़ेद क़मीज सफ़ेद सलवार पहले हुए था और वो बाल बनाकर आया था।
अजनबी रहजनों ने लूट लिए
कुछ मुसाफ़िर तेरे दयार से दूर।
जब मैंने उससे शेर सुना तो यूँ लगा जैसे ये मेरी अपनी कहानी है। अहमद मुश्ताक़ से मेरी दोस्ती की बुनियाद जब से है कि वो घर से एक शाइर का दिल लेकर आया था
अब रात थी और गली में रुकना
उस वक़्त अजीब सा लगा था।
ये गली जिसमें चन्द हमअस्र चलते-चलते रुककर एक जगह मिले थे, क़यामे-पाकिस्तान के बाद एक नये तर्ज़े-अहसास की अलामत है।—नासिर काज़मी

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Description

गिर्दे महताब –
उन दिनों लाहौर की रातें जागती थीं। जहाँ अब नयी आबादियाँ बस गयी हैं। वहाँ हरे-भरे जंगल थे। वापटा हाउस की जगह मैट्रो होटल था। जहाँ रात गये तक शहर के ज़िन्दा दिल जमा होते थे। असेम्बली के सामने मल्का के बुत के चारों तरफ़ दरख़्तों की सभा थी, जो दायरे बनाकर रात भर नाचते थे और ‘आते जाते मुसाफ़िरों’ को अपनी छाँव में लोरियाँ देकर सुलाते थे। सड़कों पर कोई-कोई मोटर नज़र आती थी। ताँगे थे और पैदल चलने वाली मख़्लूक़। न रायटर्स गिल्ड थी न आदम जी और दाउद प्राइज़ थे और न ग़ैरमुल्क़ी वज़ाइफ। जिस तरह क़यामे-पाकिस्तान के वक़्त सरकारी दफ़्तरों में जदीद क़िस्म का आरायशी सामान न था। बस चन्द पैंसिलों और चन्द बेदाग़ काग़ज़ थे और बाबा-ए-क़ौम का ज़हन और पूरी क़ौम का अज़्म था। इसी तरह अदीबों के पास ना कारें थीं न फ़्रिज और न टेलीविज़न सैट। न बड़े होटलों के बिल अदा करने के लिए रक़म थी। इनकी जेब में चन्द आने और एक मामूली सा क़लम होता था और एक काग़ज़ पर सादा तहरीर होती थी।
यार सब जमा हुए रात की तारीक़ी में
कोई रोकर तो कोई बाल-बनाकर आया।
रात की में जमा होने वाले ये हमअस्र अपनी आँखों में रफ़्तगाँ के ख़्वाब और मुस्तक़बिल का सूरज लेकर घर से निकलते थे और लाहौर के चायख़ानों, कुतबख़ानों और गलियों में सितारों की तरह गर्दिश करते नज़र आते थे। मगर इनकी रविश नये अदब के मैमारों और मुशायरे के शाइरों से अलग थी। ये तन्हाई में छुपकर रो लेते थे। मगर रिक़्क़त भरी समानती तहरीरें नहीं लिखते थे, न बाल बिखराकर महफ़िले-अदब में आते थे।
इन्हीं दिनों एक लड़का मुझे एक चायख़ाने में नज़र आया जिसकी आँखों में बेदारी की थकन और मुस्तक़बिल के ख़्वाब थे। सफ़ेद क़मीज सफ़ेद सलवार पहले हुए था और वो बाल बनाकर आया था।
अजनबी रहजनों ने लूट लिए
कुछ मुसाफ़िर तेरे दयार से दूर।
जब मैंने उससे शेर सुना तो यूँ लगा जैसे ये मेरी अपनी कहानी है। अहमद मुश्ताक़ से मेरी दोस्ती की बुनियाद जब से है कि वो घर से एक शाइर का दिल लेकर आया था
अब रात थी और गली में रुकना
उस वक़्त अजीब सा लगा था।
ये गली जिसमें चन्द हमअस्र चलते-चलते रुककर एक जगह मिले थे, क़यामे-पाकिस्तान के बाद एक नये तर्ज़े-अहसास की अलामत है।—नासिर काज़मी

About Author

अहमद मुश्ताक़ - अहमद मुश्ताक़ पाकिस्तान के प्रसिद्ध उर्दू शायर थे। जिन्होंने अपनी शायरी से उर्दू अदब में अपना नाम हमेशा के लिए अमर कर लिया। उनका नाम पाकिस्तान के सबसे विख्यात और प्रतिष्ठित आधुनिक शायरों में शुमार है। लाहौर में जन्में अहमद मुश्ताक़ भारत विभाजन के बाद कराची चले गये। उनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं : खोया पानी, मेरे मुँह में ख़ाक, धन यात्रा, चिराग तले, ख़ाक़म-ब-दहन, जरगुज़श्त। अहमद मुश्ताक़ को कई प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हैं जैसे : सितारा-ए-इम्तियाज़, हिलाल-ए-इम्तियाज़, पाकिस्तान साहित्य अकादेमी। लिप्यान्तरण और शब्दार्थ - गोबिन्द प्रसाद - जन्म: 26 अगस्त, 1955 को बाज़ार सीताराम, पुरानी दिल्ली। शिक्षा: दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.फिल, पीएच.डी. की उपाधि प्रकाशित कृतियाँ: काव्य संग्रह- कोई ऐसा शब्द दो (1996), मैं नहीं था लिखे समय (2007), वर्तमान की धूल (2005); आलोचना - त्रिलोचन के बारे में (सम्पा. 1994), कविता के सम्मुख (2002), केदारनाथ सिंह की कविता : बिम्ब से आख्यान तक (2013), कविता का पार्श्व (2013); चिन्तनधर्मी गद्य-आलाप और अन्तरंग (2011), ख़्वाब है दीवाने का (2018); सम्पादन- मलयज की डायरी (नामवर जी के साथ-सन् 2000 में), केदारनाथ सिंह की पचास कविताएँ (2012), कवि ने कहा : केदारनाथ सिंह की कविताओं का सम्पादन (2014), त्रिलोचन रचनावली (राजकमल से सद्य प्रकाशित); अनुवाद - फ़िराक़ गोरखपुरी कृत 'उर्दू की इश्क़िया शायरी' (1998), शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की 'उर्दू का इब्तिदायी ज़माना'; कोश सम्पादन- फ़ारसी - हिन्दी कोश, दो खण्डों में (2001), फ़रहंगे-आर्यान फ़ारसी - हिन्दी-अंग्रेजी-उर्दू कोश : अभी तक छह खण्ड प्रकाशित (2018)। हिन्दोस्तानी शास्त्रीय संगीत और पेंटिंग्स में गहरी दिलचस्पी, सन् 2008 में दो वर्ष के लिए सोफ़िया विश्वविद्यालय, बुलगारिया में ICCR की ओर से विज़िटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में अध्यापन, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र में प्रोफ़ेसर।

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