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कहानियों के कई रुख़ होते हैं। ऐसी गोल नहीं होतीं कि हर तरफ से एक ही सी नजर आएँ। सामने, सर उठाये खड़ी पहाड़ी की तरह हैं, जिस पर कई लोग चढ़े हैं और बेशुमार पगडंडियाँ बनाते हुए गुजरे हैं । अगर आप पहले से बनी पगडंडियों पर नहीं चल रहे हैं, तो कहानी का कोई नया रुख़ देख रहे होंगे। हो सकता है आप किसी चोटी तक पहुँच जाएँ। कहानियाँ गढ़ी नहीं जाती, वह घटती रहती हैं। वाक़्य होती हैं आपके चारों तरफ। कुछ साफ़ नज़र आ जाती हैं। कुछ आँख से ओझल होती हैं। ऊपर की सतह को ज़रा – सा छील दो तो बिलबिला कर ऊपर आ जाती हैं। सब कुछ अपना तजुर्बा तो नहीं होता, लेकिन किसी और के मुशाहिदे और वजूद से गुज़रो तो वह तजुर्बा अपना हो जाता है। बोसीदा दीवारों से जैसे अस्तर और चूना गिरता है। अखबारों से हर रोज़ बोसीदा ख़बरों का प्लास्तर गिरता है जिसे हम हर रोज़ पढ़ते हैं और लपेट कर रद्दी में रख देते हैं। कभी कभी उन ख़बरों के किरदार, सड़े फल के कीड़ों की तरह उन अख़बारों से बाहर आने लगते हैं, कोने खुदरे ढूंढते हैं। कहीं कोई नमी मिल जाए तो पनपने लगते हैं। इस मजमुये में कुछ कहानियाँ उनकी भी हैं। – गुलज़ार
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कहानियों के कई रुख़ होते हैं। ऐसी गोल नहीं होतीं कि हर तरफ से एक ही सी नजर आएँ। सामने, सर उठाये खड़ी पहाड़ी की तरह हैं, जिस पर कई लोग चढ़े हैं और बेशुमार पगडंडियाँ बनाते हुए गुजरे हैं । अगर आप पहले से बनी पगडंडियों पर नहीं चल रहे हैं, तो कहानी का कोई नया रुख़ देख रहे होंगे। हो सकता है आप किसी चोटी तक पहुँच जाएँ। कहानियाँ गढ़ी नहीं जाती, वह घटती रहती हैं। वाक़्य होती हैं आपके चारों तरफ। कुछ साफ़ नज़र आ जाती हैं। कुछ आँख से ओझल होती हैं। ऊपर की सतह को ज़रा – सा छील दो तो बिलबिला कर ऊपर आ जाती हैं। सब कुछ अपना तजुर्बा तो नहीं होता, लेकिन किसी और के मुशाहिदे और वजूद से गुज़रो तो वह तजुर्बा अपना हो जाता है। बोसीदा दीवारों से जैसे अस्तर और चूना गिरता है। अखबारों से हर रोज़ बोसीदा ख़बरों का प्लास्तर गिरता है जिसे हम हर रोज़ पढ़ते हैं और लपेट कर रद्दी में रख देते हैं। कभी कभी उन ख़बरों के किरदार, सड़े फल के कीड़ों की तरह उन अख़बारों से बाहर आने लगते हैं, कोने खुदरे ढूंढते हैं। कहीं कोई नमी मिल जाए तो पनपने लगते हैं। इस मजमुये में कुछ कहानियाँ उनकी भी हैं। – गुलज़ार
About Author
असाधारण और बहुआयामी प्रतिभा के धनी गुलज़ार श्रेष्ठता और लोकप्रियता, दोनों ही कसौटियों पर सफल एक ऐसे फनकार हैं जो विभिन्न कला माध्यमों में काम करने के साथ-साथ अभिव्यक्ति के अपने माध्यम की खोज भी करते रहे हैं। वे एक मशहूर शायर, अप्रतिम फिल्मकार, संजीदा कहानी लेखक एवं बेहतरीन गीतकार हैं। साथ ही, वे एक मँजे हुए संवाद और पटकथा लेखक भी हैं। 18 अगस्त 1934 को झेलम जिले (अब पाकिस्तान में) के दीना गाँव में जन्मे गुलज़ार ने विमल रॉय और हृषीकेश मुखर्जी की छाया में अपना फिल्मी सफर शुरू किया। गीतकार के रूप में उन्होंने सचिनदेव बर्मन के लिए बंदिनी के लिए पहली बार गीत लिखे। गुलज़ार ने खुशबू, आँधी (आपातकाल के दौरान प्रतिबंधित), लिबास, मौसम, मीरा, परिचय, अंगूर, माचिस और हू तू तू जैसी मौलिक फिल्मों के निर्देशन के अलावा मिर्ज़ा ग़ालिब पर एक उत्कृष्ट टीवी सीरियल भी बनाया है। गुलज़ार की कविताएँ जानम, एक बूँद चाँद, कुछ और नज़्में साइलेंसेज़, पुखराज, ऑटम मून, त्रिवेणी, रात, चाँद और मैं, रात पश्मीने की, यार जुलाहे तथा पन्द्रह पाँच पचहत्तर में संकलित हैं। कहानियों के महत्त्वपूर्ण संग्रह हैं चौरस रात, धुआँ, जीना यहाँ और ड्योढ़ी (हिन्दी और उर्दू)। रावी पार में गुलज़ार ने विमल रॉय के संस्मरण लिखे हैं। उन्होंने बच्चों के लिए कुछ बेहद अच्छी रचनाएँ भी की हैं। पद्म भूषण, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, ग्रेमी पुरस्कार, ऑस्कर अवार्ड तथा इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज, शिमला के प्रतिष्ठित लाइफ टाइम अचीवमेंट फेलोशिप सहित दर्जनों अलंकरणों से सम्मानित गुलज़ार को बीस बार फिल्मफेयर पुरस्कार एवं सात बार नेशनल अवार्ड मिल चुका है। वे मुम्बई में रहते हैं और फिल्मों के लिए गीत, संवाद एवं पटकथा लिखते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण कवियों का अनुवाद कर रहे हैं।
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