Dinank Ke Bina

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
उषाकिरण खान
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Vani Prakashan
Author:
उषाकिरण खान
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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SKU 9789355181114 Category
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176

उषाकिरण एक ऐसी कथाकार हैं जिनकी लेखनी में समाज, स्त्री और भूमण्डलीकरण को बार-बार अंकित किया जाता रहा है। उनकी लेखनी जीवन के लघु अंशों का कोलाज और मानचित्र दोनों है । लघुता का बोध विराट की आहट को पहचानने का संकेत है। इसी संकेत को उषाकिरण खान ने इस पुस्तक में अभूतपूर्व भाषा के माध्यम से उतारा है।

दिनांक के बिना एक ऐसा दस्तावेज़ है जो समय के पार जाते जीवन के अध्यायों को स्पष्टता से पाठकों के समक्ष रखता है। इन कथाओं में यात्राएँ हैं, स्मृतियाँ और जीवन के शाश्वत सत्य हैं। निजी अनुभवों की दृष्टि से पगी और अपने आस-पास के जीवन की विडम्बनाओं को दर्शाती हुई यह कृति साधारण जीवन को असाधारण परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास करती है। बिहार की लोकचेतना और संस्कृति जिसमें नागार्जुन जैसे सशक्त कवि का होना इस बात का प्रमाण है कि मैथिली भाषा युगों-युगों से साहित्य और कलाओं को समृद्ध करती आयी है। साहित्य और मैथिली भाषा की उसी समृद्ध परम्परा का निर्वाहन उषाकिरण खान करती हैं । दरभंगा में सामन्त युग से ही ध्रुपद संगीत, मिथिला चित्रकला अर्थात मधुबनी और मैथिली साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। यह क्षेत्र विपुल सांस्कृतिक धरोहरों, विशिष्ट प्रकार के भोजनों और ऐसी आधुनिकता को अपने में धारण किये हुए है जिसकी जड़ें उसकी लोक संस्कृति के भीतर हैं। उषाकिरण और नागार्जुन दोनों ने हिन्दी के साथ-साथ मैथिली में भी पर्याप्त लेखन किया है।

यह पुस्तक आत्म की खोज में निकले उस अबोध पाखी के समान है जो एक ऊँची उड़ान भरते हुए जीवन के तमाम रसों पर दृष्टिपात करता है । जीवनयात्रा में बहुत कुछ देखता हुआ वह आत्म कब एक करुण पुकार बन जाता है, यह पुस्तक इसी का अन्वेषण करती है।

उषाकिरण खान की अगनहिंडोला, हसीना मंज़िल, सीमान्त कथा आदि पुस्तकों के प्रकाशन का गौरव वाणी प्रकाशन ग्रुप को प्राप्त है । उषाकिरण खान भारत के उच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित हैं।

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Description

उषाकिरण एक ऐसी कथाकार हैं जिनकी लेखनी में समाज, स्त्री और भूमण्डलीकरण को बार-बार अंकित किया जाता रहा है। उनकी लेखनी जीवन के लघु अंशों का कोलाज और मानचित्र दोनों है । लघुता का बोध विराट की आहट को पहचानने का संकेत है। इसी संकेत को उषाकिरण खान ने इस पुस्तक में अभूतपूर्व भाषा के माध्यम से उतारा है।

दिनांक के बिना एक ऐसा दस्तावेज़ है जो समय के पार जाते जीवन के अध्यायों को स्पष्टता से पाठकों के समक्ष रखता है। इन कथाओं में यात्राएँ हैं, स्मृतियाँ और जीवन के शाश्वत सत्य हैं। निजी अनुभवों की दृष्टि से पगी और अपने आस-पास के जीवन की विडम्बनाओं को दर्शाती हुई यह कृति साधारण जीवन को असाधारण परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास करती है। बिहार की लोकचेतना और संस्कृति जिसमें नागार्जुन जैसे सशक्त कवि का होना इस बात का प्रमाण है कि मैथिली भाषा युगों-युगों से साहित्य और कलाओं को समृद्ध करती आयी है। साहित्य और मैथिली भाषा की उसी समृद्ध परम्परा का निर्वाहन उषाकिरण खान करती हैं । दरभंगा में सामन्त युग से ही ध्रुपद संगीत, मिथिला चित्रकला अर्थात मधुबनी और मैथिली साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। यह क्षेत्र विपुल सांस्कृतिक धरोहरों, विशिष्ट प्रकार के भोजनों और ऐसी आधुनिकता को अपने में धारण किये हुए है जिसकी जड़ें उसकी लोक संस्कृति के भीतर हैं। उषाकिरण और नागार्जुन दोनों ने हिन्दी के साथ-साथ मैथिली में भी पर्याप्त लेखन किया है।

यह पुस्तक आत्म की खोज में निकले उस अबोध पाखी के समान है जो एक ऊँची उड़ान भरते हुए जीवन के तमाम रसों पर दृष्टिपात करता है । जीवनयात्रा में बहुत कुछ देखता हुआ वह आत्म कब एक करुण पुकार बन जाता है, यह पुस्तक इसी का अन्वेषण करती है।

उषाकिरण खान की अगनहिंडोला, हसीना मंज़िल, सीमान्त कथा आदि पुस्तकों के प्रकाशन का गौरव वाणी प्रकाशन ग्रुप को प्राप्त है । उषाकिरण खान भारत के उच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित हैं।

About Author

पद्मश्री उषाकिरण खान का जन्म 24 अक्टूबर, 1945 को लहेरियासराय, दरभंगा जिले में हुआ जो उत्तर बिहार में अवस्थित है। उनके माता-पिता गाँधीवादी स्वतन्त्रता सेनानी थे। उनकी स्कूली शिक्षा दरभंगा में ही हुई। विश्वविद्यालयी शिक्षा पटना में हुई। प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व में उषाजी ने एम.ए., पीएच.डी. पटना विश्वविद्यालय से किया एवं मगध विश्वविद्यालय के डिग्री कॉलेज से विभागाध्यक्ष पद से 2005 को रिटायर कर गयीं। इनका रुझान बचपन से ही साहित्य की ओर था तथा इन्होंने विपुल साहित्य संस्कृत, पालि, अंग्रेज़ी तथा हिन्दी में प्राचीन से लेकर आधुनिक तक पढ़ा है। इनके पिता का गाँधीवादी आश्रम कोशी के पश्चिमी तटबन्ध की ओर था जहाँ इनका लालन-पालन हुआ । उषाजी की पहली कहानी इलाहाबाद से निकलने वाली यशस्वी पत्रिका 'कहानी' में प्रकाशित हुई। उषाकिरण जी पहली ग्रामीण कथा उपन्यास लेखिका हैं, उसके बाद कई लेखिकाएँ उभरकर आयीं। अब इन्होंने अपनी मातृ-भाषा मैथिली में भामती एवं हिन्दी में सिरजनहार एवं अगिन हिंडोला लिखकर ऐतिहासिक उपन्यासों की ओर दृष्टिपात किया है। उषाकिरण जी विश्व हिन्दी सम्मेलन में प्रतिनिधि के रूप में सूरीनाम तथा न्यूयॉर्क जा चुकी हैं एवं भोजपुरी सम्मेलन में मॉरीशस गयीं। बिहार राष्ट्रभाषा का हिन्दीसेवी सम्मान, विहार राजभाषा विभाग का महादेवी वर्मा सम्मान, दिनकर राष्ट्रीय पुरस्कार, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, कुसुमांजलि पुरस्कार, विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार एवं पद्मश्री और भारत भारती सम्मान से सम्मानित । उषाकिरण जी सामाजिक क्रियाकलापों में बेहद सक्रिय हैं। आयाम की अध्यक्षा हैं।

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