Dinank Ke Bina
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उषाकिरण एक ऐसी कथाकार हैं जिनकी लेखनी में समाज, स्त्री और भूमण्डलीकरण को बार-बार अंकित किया जाता रहा है। उनकी लेखनी जीवन के लघु अंशों का कोलाज और मानचित्र दोनों है । लघुता का बोध विराट की आहट को पहचानने का संकेत है। इसी संकेत को उषाकिरण खान ने इस पुस्तक में अभूतपूर्व भाषा के माध्यम से उतारा है।
दिनांक के बिना एक ऐसा दस्तावेज़ है जो समय के पार जाते जीवन के अध्यायों को स्पष्टता से पाठकों के समक्ष रखता है। इन कथाओं में यात्राएँ हैं, स्मृतियाँ और जीवन के शाश्वत सत्य हैं। निजी अनुभवों की दृष्टि से पगी और अपने आस-पास के जीवन की विडम्बनाओं को दर्शाती हुई यह कृति साधारण जीवन को असाधारण परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास करती है। बिहार की लोकचेतना और संस्कृति जिसमें नागार्जुन जैसे सशक्त कवि का होना इस बात का प्रमाण है कि मैथिली भाषा युगों-युगों से साहित्य और कलाओं को समृद्ध करती आयी है। साहित्य और मैथिली भाषा की उसी समृद्ध परम्परा का निर्वाहन उषाकिरण खान करती हैं । दरभंगा में सामन्त युग से ही ध्रुपद संगीत, मिथिला चित्रकला अर्थात मधुबनी और मैथिली साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। यह क्षेत्र विपुल सांस्कृतिक धरोहरों, विशिष्ट प्रकार के भोजनों और ऐसी आधुनिकता को अपने में धारण किये हुए है जिसकी जड़ें उसकी लोक संस्कृति के भीतर हैं। उषाकिरण और नागार्जुन दोनों ने हिन्दी के साथ-साथ मैथिली में भी पर्याप्त लेखन किया है।
यह पुस्तक आत्म की खोज में निकले उस अबोध पाखी के समान है जो एक ऊँची उड़ान भरते हुए जीवन के तमाम रसों पर दृष्टिपात करता है । जीवनयात्रा में बहुत कुछ देखता हुआ वह आत्म कब एक करुण पुकार बन जाता है, यह पुस्तक इसी का अन्वेषण करती है।
उषाकिरण खान की अगनहिंडोला, हसीना मंज़िल, सीमान्त कथा आदि पुस्तकों के प्रकाशन का गौरव वाणी प्रकाशन ग्रुप को प्राप्त है । उषाकिरण खान भारत के उच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित हैं।
उषाकिरण एक ऐसी कथाकार हैं जिनकी लेखनी में समाज, स्त्री और भूमण्डलीकरण को बार-बार अंकित किया जाता रहा है। उनकी लेखनी जीवन के लघु अंशों का कोलाज और मानचित्र दोनों है । लघुता का बोध विराट की आहट को पहचानने का संकेत है। इसी संकेत को उषाकिरण खान ने इस पुस्तक में अभूतपूर्व भाषा के माध्यम से उतारा है।
दिनांक के बिना एक ऐसा दस्तावेज़ है जो समय के पार जाते जीवन के अध्यायों को स्पष्टता से पाठकों के समक्ष रखता है। इन कथाओं में यात्राएँ हैं, स्मृतियाँ और जीवन के शाश्वत सत्य हैं। निजी अनुभवों की दृष्टि से पगी और अपने आस-पास के जीवन की विडम्बनाओं को दर्शाती हुई यह कृति साधारण जीवन को असाधारण परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास करती है। बिहार की लोकचेतना और संस्कृति जिसमें नागार्जुन जैसे सशक्त कवि का होना इस बात का प्रमाण है कि मैथिली भाषा युगों-युगों से साहित्य और कलाओं को समृद्ध करती आयी है। साहित्य और मैथिली भाषा की उसी समृद्ध परम्परा का निर्वाहन उषाकिरण खान करती हैं । दरभंगा में सामन्त युग से ही ध्रुपद संगीत, मिथिला चित्रकला अर्थात मधुबनी और मैथिली साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। यह क्षेत्र विपुल सांस्कृतिक धरोहरों, विशिष्ट प्रकार के भोजनों और ऐसी आधुनिकता को अपने में धारण किये हुए है जिसकी जड़ें उसकी लोक संस्कृति के भीतर हैं। उषाकिरण और नागार्जुन दोनों ने हिन्दी के साथ-साथ मैथिली में भी पर्याप्त लेखन किया है।
यह पुस्तक आत्म की खोज में निकले उस अबोध पाखी के समान है जो एक ऊँची उड़ान भरते हुए जीवन के तमाम रसों पर दृष्टिपात करता है । जीवनयात्रा में बहुत कुछ देखता हुआ वह आत्म कब एक करुण पुकार बन जाता है, यह पुस्तक इसी का अन्वेषण करती है।
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