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Bhasha, Sahitya Aur Desh
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Devdas
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय अनुवाद कुनाल सिंह
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय अनुवाद कुनाल सिंह
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹130 ₹129
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ISBN:
SKU
9788126320370
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
128
देवदास –
बहुत कम ‘आधुनिक’ किताबों की नियति वैसी रही है जैसी कि ‘देवदास’ की—एक अप्रत्याशित मिथकीयता से घिर जाने को नियति इसके प्रकाशन के पूर्व शायद ही कोई यह कल्पना कर सकता था कि यह कृति एक पुस्तक से अधिक एक मिथक हो जायेगी और इसमें शायद ही किसी को कोई सन्देह हो कि पुस्तक की यह मिथकीय अवस्था उसके मुख्य पात्र देवदास के एक मिथक, एक कल्ट में बदल जाने से है।
कहीं ‘देवदास’ ने शरत को धोखा तो नहीं दिया, जैसा कि ‘अन्ना केरेनिना’ ने तोलस्तोय को धोखा दिया था? तोलस्तोय ‘अन्ना…’ लिखकर (बकौल मिलान कुन्देरा) स्त्रियों को यह शिक्षा देना चाहते थे कि वे अन्ना की तरह अनैतिक व पापपूर्ण रास्ते पर न चलें। पर जैसा हम जानते हैं, उपन्यास यह ‘शिक्षा’ देने में विफल रहा—वह ऐसी कृति बनकर उभरा जो कृतिकार की अन्तश्चेतना या प्रयोजन से दूर या विपरीत चली जाती है तो क्या शरत की अपेक्षा यह थी कि हम ‘देवदास जैसे व्यक्ति’ न बनें? अगर ऐसा था तो तोलस्तोय की तरह शरत भी अपनी कृति के हाथों ‘छले’ गये। ‘देवदास’ ने हमें यही सिखाया कि हम देवदास जैसे बनें और यह ऐसी शिक्षा है जो कोई नहीं देना चाहता—न अभिभावक, न परिवार, न समाज, न राज्य, न धर्म, न क़ानून। यह शिक्षा (या कुफ़्र का शैतानी उकसावा?) सिर्फ़ एक कलाकृति दे सकती है, क्योंकि ‘देवदास’ ने यह सिखाया कि अस्तित्व की एक बिल्कुल भिन्न कल्पना सम्भव है। देवदास घर, परिवार, समाज, देश किसी के भी ‘काम’ का नहीं, फिर हम उसके प्रति करुणा क्यों महसूस करते हैं? वह प्रेमकथाओं के नायक की तरह न तो एक आकर्षक ‘उन्मादी क्षण’ में प्रेम के लिए स्वयं को नष्ट करता है, न वह प्रेम के लिए कोई ‘संघर्ष’ करता है—वह अत्यन्त साधारण है और अपने अन्त के लिए ग़फ़लत का एक धीमा मार्ग चुनता है।
‘देवदास’ की कथा सदैव ही जीवन से कुछ इस हद तक प्रतिसंकेतित रही है कि देव की मृत्यु भी उसकी ग़फ़लत से/में अपना धीमा अन्त करते हुए जीने/बेख़ुद, असंसारिक होते जाने का एक अंग लगती है। उसकी मरणोत्तर त्रासदी का प्रत्यक्ष कारण है उसकी ‘जाति’ का पता न चल पाना—संकेत यह है कि उसे एक ‘अस्पृश्य’ देह समझ लिया जाता है और उसे जलाने के लिए चाण्डालों को सौंप दिया जाता है। एक मृत देह विशेष के साथ यह व्यवहार कथा के पठन का एक मार्ग खोलता है देवदास एक ज़मींदार का पुत्र है जो धीरे-धीरे समाज के हाशिये की ओर विस्थापित होता है (डि-कल्चराइजेशन?) जिसका चरम है उसकी मृत देह का ‘अस्पृश्य’ मान लिया जाना। देव उस सामाजिक वृत्त से पूरी तरह विस्थापित (उन्मूलित) हो जाता है जिसमें वह जनमता है देवदास का मार्जिनलाइजेशन उसकी मृत्यु में पूरा (कम्प्लीट) होता है; वह सामाजिक व्यवस्था के ही नहीं, पृथ्वी पर जो कुछ है उसके हाशिये में जा गिरता है है—भगाड़, एक मनुष्येतर हाशिया, जहाँ वह जानवरों की लाशों और कूड़े की संगति में है!
और अन्त में ‘देवदास’ यदि प्रेमकथा है तो वह देवदास और चन्द्रमुखी की प्रेमकथा है, जिसमें पार्वती एक मूलभूत (ओरिजिनल) विषयान्तर ‘पारो’ है। चूँकि वह मूलभूत है, देवदास पार्वती के देश/गाँव लौट के ही मरेगा, लेकिन उसका मार्जिनलाइजेशन इतना पूर्ण है कि उसका मरना पार्वती के घर की देहरी बाहर ही होगा—एक और अमर, अनुल्लंघनीय हाशिये पर।—गिरिराज किराडू
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Description
देवदास –
बहुत कम ‘आधुनिक’ किताबों की नियति वैसी रही है जैसी कि ‘देवदास’ की—एक अप्रत्याशित मिथकीयता से घिर जाने को नियति इसके प्रकाशन के पूर्व शायद ही कोई यह कल्पना कर सकता था कि यह कृति एक पुस्तक से अधिक एक मिथक हो जायेगी और इसमें शायद ही किसी को कोई सन्देह हो कि पुस्तक की यह मिथकीय अवस्था उसके मुख्य पात्र देवदास के एक मिथक, एक कल्ट में बदल जाने से है।
कहीं ‘देवदास’ ने शरत को धोखा तो नहीं दिया, जैसा कि ‘अन्ना केरेनिना’ ने तोलस्तोय को धोखा दिया था? तोलस्तोय ‘अन्ना…’ लिखकर (बकौल मिलान कुन्देरा) स्त्रियों को यह शिक्षा देना चाहते थे कि वे अन्ना की तरह अनैतिक व पापपूर्ण रास्ते पर न चलें। पर जैसा हम जानते हैं, उपन्यास यह ‘शिक्षा’ देने में विफल रहा—वह ऐसी कृति बनकर उभरा जो कृतिकार की अन्तश्चेतना या प्रयोजन से दूर या विपरीत चली जाती है तो क्या शरत की अपेक्षा यह थी कि हम ‘देवदास जैसे व्यक्ति’ न बनें? अगर ऐसा था तो तोलस्तोय की तरह शरत भी अपनी कृति के हाथों ‘छले’ गये। ‘देवदास’ ने हमें यही सिखाया कि हम देवदास जैसे बनें और यह ऐसी शिक्षा है जो कोई नहीं देना चाहता—न अभिभावक, न परिवार, न समाज, न राज्य, न धर्म, न क़ानून। यह शिक्षा (या कुफ़्र का शैतानी उकसावा?) सिर्फ़ एक कलाकृति दे सकती है, क्योंकि ‘देवदास’ ने यह सिखाया कि अस्तित्व की एक बिल्कुल भिन्न कल्पना सम्भव है। देवदास घर, परिवार, समाज, देश किसी के भी ‘काम’ का नहीं, फिर हम उसके प्रति करुणा क्यों महसूस करते हैं? वह प्रेमकथाओं के नायक की तरह न तो एक आकर्षक ‘उन्मादी क्षण’ में प्रेम के लिए स्वयं को नष्ट करता है, न वह प्रेम के लिए कोई ‘संघर्ष’ करता है—वह अत्यन्त साधारण है और अपने अन्त के लिए ग़फ़लत का एक धीमा मार्ग चुनता है।
‘देवदास’ की कथा सदैव ही जीवन से कुछ इस हद तक प्रतिसंकेतित रही है कि देव की मृत्यु भी उसकी ग़फ़लत से/में अपना धीमा अन्त करते हुए जीने/बेख़ुद, असंसारिक होते जाने का एक अंग लगती है। उसकी मरणोत्तर त्रासदी का प्रत्यक्ष कारण है उसकी ‘जाति’ का पता न चल पाना—संकेत यह है कि उसे एक ‘अस्पृश्य’ देह समझ लिया जाता है और उसे जलाने के लिए चाण्डालों को सौंप दिया जाता है। एक मृत देह विशेष के साथ यह व्यवहार कथा के पठन का एक मार्ग खोलता है देवदास एक ज़मींदार का पुत्र है जो धीरे-धीरे समाज के हाशिये की ओर विस्थापित होता है (डि-कल्चराइजेशन?) जिसका चरम है उसकी मृत देह का ‘अस्पृश्य’ मान लिया जाना। देव उस सामाजिक वृत्त से पूरी तरह विस्थापित (उन्मूलित) हो जाता है जिसमें वह जनमता है देवदास का मार्जिनलाइजेशन उसकी मृत्यु में पूरा (कम्प्लीट) होता है; वह सामाजिक व्यवस्था के ही नहीं, पृथ्वी पर जो कुछ है उसके हाशिये में जा गिरता है है—भगाड़, एक मनुष्येतर हाशिया, जहाँ वह जानवरों की लाशों और कूड़े की संगति में है!
और अन्त में ‘देवदास’ यदि प्रेमकथा है तो वह देवदास और चन्द्रमुखी की प्रेमकथा है, जिसमें पार्वती एक मूलभूत (ओरिजिनल) विषयान्तर ‘पारो’ है। चूँकि वह मूलभूत है, देवदास पार्वती के देश/गाँव लौट के ही मरेगा, लेकिन उसका मार्जिनलाइजेशन इतना पूर्ण है कि उसका मरना पार्वती के घर की देहरी बाहर ही होगा—एक और अमर, अनुल्लंघनीय हाशिये पर।—गिरिराज किराडू
About Author
शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय -
बांग्ला के अमर कथा शिल्पी श्री शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म पश्चिम बंगाल के हुगली जनपद के अन्तर्गत देवानन्दपुर नामक गाँव में 15 सितम्बर, 1876 को हुआ था। माँ श्रीमती भुवनेश्वरी देवी और पिता श्री मतिलाल चट्टोपाध्याय की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने की वजह से शरत की पढ़ाई-लिखाई अपने ननिहाल भागलपुर में हुई। आर्थिक तंगी के कारण ही शरत को एफ.ए. की पढ़ाई अधबीच छोड़नी पड़ी। माँ के मरणोपरान्त पिता से तकरार हुई और शरत ने कुछ वर्षों तक संन्यासी बनकर विशुद्ध यायावरी की। यही वह समय था जब वे 'देवदास' लिख रहे थे। हुगली में छूट चुकी बचपन की सखा राजलक्ष्मी ने पार्वती और भागलपुर की कालीदासी व चतुर्भुज स्थान (मुज़फ़्फ़रपुर) की पूँटी ने मिलकर चन्द्रमुखी का चरित्र साकार किया।
1901 में लिखे जा चुके 'देवदास' को शरत अपनी कमज़ेर रचना मानकर छपवाने से गुरेज़ करते रहे। अन्ततः मित्रों के अतिशय दबाव पर 1917 में 'देवदास' का प्रकाशन हो पाया। प्रकाशनोपरान्त 'देवदास' को पाठकों ने हाथोंहाथ लिया। आज लगभग एक सदी बाद भी लोग 'देवदास' को पढ़ते हैं, सराहते हैं।
पश्चिम बंगाल के हुगली जनपद के ही युवा कथाकार कुणाल सिंह द्वारा 'देवदास' का यह मूल बांग्ला से किया गया अनुवाद पुस्तकाकार छपने से पेश्तर 'नया ज्ञानोदय' में प्रकाशित व प्रशंसित हो चुका है। इस अनुवाद को इसलिए भी महत्त्वपूर्ण माना जायेगा कि इसकी मार्फ़त हम देख सकते हैं कि आज की युवा पीढ़ी शरत को किस भाषिक तेवर में व्याख्यायित करती है/ करना चाहती है।
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