Darulshafa

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
राजकृष्ण मिश्र
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Vani Prakashan
Author:
राजकृष्ण मिश्र
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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SKU 9788170554896 Category
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दारुलशफ़ा –
दारुलशफ़ा एक बस्ती भी हो सकती है और संस्था भी, और काल्पनिक होते हुए भी आज की ज़िन्दगी में उस जगह है जहाँ आपाधापी, हिंसा, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता और चापलूसी का हमारा जाना-पहचाना यथार्थ, अपने विवरण की प्रखरता के कारण, बिल्कुल अजनबी ढंग से उभरता है और हमारी सामाजिक चेतना पर हमला बोलता है।
गहरी मानवीय संवेदनाओं और ठेठ क़िस्सागोई के दो छोरों में बँधे हिन्दी उपन्यास के संसार में ऐसी बहुत कम मध्यवर्ती कृतियाँ है जो सामान्य पाठक को सुपरिचित ज़िन्दगी के बीच से ही ऐसे अनुभवों से गूँथती हों जो उसकी उदासीनता को तोड़ सकें। मुझे विश्वास है कि चिलगोजों, चमचों, चकबंदों, ख़ुराकियों से भरा-पूरा यह उपन्यास इन्हीं कृतियों में एक होगा। दारुलशफ़ा आज की ज़िन्दगी का असली दस्तावेज़ है। -श्रीलाल शुक्ल
क्या बात उठायी है, क्या माहौल बनाया है…कितने पात्र लिए है… क्या क़िस्सागोई है, बहुत ख़ुश है मन, इस वक़्त आपकी क़लम पर, पर बेहद उदास और दुखी है उस गन्दी घिनौनी असलियत को लेकर जो इन राजनीतिक मुखाटों के पीछे दर्ज है। -धर्मवीर भारती
इस रचना में बहुत कलात्मकता से प्रस्तुत आज की राजनीति का यह दर्दनाक पहलू बहुत छूता है, एक सोये हुए अंगारे की तरह छूता है, ऊपर राख राख है, पर बदन में लगते ही एकदम जी तड़प उठता है। -विद्यानिवास मिश्र
वहीं इतिहास नख-शिख तक दारुलशफ़ा में अंकित हुआ है… उसने दारुलशफ़ा को एक प्रासंगिक और प्रामाणिक दस्तावेज़ बना दिया है। -विष्णु प्रभाकर
उपन्यास बेहद रोचक और पकड़ने वाला लिखा है। कहानी कहने और चुनने की कला को आपने निश्चय ही सिद्ध कर लिया है। -राजेन्द्र यादव

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Description

दारुलशफ़ा –
दारुलशफ़ा एक बस्ती भी हो सकती है और संस्था भी, और काल्पनिक होते हुए भी आज की ज़िन्दगी में उस जगह है जहाँ आपाधापी, हिंसा, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता और चापलूसी का हमारा जाना-पहचाना यथार्थ, अपने विवरण की प्रखरता के कारण, बिल्कुल अजनबी ढंग से उभरता है और हमारी सामाजिक चेतना पर हमला बोलता है।
गहरी मानवीय संवेदनाओं और ठेठ क़िस्सागोई के दो छोरों में बँधे हिन्दी उपन्यास के संसार में ऐसी बहुत कम मध्यवर्ती कृतियाँ है जो सामान्य पाठक को सुपरिचित ज़िन्दगी के बीच से ही ऐसे अनुभवों से गूँथती हों जो उसकी उदासीनता को तोड़ सकें। मुझे विश्वास है कि चिलगोजों, चमचों, चकबंदों, ख़ुराकियों से भरा-पूरा यह उपन्यास इन्हीं कृतियों में एक होगा। दारुलशफ़ा आज की ज़िन्दगी का असली दस्तावेज़ है। -श्रीलाल शुक्ल
क्या बात उठायी है, क्या माहौल बनाया है…कितने पात्र लिए है… क्या क़िस्सागोई है, बहुत ख़ुश है मन, इस वक़्त आपकी क़लम पर, पर बेहद उदास और दुखी है उस गन्दी घिनौनी असलियत को लेकर जो इन राजनीतिक मुखाटों के पीछे दर्ज है। -धर्मवीर भारती
इस रचना में बहुत कलात्मकता से प्रस्तुत आज की राजनीति का यह दर्दनाक पहलू बहुत छूता है, एक सोये हुए अंगारे की तरह छूता है, ऊपर राख राख है, पर बदन में लगते ही एकदम जी तड़प उठता है। -विद्यानिवास मिश्र
वहीं इतिहास नख-शिख तक दारुलशफ़ा में अंकित हुआ है… उसने दारुलशफ़ा को एक प्रासंगिक और प्रामाणिक दस्तावेज़ बना दिया है। -विष्णु प्रभाकर
उपन्यास बेहद रोचक और पकड़ने वाला लिखा है। कहानी कहने और चुनने की कला को आपने निश्चय ही सिद्ध कर लिया है। -राजेन्द्र यादव

About Author

राजकृष्ण मिश्र - जन्म : 3 अगस्त, 1940 को वाराणसी में। सृजन : खलील जिब्रान और गुरुदेव टैगोर की गीतांजलि की परम्परा में 'कामना का क्षितिज' शीर्षक से रेखाचित्र (1975), उपन्यास-त्रयी 'काउंसिल हाउस', 'दारूलशफा' और 'मंत्रिमंडल' (1996), 'हैलो' (उपन्यास-1985) और 'कुतो मनुष्य' (उपन्यास-1994), 'चालान' (नाटक 1978), 'बजट' (नाटक-1996), 'आईना' (कहानी-संग्रह - 1996), 'बिखराव का संकट' (निबन्ध-संग्रह- 1996) में प्रकाशित। सम्मान : वर्ष 1984, 1985 में साहित्य अकादेमी के लिए 'सचिवालय' (काउंसिल हाउस) नामांकित। आपकी कृतियों पर लखनऊ विश्वविद्यालय में स्वतन्त्र शोधकार्य चल रहा है। पिछले डेढ़ दशक से विभिन्न विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर पीएच.डी., डी.लिट्. के शोध ग्रन्थों में उपन्यास त्रयी के शुरुआती दो खण्डों को रेखांकित और उल्लेखित किया जा रहा है।

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