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छाया का समुद्र | CHHAYA KA SAMUDRA
Publisher:
Setu Prakashan
| Author:
MAHESH ALOK
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Setu Prakashan
Author:
MAHESH ALOK
Language:
Hindi
Format:
Paperback
₹145 ₹144
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In stock
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ISBN:
SKU
9788194240365
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
144
नब्बे के बाद जिन काव्य-व्यक्तित्वों का विकास हुआ, उसमें महेश आलोक प्रमुख हैं। यह समय सिर्फ कविता के स्वर बदलने का नहीं है। भारतीय समाज, उसकी राजनीति सब कुछ अनिवार्यतः बदल रही थी। इस बदलाव के कारण कविता की संवेदनात्मक संरचना बदल गयी। इस बदलाव को, तब विकसित हो रहे लगभग सभी कवियों में देखा जा सकता है । महेश आलोक के पहले संग्रह में भी इसे देखा जा सकता है। छाया का समुद्र’ महेश आलोक का दूसरा संग्रह है, जो लंबे अंतराल के बाद आ रहा है- लगभग 15-17 वर्षों बाद। प्रथमतः ये कविताएँ कवि की आत्म-निरीक्षण क्षमता से विकसित हुई हैं। संग्रह से गुजरते हुए पाठक महसूस करेगा कि कवि का आत्म-निरीक्षण बहुत गहरा है। पर यह आत्म-निरीक्षण आत्मकेंद्रिक नहीं है। इस निरीक्षण में वे दुनिया की सारी संगतियों-विसंगतियों के लिए सिर्फ दूसरों को ही जिम्मेवार नहीं ठहरते हैं या दुनिया की सारी विडंबनाओं की ओर उँगली उठा कर मुक्त नहीं हो जाते। इस क्रम में कवि अपनी भागीदारी भी सुनिश्चित करता है- ‘मजेदार बात यह है कि यह सब करते हुए मैं दुखी नहीं था, जबकि ऐसा लग रहा था कि मुझे/ दुखी होना चाहिए था उस समय’। इस निरीक्षण का आधार इस मानसिक तथ्यता में है कि वह वस्तु कितनी तरह से निरीक्षत हो सकती है या हुई है। छायाओं के इस समुद्र में सुख ही नहीं, दुख भी है। मिठास ही नहीं, नमकीनियत भी है। आस्था है, अनास्था है, विश्वास-अविश्वास… आदि न जाने कितने भाव है। इन मनोभावों के समुद्र के साथ और उसके समानांतर, जिसकी छाया है, चींटी, चंद्रमा, सूरज आदि भी हैं। इससे भौतिक यथार्थ और मानसिक यथार्थ दोनों साथ ही इनमें संगुफित हो गये हैं। इस निरीक्षण में इनका आस-पड़ोस खूब आया है। कोई गहरा दार्शनिक या चिंतनपरक संदर्भ इनकी कविताओं का आधार न होकर, यह आस-पड़ोस ही एक रूप में इनकी कविताओं का आधार है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इनकी कविताओं से चिंतनपरक संदर्भ गायब हैं। वे हैं पर बहुत ही मद्धिम स्वर के रूप में, विचारधारा भी अपनी गुनगुनी गर्माहट लिये हुए हैं। इस गर्माहट का एक आधार वह आत्मबोध है, सपना है, ख्याल है- जिसमें कवि मानव जाति को उसके पूरे परिवेश के साथ सुंदर देखना चाहता है। ‘छाया का समुद्र’ मनुष्यों के मनोभावों से तो अटा पड़ा है ही। कई कविताएँ गद्य माध्यम के भीतर कविता के आंतरिक लय से समन्वित हैं। इन कविताओं में बहुत रुमानी मामलों में भी कविता जिस सदृश्य का निर्माण करती है, वह बहुत आत्मीय है। निजी की सीमा यहाँ भी है। इससे कविता का जो परिसर बनता है, वह निहायत आत्मीय और ठोस है। इससे छाया का समुद्र विशत् तो बनता ही है, विश्वसनीय भी बनता है। इसी कारण ‘दुनिया की सबसे पवित्रतम और खूबसूरत चीज है चुंबन’…
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Description
नब्बे के बाद जिन काव्य-व्यक्तित्वों का विकास हुआ, उसमें महेश आलोक प्रमुख हैं। यह समय सिर्फ कविता के स्वर बदलने का नहीं है। भारतीय समाज, उसकी राजनीति सब कुछ अनिवार्यतः बदल रही थी। इस बदलाव के कारण कविता की संवेदनात्मक संरचना बदल गयी। इस बदलाव को, तब विकसित हो रहे लगभग सभी कवियों में देखा जा सकता है । महेश आलोक के पहले संग्रह में भी इसे देखा जा सकता है। छाया का समुद्र’ महेश आलोक का दूसरा संग्रह है, जो लंबे अंतराल के बाद आ रहा है- लगभग 15-17 वर्षों बाद। प्रथमतः ये कविताएँ कवि की आत्म-निरीक्षण क्षमता से विकसित हुई हैं। संग्रह से गुजरते हुए पाठक महसूस करेगा कि कवि का आत्म-निरीक्षण बहुत गहरा है। पर यह आत्म-निरीक्षण आत्मकेंद्रिक नहीं है। इस निरीक्षण में वे दुनिया की सारी संगतियों-विसंगतियों के लिए सिर्फ दूसरों को ही जिम्मेवार नहीं ठहरते हैं या दुनिया की सारी विडंबनाओं की ओर उँगली उठा कर मुक्त नहीं हो जाते। इस क्रम में कवि अपनी भागीदारी भी सुनिश्चित करता है- ‘मजेदार बात यह है कि यह सब करते हुए मैं दुखी नहीं था, जबकि ऐसा लग रहा था कि मुझे/ दुखी होना चाहिए था उस समय’। इस निरीक्षण का आधार इस मानसिक तथ्यता में है कि वह वस्तु कितनी तरह से निरीक्षत हो सकती है या हुई है। छायाओं के इस समुद्र में सुख ही नहीं, दुख भी है। मिठास ही नहीं, नमकीनियत भी है। आस्था है, अनास्था है, विश्वास-अविश्वास… आदि न जाने कितने भाव है। इन मनोभावों के समुद्र के साथ और उसके समानांतर, जिसकी छाया है, चींटी, चंद्रमा, सूरज आदि भी हैं। इससे भौतिक यथार्थ और मानसिक यथार्थ दोनों साथ ही इनमें संगुफित हो गये हैं। इस निरीक्षण में इनका आस-पड़ोस खूब आया है। कोई गहरा दार्शनिक या चिंतनपरक संदर्भ इनकी कविताओं का आधार न होकर, यह आस-पड़ोस ही एक रूप में इनकी कविताओं का आधार है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इनकी कविताओं से चिंतनपरक संदर्भ गायब हैं। वे हैं पर बहुत ही मद्धिम स्वर के रूप में, विचारधारा भी अपनी गुनगुनी गर्माहट लिये हुए हैं। इस गर्माहट का एक आधार वह आत्मबोध है, सपना है, ख्याल है- जिसमें कवि मानव जाति को उसके पूरे परिवेश के साथ सुंदर देखना चाहता है। ‘छाया का समुद्र’ मनुष्यों के मनोभावों से तो अटा पड़ा है ही। कई कविताएँ गद्य माध्यम के भीतर कविता के आंतरिक लय से समन्वित हैं। इन कविताओं में बहुत रुमानी मामलों में भी कविता जिस सदृश्य का निर्माण करती है, वह बहुत आत्मीय है। निजी की सीमा यहाँ भी है। इससे कविता का जो परिसर बनता है, वह निहायत आत्मीय और ठोस है। इससे छाया का समुद्र विशत् तो बनता ही है, विश्वसनीय भी बनता है। इसी कारण ‘दुनिया की सबसे पवित्रतम और खूबसूरत चीज है चुंबन’…
About Author
चर्चित युवा कवि एवं समीक्षक जन्म : 28 जनवरी, 1963 शिक्षा : एम.फिल., पी-एच.डी. (हिंदी), जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली। प्रकाशन : प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित। चलो कुछ खेल जैसा खेलें, छाया का समुद्र (कविता-संग्रह) के अलावा आलोचना की तीन पुस्तकें प्रकाशित। केदारनाथ सिंह द्वारा संपादित ‘कविता दशक’ में कविता प्रकाशित। इसके अलावा कई संग्रहों में कविताएँ और लेख। मराठी, उर्दू, अंग्रेजी, बाँग्ला (बंगाली) और पंजाबी में कुछ कविताएँ अनूदित। विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में भागीदारी एवं व्याख्यान तथा काव्यपाठ। अर्द्धवार्षिक शोध पत्रिका ‘शोधमाला’ की परामर्शदात्री समिति के आजीवन सदस्य। साहित्य, संगीत और कला की अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘शब्दम्’ की सलाहकार समिति के सदस्य। सम्मान : उ.प्र. हिंदी संस्थान, लखनऊ का विश्वविद्यालयी साहित्यकार सम्मान, ‘शब्दम्’ द्वारा सर्वश्रेष्ठ शिक्षक सम्मान। संप्रति : एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष (हिंदी विभाग), नारायण पी.जी. कॉलेज, शिकोहाबाद।
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