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BHARTIYA CHINTAN KI BAHUJAN PARAMPRA
Publisher:
Setu Prakashan
| Author:
OMPRAKASH KASHYAP
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Setu Prakashan
Author:
OMPRAKASH KASHYAP
Language:
Hindi
Format:
Paperback
₹649 ₹519
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ISBN:
SKU
9788119899692
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
सत्ता चाहे किसी भी प्रकार की और कितनी ही महाबली क्यों न हो, मनुष्य की प्रश्नाकुलता से घबराती है। इसलिए वह उसको अवरुद्ध करने के लिए तरह-तरह के टोटके करती रहती है। वैचारिकता के ठहराव या खालीपन को भरने के लिए कर्मकाण्डों का सहारा लेती है। उन्हें धर्म का पर्याय बताकर उसका स्थूलीकरण करती है। कहा जा सकता है कि धर्म की आवश्यकता जनसामान्य को पड़ती है। उन लोगों को पड़ती है, जिनकी जिज्ञासाएँ या तो मर जाती हैं अथवा किसी कारणवश वह उनपर ध्यान नहीं दे पाता है। यही बात उसके जीवन में धर्म को अपरिहार्य बनाती है। दूसरे शब्दों में धर्म मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता न होकर, परिस्थितिगत आवश्यकता है। जनसाधारण अपने बौद्धिक आलस्य तथा जीवन की अन्यान्य उलझनों में घिरा होने के कारण धार्मिक बनता है। न कि धर्म को अपने लिए अपरिहार्य मानकर उसे अपनाता है। फिर भी मामला यहीं तक सीमित रहे तो कोई समस्या न हो। समस्या तब पैदा होती है जब वह खुद को कथित ईश्वर का बिचौलिया बताने वाले पुरोहित को ही सब कुछ मानकर उसके वाग्जाल में फँस जाता है। अपने सभी फैसले उसे सौंपकर उसका बौद्धिक गुलाम बन जाता है।
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Description
सत्ता चाहे किसी भी प्रकार की और कितनी ही महाबली क्यों न हो, मनुष्य की प्रश्नाकुलता से घबराती है। इसलिए वह उसको अवरुद्ध करने के लिए तरह-तरह के टोटके करती रहती है। वैचारिकता के ठहराव या खालीपन को भरने के लिए कर्मकाण्डों का सहारा लेती है। उन्हें धर्म का पर्याय बताकर उसका स्थूलीकरण करती है। कहा जा सकता है कि धर्म की आवश्यकता जनसामान्य को पड़ती है। उन लोगों को पड़ती है, जिनकी जिज्ञासाएँ या तो मर जाती हैं अथवा किसी कारणवश वह उनपर ध्यान नहीं दे पाता है। यही बात उसके जीवन में धर्म को अपरिहार्य बनाती है। दूसरे शब्दों में धर्म मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता न होकर, परिस्थितिगत आवश्यकता है। जनसाधारण अपने बौद्धिक आलस्य तथा जीवन की अन्यान्य उलझनों में घिरा होने के कारण धार्मिक बनता है। न कि धर्म को अपने लिए अपरिहार्य मानकर उसे अपनाता है। फिर भी मामला यहीं तक सीमित रहे तो कोई समस्या न हो। समस्या तब पैदा होती है जब वह खुद को कथित ईश्वर का बिचौलिया बताने वाले पुरोहित को ही सब कुछ मानकर उसके वाग्जाल में फँस जाता है। अपने सभी फैसले उसे सौंपकर उसका बौद्धिक गुलाम बन जाता है।
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