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Batohi (HB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
HRISHIKESH SULABH
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Rajkamal
Author:
HRISHIKESH SULABH
Language:
Hindi
Format:
Hardback

149

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SKU 9788126713349 Category
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‘बटोही’ एक नए भिखारी ठाकुर की खोज है, जो हर समय और हर देश में एक सृजनशील रचनाकार के बनने और विकसित होने की गाथा बनकर सार्वभौमिक विस्तार पाता है…जो इक्कीसवीं सदी के आरम्भिक उत्तर-आधुनिक ग्लोबल समय में संस्कृति के वैश्विक उपनिवेशवाद के ख़ि‍लाफ़ स्थानीय अस्मिताओं की लड़ाई लड़ रहा है। ‘बटोही’ के इस नए भिखारी ठाकुर की लड़ाई ब्रिटिशकालीन भारत में जन्मे भिखारी ठाकुर की लड़ाई से ज़्यादा कठिन है।…‘बटोही’ अपनी प्रस्तुति-भाषा के स्तर पर भी एक सशक्त प्रयोग है। यह लोकभाषाओं की शक्ति को स्थापित करता है।…भिखारी एक ऐसे बटोही हैं जो एक सदी बाद की यात्रा तय करके हमारे सामने इक्कीसवीं सदी में कला का आधुनिक पाठ गढ़ते हैं।
—अजित राय (‘हंस’ मासिक और दैनिक ‘हिन्दुस्तान’)
 
भिखारी ठाकुर गाँव-समाज में स्त्रियों की दशा देखकर बार-बार विचलित होते हैं। हृषीकेश सुलभ इस बहाने स्त्री की पीड़ा का एक विमर्शमूलक आख्यान अपने नाटक में बुनते हैं। सुलभ तत्कालीन ग्राम्य यथार्थ के कुछ उपपाठ भी अपने नाटक में बुनते हैं। जातिवाद का प्रसंग एक ऐसा ही उपपाठ है। नाई जाति के भिखारी ठाकुर की परवर्ती ख्याति के बरक्स जाति के सन्दर्भ में ख़ुद उनके पीड़ादायी अनुभवों का बेहतर समावेश हृषीकेश सुलभ ने अपने नाटक में किया है।…एक आधुनिक लोकगायक पर लिखते हुए सुलभ आख्यान की पुरबिया पद्धति को ही चुनते हैं। वे चरित्र का कोई विमर्श नहीं बनाते, रिश्तों की एक दुनिया बनाते हैं। विचार का प्रत्यक्ष न होना हृषीकेश सुलभ के नाटक की एक प्रमुख विशेषता है। विचार अक्सर नामालूम-सा उनके नाटक में मौजूद है।
—संगम पाण्डेय (‘जनसत्ता’)
 
राजनीतिक रूप में अम्बेडकर ने वर्णवादी व्यवस्था के जो दुष्परिणाम देखे थे, भिखारी ठाकुर ने रंगकर्म के क्षेत्र में इसे काफ़ी क़रीब से महसूस किया था। नाटक में यह बात जीवन्त रूप से उभरकर आती है।…हृषीकेश सुलभ अपने नए नाटक ‘बटोही’ के माध्यम से भिखारी ठाकुर के रचनात्मक संघर्ष के विभिन्न पक्षों से दर्शकों को रू-ब-रू कराते हैं, जिससे आज भी लोकधर्मिता से जुड़ा हर रंगकर्मी जूझता है।
—राजेश कुमार (‘कथादेश’)
 

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Description

‘बटोही’ एक नए भिखारी ठाकुर की खोज है, जो हर समय और हर देश में एक सृजनशील रचनाकार के बनने और विकसित होने की गाथा बनकर सार्वभौमिक विस्तार पाता है…जो इक्कीसवीं सदी के आरम्भिक उत्तर-आधुनिक ग्लोबल समय में संस्कृति के वैश्विक उपनिवेशवाद के ख़ि‍लाफ़ स्थानीय अस्मिताओं की लड़ाई लड़ रहा है। ‘बटोही’ के इस नए भिखारी ठाकुर की लड़ाई ब्रिटिशकालीन भारत में जन्मे भिखारी ठाकुर की लड़ाई से ज़्यादा कठिन है।…‘बटोही’ अपनी प्रस्तुति-भाषा के स्तर पर भी एक सशक्त प्रयोग है। यह लोकभाषाओं की शक्ति को स्थापित करता है।…भिखारी एक ऐसे बटोही हैं जो एक सदी बाद की यात्रा तय करके हमारे सामने इक्कीसवीं सदी में कला का आधुनिक पाठ गढ़ते हैं।
—अजित राय (‘हंस’ मासिक और दैनिक ‘हिन्दुस्तान’)
 
भिखारी ठाकुर गाँव-समाज में स्त्रियों की दशा देखकर बार-बार विचलित होते हैं। हृषीकेश सुलभ इस बहाने स्त्री की पीड़ा का एक विमर्शमूलक आख्यान अपने नाटक में बुनते हैं। सुलभ तत्कालीन ग्राम्य यथार्थ के कुछ उपपाठ भी अपने नाटक में बुनते हैं। जातिवाद का प्रसंग एक ऐसा ही उपपाठ है। नाई जाति के भिखारी ठाकुर की परवर्ती ख्याति के बरक्स जाति के सन्दर्भ में ख़ुद उनके पीड़ादायी अनुभवों का बेहतर समावेश हृषीकेश सुलभ ने अपने नाटक में किया है।…एक आधुनिक लोकगायक पर लिखते हुए सुलभ आख्यान की पुरबिया पद्धति को ही चुनते हैं। वे चरित्र का कोई विमर्श नहीं बनाते, रिश्तों की एक दुनिया बनाते हैं। विचार का प्रत्यक्ष न होना हृषीकेश सुलभ के नाटक की एक प्रमुख विशेषता है। विचार अक्सर नामालूम-सा उनके नाटक में मौजूद है।
—संगम पाण्डेय (‘जनसत्ता’)
 
राजनीतिक रूप में अम्बेडकर ने वर्णवादी व्यवस्था के जो दुष्परिणाम देखे थे, भिखारी ठाकुर ने रंगकर्म के क्षेत्र में इसे काफ़ी क़रीब से महसूस किया था। नाटक में यह बात जीवन्त रूप से उभरकर आती है।…हृषीकेश सुलभ अपने नए नाटक ‘बटोही’ के माध्यम से भिखारी ठाकुर के रचनात्मक संघर्ष के विभिन्न पक्षों से दर्शकों को रू-ब-रू कराते हैं, जिससे आज भी लोकधर्मिता से जुड़ा हर रंगकर्मी जूझता है।
—राजेश कुमार (‘कथादेश’)
 

About Author

हृषीकेश सुलभ

कथाकार, नाटककार, रंग-समीक्षक हृषीकेश सुलभ का जन्म 15 फरवरी, 1955 को बिहार के छपरा (अब सीवान) जनपद के लहेजी नामक गाँव में हुआ। आरम्भिक शिक्षा गाँव में हुई और अपने गाँव के रंगमंच से ही आपने रंग-संस्कार ग्रहण किया। आपकी कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित और अंग्रेज़ी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं।

आप रंगमंच से गहरे जुड़ाव के कारण कथा-लेखन के साथ-साथ नाट्य-लेखन की ओर उन्मुख हुए और भिखारी ठाकुर की प्रसिद्ध नाट्यशैली बिदेसिया की रंगयुक्तियों का आधुनिक हिन्दी रंगमंच के लिए पहली बार अपने नाट्यालेखों में सृजनात्मक प्रयोग किया। विगत कुछ वर्षों से आप कथादेश मासिक में रंगमंच पर नियमित लेखन कर रहे हैं।

आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं : ‘अग्न‍िलीक’ (उपन्यास); ‘तूती की आवाज़’ (‘पथरकट’, ‘वधस्थल से छलाँग’ और ‘बँधा है काल’ एक जिल्द में शामिल); ‘वसंत के हत्यारे’, ‘हलन्त’ (कहानी-संग्रह); ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ (चयन); ‘अमली’, ‘बटोही’, ‘धरती आबा’ (नाटक); ‘माटीगाड़ी’ (शूद्रक रचित ‘मृच्छकटिकम्’ की पुनर्रचना), ‘मैला आँचल’ (फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास का नाट्यान्तर), ‘दालिया’ (रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित नाटक); ‘रंगमंच का जनतंत्र’ और ‘रंग-अरंग’ (नाट्य-चिन्तन)।

सम्पर्क : पीरमुहानी, मुस्लिम क़ब्रिस्तान के पास, कदमकुआँ, पटना–800 003

ई-मेल : hrishikesh.sulabh@gmail.com

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