पाकिस्तान में उर्दू की शायरात शायरी के मैदान में शायरों से कहीं आगे निकल गई हैं, जिसकी मिसाल दुनिया भर में किसी देशकाल में नहीं मिलेगी। उन शायरात में जो पोस्ट-मॉडर्न कहलाती हैं, उनमें सारा शगुफ़्ता, अज़रा अब्बास, किश्वर नाहीद, नसरीन अंजुम भट्टी, अनूपा, तनवीर अंजुम और शाइस्ता हबीब के नाम ज़्यादा नुमायाँ हैं। लेकिन सारा शगुफ़्ता इनमें सब से ऊपर हैं। ‘सुपर पोएटेस’ या ‘क्वीन ऑफ़ पोएटिक्स’ के तौर पर वह चमत्कार से कम नहीं। …पढ़ने वाले मेरी राय से इत्तिफ़ाक़ करेंगे कि इतनी आला शायरी पश्चिम में भी नहीं हो रही। यह शायरी हालाँकि आज की पोस्ट-मॉडर्न रिवायत की तरह सुगठित नहीं लेकिन असर-अंगेज़ी में अपना जवाब नहीं रखती, और आला सतह की शायरी को भी कहीं पीछे छोड़ जाती है।
—मुबारक अहमद, आँखें (उर्दू) के फ़्लैप से
सारा जिस तरह की ज़िन्दगी गुज़ारती थी, ज़हनी सतह पर ख़ुद भी उसे पसंद नहीं करती थी। इसीलिए हमेशा अपराध-भाव से भरी रहती थी। उसकी शायरी में इसी अपराध-भाव की झलक नज़र आती है। ऐसी ज़िन्दगी को वह ख़ुद से चिमटाये हुए चलती थी… एक नज़्म में वह कहती है : मुझे रोटी दो, और फिर गाली दो।
—अतिया दाऊद, ‘सारा मेरी दोस्त’ से
…सारा शगुफ़्ता के नाम और उसकी शायरी को दूसरे समकालीन शायरों और उनकी रचनाओं के साथ ब्रैकेट नहीं किया जा सकता। यह तो ज़रूर है कि उसने ज़्यादातर नज़्में नस्री नज़्म के रूप में लिखीं लेकिन उसकी नस्री शायरी पिछले तीन दशकों (1960 के बाद) से अब तक की नस्री शायरी से बिलकुल अलग नज़र आती है। उसकी शब्दावली की बनावट बेमिसाल है। हम उसकी शायरी की विषय-वस्तु पर बात करें तो उसकी आँखें सब से अहम समयकाल—चरम-जीवन से चरम-मृत्यु तक फैली है। कम से कम भारतीय उपमहाद्वीप में सारा शगुफ़्ता के सिवा कोई ऐसी औरत नज़र नहीं आती जिसने शायरी और अदब के माध्यम से इस इन्तहा पर पहुँच कर सच—बल्कि नंगा सच—बोला हो।
—अहमद हमीश, मशहूर शायर और ‘आँखें’ (उर्दू) के प्रकाशक
पाकिस्तान में उर्दू की शायरात शायरी के मैदान में शायरों से कहीं आगे निकल गई हैं, जिसकी मिसाल दुनिया भर में किसी देशकाल में नहीं मिलेगी। उन शायरात में जो पोस्ट-मॉडर्न कहलाती हैं, उनमें सारा शगुफ़्ता, अज़रा अब्बास, किश्वर नाहीद, नसरीन अंजुम भट्टी, अनूपा, तनवीर अंजुम और शाइस्ता हबीब के नाम ज़्यादा नुमायाँ हैं। लेकिन सारा शगुफ़्ता इनमें सब से ऊपर हैं। ‘सुपर पोएटेस’ या ‘क्वीन ऑफ़ पोएटिक्स’ के तौर पर वह चमत्कार से कम नहीं। …पढ़ने वाले मेरी राय से इत्तिफ़ाक़ करेंगे कि इतनी आला शायरी पश्चिम में भी नहीं हो रही। यह शायरी हालाँकि आज की पोस्ट-मॉडर्न रिवायत की तरह सुगठित नहीं लेकिन असर-अंगेज़ी में अपना जवाब नहीं रखती, और आला सतह की शायरी को भी कहीं पीछे छोड़ जाती है।
—मुबारक अहमद, आँखें (उर्दू) के फ़्लैप से
सारा जिस तरह की ज़िन्दगी गुज़ारती थी, ज़हनी सतह पर ख़ुद भी उसे पसंद नहीं करती थी। इसीलिए हमेशा अपराध-भाव से भरी रहती थी। उसकी शायरी में इसी अपराध-भाव की झलक नज़र आती है। ऐसी ज़िन्दगी को वह ख़ुद से चिमटाये हुए चलती थी… एक नज़्म में वह कहती है : मुझे रोटी दो, और फिर गाली दो।
—अतिया दाऊद, ‘सारा मेरी दोस्त’ से
…सारा शगुफ़्ता के नाम और उसकी शायरी को दूसरे समकालीन शायरों और उनकी रचनाओं के साथ ब्रैकेट नहीं किया जा सकता। यह तो ज़रूर है कि उसने ज़्यादातर नज़्में नस्री नज़्म के रूप में लिखीं लेकिन उसकी नस्री शायरी पिछले तीन दशकों (1960 के बाद) से अब तक की नस्री शायरी से बिलकुल अलग नज़र आती है। उसकी शब्दावली की बनावट बेमिसाल है। हम उसकी शायरी की विषय-वस्तु पर बात करें तो उसकी आँखें सब से अहम समयकाल—चरम-जीवन से चरम-मृत्यु तक फैली है। कम से कम भारतीय उपमहाद्वीप में सारा शगुफ़्ता के सिवा कोई ऐसी औरत नज़र नहीं आती जिसने शायरी और अदब के माध्यम से इस इन्तहा पर पहुँच कर सच—बल्कि नंगा सच—बोला हो।
—अहमद हमीश, मशहूर शायर और ‘आँखें’ (उर्दू) के प्रकाशक
About Author
सारा शगुफ़्ता
सारा शगुफ़्ता का जन्म 31 अक्तूबर, 1954 को पाकिस्तान के गुजराँवाला में हुआ। पाकिस्तान के उत्तर-आधुनिक उर्दू शायरों में उनका विशिष्ट स्थान है। अपने व्यथापूर्ण जीवन को आधार बनाकर गद्य शैली में इक़बालिया नज़्में लिखने में वे अपनी मिसाल आप रही हैं। निजी जीवन में बार-बार मिले आघातों से विचलित होकर उन्होंने 4 जून, 1984 को कराची में रेल से कटकर आत्महत्या कर ली, जिसके बाद उनके मित्रों ने उनकी नज़्मों को इकट्ठा कर 1985 में ‘आँखें’ शीर्षक से छपवाया। यह उनकी नज़्मों का पहला संग्रह था। बाद के वर्षों में उनकी और भी
बहुत-सी नज़्में मिलीं जिन्हें इकट्ठा कर 1993 में ‘नींद का रंग’ शीर्षक से छापा गया। एक दक़ियानूसी समाज के अन्यायों का शिकार बनी सारा की शायरी को उनकी मौत के बाद व्यापक तौर पर सराहना मिली। उनकी मित्र और सुप्रसिद्ध लेखक अमृता प्रीतम ने जब उनकी जीवनी एक थी सारा लिखी तो भारत के साहित्यिक दायरे में भी सारा को लेकर दिलचस्पी बढ़ी, उनके जीवन पर आधारित कई नाटक लिखे और मंचित किए गए।
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