Kathgulab
Publisher:
| Author:
| Language:
| Format:
Publisher:
Author:
Language:
Format:
₹499 ₹374
Save: 25%
In stock
Ships within:
In stock
ISBN:
Page Extent:
कठगुलाब –
क्या ‘कठगुलाब’ को मैंने लिखा है? या मेरे समय ने लिखा है? असंगत, विखण्डित, विश्रृंखलित, मेरे समय ने। मेरा क्या है? इतना भर कि क़रीब दस बरसों तक एक सवाल मुझे उद्विग्न किये रहा था। क्या हमारी भूमि के बंजर होने और हमारी भावभूमि के ऊसर होते चले जाने के बीच कोई गहरा, अपरिहार्य सम्बन्ध है? क्या इसीलिए हमारे यहाँ, स्त्री को धरती कहा जाता रहा है? स्त्री धरती है और भाव भी तो चारों तरफ़ व्याप रहे ऊसर से सर्वाधिक खार भी, उसी के हिस्से आयेगी या उसी की मार्फ़त आयेगी न? सबकुछ बँटा हुआ था पर सबकुछ समन्वित था। बंजर को उर्वर तक ले जाना था। समय के आह्वान पर, पाँच कथावाचक आ प्रस्तुत हुए। सब ‘कठगुलाब’ जीने लगे। जब मैंने उपन्यास लिखा, लगा, उसमें मैं कहीं नहीं हूँ। अब लगता है हर पात्र में मैं हूँ। होना ही था। मेरा आत्म उसमें उपस्थित न होता तो मेरे समय, समाज या संसार का आत्म कैसे हो सकता था। समय से मेरा तात्पर्य केवल वर्तमान से ही नहीं है। ‘कठगुलाब’ के पाँच कथावाचकों में चार स्त्रियाँ हैं, शायद इसलिए, कुछ लोग उसे स्त्री की त्रासदी की कथा मानते हैं। वे कहते हैं; मैं सुन लेती हूँ। अपने ईश्वर के साथ मिल कर हँस लेती हूँ। उपन्यास की हर स्त्री प्रवक्ता कहती है, ज़माना गुज़रा जब मैं स्त्री की तरह जी थी। अब मैं समय हूँ। वह जो ईश्वर से होड़ लेकर, अतीत को आज से और आज को अनागत से जोड़ सकता है। पूरे व्यापार पर हँसते-हँसते, पुरुष और नारी से सबकुछ छीन कर, अर्धनारीश्वर होने की असीम सम्पदा, उन्हें लौटा सकता है। अर्धनारीश्वर हुए नहीं कि सम्बन्धों की विषमता, विडम्बना पर विजय मिलनी आरम्भ हुई। आंशिक सही पर हुई विजय। पूर्ण तो कुछ नहीं होता जीवन में। पूर्ण हो जाये तो मोह कैसे शेष रहे ? मोह बिना जीवन कैसा? प्रेम हो, करुणा हो; संवेदना हो या संघर्ष; सब मोह की देन हैं। और सृजन भी। बहुत मोह चाहिए जीवन से; उससे निरन्तर छले जाने पर भी, पुनः, नूतन आविष्कार करके, उसे सर्जित करते चले जाने के लिए। — मृदुला गर्ग
कठगुलाब –
क्या ‘कठगुलाब’ को मैंने लिखा है? या मेरे समय ने लिखा है? असंगत, विखण्डित, विश्रृंखलित, मेरे समय ने। मेरा क्या है? इतना भर कि क़रीब दस बरसों तक एक सवाल मुझे उद्विग्न किये रहा था। क्या हमारी भूमि के बंजर होने और हमारी भावभूमि के ऊसर होते चले जाने के बीच कोई गहरा, अपरिहार्य सम्बन्ध है? क्या इसीलिए हमारे यहाँ, स्त्री को धरती कहा जाता रहा है? स्त्री धरती है और भाव भी तो चारों तरफ़ व्याप रहे ऊसर से सर्वाधिक खार भी, उसी के हिस्से आयेगी या उसी की मार्फ़त आयेगी न? सबकुछ बँटा हुआ था पर सबकुछ समन्वित था। बंजर को उर्वर तक ले जाना था। समय के आह्वान पर, पाँच कथावाचक आ प्रस्तुत हुए। सब ‘कठगुलाब’ जीने लगे। जब मैंने उपन्यास लिखा, लगा, उसमें मैं कहीं नहीं हूँ। अब लगता है हर पात्र में मैं हूँ। होना ही था। मेरा आत्म उसमें उपस्थित न होता तो मेरे समय, समाज या संसार का आत्म कैसे हो सकता था। समय से मेरा तात्पर्य केवल वर्तमान से ही नहीं है। ‘कठगुलाब’ के पाँच कथावाचकों में चार स्त्रियाँ हैं, शायद इसलिए, कुछ लोग उसे स्त्री की त्रासदी की कथा मानते हैं। वे कहते हैं; मैं सुन लेती हूँ। अपने ईश्वर के साथ मिल कर हँस लेती हूँ। उपन्यास की हर स्त्री प्रवक्ता कहती है, ज़माना गुज़रा जब मैं स्त्री की तरह जी थी। अब मैं समय हूँ। वह जो ईश्वर से होड़ लेकर, अतीत को आज से और आज को अनागत से जोड़ सकता है। पूरे व्यापार पर हँसते-हँसते, पुरुष और नारी से सबकुछ छीन कर, अर्धनारीश्वर होने की असीम सम्पदा, उन्हें लौटा सकता है। अर्धनारीश्वर हुए नहीं कि सम्बन्धों की विषमता, विडम्बना पर विजय मिलनी आरम्भ हुई। आंशिक सही पर हुई विजय। पूर्ण तो कुछ नहीं होता जीवन में। पूर्ण हो जाये तो मोह कैसे शेष रहे ? मोह बिना जीवन कैसा? प्रेम हो, करुणा हो; संवेदना हो या संघर्ष; सब मोह की देन हैं। और सृजन भी। बहुत मोह चाहिए जीवन से; उससे निरन्तर छले जाने पर भी, पुनः, नूतन आविष्कार करके, उसे सर्जित करते चले जाने के लिए। — मृदुला गर्ग
About Author
Reviews
There are no reviews yet.
Reviews
There are no reviews yet.