Antarkathaon Ke Aaine Mein Upanyas
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अन्तर्कथाओं के आईने में उपन्यास –
राहुल सिंह ने पिछले एक दशक में कथालोचना के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनायी है। हिन्दी उपन्यासों पर केन्द्रित उनकी यह आलोचनात्मक कृति 1936 ई. से लेकर 2014 ई. तक के अन्तराल से एक चयन प्रस्तुत करती है। इसमें एक ओर तो अकादमिक क्षेत्र में पढ़ाये जानेवाले ‘गोदान’, ‘तमस’ और ‘डूब’ जैसे उपन्यास हैं तो वहीं दूसरी ओर ‘मिशन झारखण्ड’, ‘समर शेष है’, ‘निर्वासन’, ‘कैसी आगि लगायी’, ‘बरखा रचायी’, ‘आदिग्राम उपाख्यान’, ‘काटना शमी का वृक्ष पद्म पंखुरी की धार से’ और संजीव की ‘फाँस’ को छोड़कर उनके लगभग उपन्यासों को रेखांकित करता एक विशद् आलेख शामिल है, जिसके केन्द्र में ‘रह गयी दिशाएँ इसी पार’ है। उपन्यासों में विन्यस्त कथात्मकता की परतों को खोलने के लिए उसकी अन्तर्कथाओं को उपन्यासकार द्वारा उपलब्ध कराये गये अन्तःसूत्रों की तरह वे अपनी आलोचना में बरतते हैं। इस कारण वे पाठ के भीतर से उपन्यास के लिए प्रतिमान ढूँढ़नेवाले एक श्रमसाध्य आलोचक की छवि प्रस्तुत करते हैं। हर लेख आलोचना की भाषा पर की गयी उनकी मेहनत का पता देती है। कथात्मकता की कसौटी पर वे उपन्यासों से इतर एक आत्मकथा ‘मुर्दहिया’, एक डायरी ‘अग्निपर्व शान्तिनिकेतन’ और एक आलोचनात्मक कृति ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता’ पर भी कुछ ज़रूरी बातें प्रस्तावित करते हैं। इस लिहाज़ से देखें तो समकालीन कथात्मकता की पड़ताल करती एक ज़रूरी किताब है, जिसे ज़रूर देखा जाना चाहिए।
अन्तर्कथाओं के आईने में उपन्यास –
राहुल सिंह ने पिछले एक दशक में कथालोचना के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनायी है। हिन्दी उपन्यासों पर केन्द्रित उनकी यह आलोचनात्मक कृति 1936 ई. से लेकर 2014 ई. तक के अन्तराल से एक चयन प्रस्तुत करती है। इसमें एक ओर तो अकादमिक क्षेत्र में पढ़ाये जानेवाले ‘गोदान’, ‘तमस’ और ‘डूब’ जैसे उपन्यास हैं तो वहीं दूसरी ओर ‘मिशन झारखण्ड’, ‘समर शेष है’, ‘निर्वासन’, ‘कैसी आगि लगायी’, ‘बरखा रचायी’, ‘आदिग्राम उपाख्यान’, ‘काटना शमी का वृक्ष पद्म पंखुरी की धार से’ और संजीव की ‘फाँस’ को छोड़कर उनके लगभग उपन्यासों को रेखांकित करता एक विशद् आलेख शामिल है, जिसके केन्द्र में ‘रह गयी दिशाएँ इसी पार’ है। उपन्यासों में विन्यस्त कथात्मकता की परतों को खोलने के लिए उसकी अन्तर्कथाओं को उपन्यासकार द्वारा उपलब्ध कराये गये अन्तःसूत्रों की तरह वे अपनी आलोचना में बरतते हैं। इस कारण वे पाठ के भीतर से उपन्यास के लिए प्रतिमान ढूँढ़नेवाले एक श्रमसाध्य आलोचक की छवि प्रस्तुत करते हैं। हर लेख आलोचना की भाषा पर की गयी उनकी मेहनत का पता देती है। कथात्मकता की कसौटी पर वे उपन्यासों से इतर एक आत्मकथा ‘मुर्दहिया’, एक डायरी ‘अग्निपर्व शान्तिनिकेतन’ और एक आलोचनात्मक कृति ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता’ पर भी कुछ ज़रूरी बातें प्रस्तावित करते हैं। इस लिहाज़ से देखें तो समकालीन कथात्मकता की पड़ताल करती एक ज़रूरी किताब है, जिसे ज़रूर देखा जाना चाहिए।
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