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Ye Aam Rasta Nahin
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ये आम रास्ता नहीं –
(राजनीति के चक्रव्यूह में स्त्री)
“सिंहासन पर बैठी मृदु ने सोचा… सुरक्षाकर्मी अपने भालों से सिंह को मार देंगे।” यही स्वप्न तो यथार्थ है। रजनी गुप्त ने ‘ये आम रास्ता नहीं है उपन्यास में बड़ी ख़ूबसूरती से इसी रूपक को उकेरा है। ‘यत्र नार्यिस्तु पूज्यन्ते’ का साक्षात् रूपक। स्त्री सिंहासन पर बैठी है, दोनों तरफ़ सिंह है, भाले ताने सुरक्षाकर्मी खड़े हैं। (सबसे बड़ा भ्रम है कि यह ताम-झाम उसके लिए है। नहीं। यह सब तो मौका ताक, उसे मार डालने के लिए है।… जैसा इन्दिरा गाँधी के साथ हुआ)।
उपन्यास एक स्त्री मृदु की महत्त्वाकांक्षा की कहानी भर नहीं है, हर स्त्री की छोटी-बड़ी महत्त्वाकांक्षा की कहानी है। प्राकृतिक, अर्जित, सब गुण हैं मृदु में। लेकिन उन्हें कोई सार्थक दिशा देने के स्थान पर भाई उसे अनुशासित करता है और शीघ्र ही उसका विवाह भी अयोग्य व्यक्ति से हो जाता है। पति उसे सहचर नहीं, वस्तु समझता है। मृदु उसकी उन्नति के लिए काम करे तो बहुत अच्छा, स्वयं के लिए कुछ सोचे तो नीच, कुलटा, बेहया! पति ही क्यों हर पुरुष यही करता है। गजेन्द्र से लेकर सुकाम तक, हर व्यक्ति स्त्री को प्राकृतिक संसाधन मान, उसका दोहन करना चाहता है।
राजनीति का तिलिस्म बिरला ही तोड़ पाता है। वहाँ केवल समझौते हैं। वरिष्ठ राजनेत्री का भी यही अनुभव है। “गिल्ट मत पालो” ये आम रास्ता नहीं है, केवल ख़ास व्यक्तियों के लिए सुरक्षित है। दादा-परदादा के ज़माने से राजनीति चल रही हो या बेशुमार दौलत हो (कुर्सी खरीदने के लिए)। बाकी जो आम लोग हैं, विशेषकर स्त्रियाँ, अपनी एकमात्र सम्पत्ति देह को दाँव पर लगाने के लिए तैयार रहें। रजनी गुप्त का भाषा प्रांजल्य और उपन्यास की बुनावट पर अच्छा नियन्त्रण है। कथ्य अत्यन्त रोचक व ज्वलन्त है। क्यों यह रास्ता स्त्रियों के लिए बन्द है? शायद ही कोई उपन्यास इस आम स्त्री की ख़ास महत्त्वाकांक्षा के बारे में लिखा गया हो। बेहद पठनीय…
– लता शर्मा
ये आम रास्ता नहीं उपन्यास पर सुधी साहित्यकारों की सम्पतियाँ
स्त्रियों के लिए अब तक ग़ैर-पारम्परिक रहे राजनीति के क्षेत्र में उन्हें घर और बाहर की दुनिया में कितने प्रकार के विरोध और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, इसका प्रभावी और विशद वर्णन रजनी गुप्त ने ये ‘आम रास्ता नहीं’ में किया है। -शिवमूर्ति
तृणमूल स्तर की राजनीति के बीहड़ क़िस्म के क़दम-क़दम पर वितृष्णा उपजाने वाली गलीज पृष्ठभूमि पर हिन्दी में कम ही उपन्यास हैं विशेषतः सत्ता के खेल में शामिल होने को उत्सुक और महत्त्वाकांक्षी महिला नेत्रियों के विकट और दिल दहलाऊ संघर्ष पर केन्द्रित कथाओं का अकाल-सा नज़र आता है। कथाकार रजनी गुप्त देश के सबसे बहुल प्रदेश की राजधानी में बरसों से विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं की भागीदारी को लेकर किये जा रहे ढोंग और सशक्तीकरण की आड़ में होने वाले अमानवीय और गर्हित शोषण को अपनी पैनी निगाह से देखती रही हैं। तीखे तेवरों के साथ कही गयी इस विलक्षण कृति में उन्होंने लोकतान्त्रिक व्यवस्था के परदे के पीछे वाले यथार्थ को बेबाकी से और निर्ममतापूर्वक उद्घाटित करके पाठकों को एक नितान्त अछूते कथा क्षेत्र में प्रवेश कराया है। ऐसी साहसिक और परिवर्तनकामी रचनाएँ हमें जगाती हैं और दृष्टि प्रदान करती हैं। -राजेन्द्र राव
इस उपन्यास में स्त्री के घर-बाहर की जटिलताएँ, विरुद्ध अमानुषिक स्थितियों और यातनाओं की गहरी लिखावटें मौजूद हैं। स्त्री के लिए अपनी अस्मितामूलक सामाजिक सक्रियता का बृहत्तर क्षेत्र चुनना, आज कहीं ज़्यादा बेहद जोख़िम भरा है। विडम्बना यह है कि उसकी ऐसी आकांक्षाएँ बदनाम महत्त्वाकांक्षाओं के रूप में देखी जाती हैं। इस उपन्यास में स्त्री अस्मिता रूमानी भाववादी गढ़न से बाहर निकलती है। स्त्री के सामाजिक पार्थक्य और दमन की सच्चाइयाँ अपनी गहराइयों समेत इस उपन्यास में दर्ज हैं। स्त्री के संघर्ष के एक बेहद चुनौती भरे क्षेत्र की सच्चाइयों को रजनी गुप्त ने सृजनात्मकता की परवाह करते हुए विकसित किया है। बेशक यह एक नया स्त्री क्षेत्र है जिसमें स्त्री सशक्तता की रूढ़ियों को सचेत ढंग से तोड़ा गया है। -चन्द्रकला त्रिपाठी
रजनी गुप्त का लेखन हिन्दी पाठक के लिए हर बार एक नये अनुभव प्रदेश का द्वार खोलता है। नये विषय के कोने-अन्तरों की पड़ताल का रचनात्मक साहस, उनकी अनूठी कलात्मक शैली के साथ घुल कर उपन्यास को आत्मीय, जीवन्त तथा शक्तिसम्पन्न बना देता है। यह उपन्यास राजनीति को अपना कर्म क्षेत्र चुनने वाली स्त्री की जोखिम भरी साहसिक संघर्ष यात्रा का दमकता हुआ दस्तावेज़ है। यहाँ कथ्य का संवेदनात्मक आवेग, वैचारिक गुरुत्व का सन्तुलन साधे हुए है और भाषा के क्या कहने! संवेदना के गहरे, तरल रेशों से बुनी प्रवहमान। – अल्पना मिश्र
ये आम रास्ता नहीं –
(राजनीति के चक्रव्यूह में स्त्री)
“सिंहासन पर बैठी मृदु ने सोचा… सुरक्षाकर्मी अपने भालों से सिंह को मार देंगे।” यही स्वप्न तो यथार्थ है। रजनी गुप्त ने ‘ये आम रास्ता नहीं है उपन्यास में बड़ी ख़ूबसूरती से इसी रूपक को उकेरा है। ‘यत्र नार्यिस्तु पूज्यन्ते’ का साक्षात् रूपक। स्त्री सिंहासन पर बैठी है, दोनों तरफ़ सिंह है, भाले ताने सुरक्षाकर्मी खड़े हैं। (सबसे बड़ा भ्रम है कि यह ताम-झाम उसके लिए है। नहीं। यह सब तो मौका ताक, उसे मार डालने के लिए है।… जैसा इन्दिरा गाँधी के साथ हुआ)।
उपन्यास एक स्त्री मृदु की महत्त्वाकांक्षा की कहानी भर नहीं है, हर स्त्री की छोटी-बड़ी महत्त्वाकांक्षा की कहानी है। प्राकृतिक, अर्जित, सब गुण हैं मृदु में। लेकिन उन्हें कोई सार्थक दिशा देने के स्थान पर भाई उसे अनुशासित करता है और शीघ्र ही उसका विवाह भी अयोग्य व्यक्ति से हो जाता है। पति उसे सहचर नहीं, वस्तु समझता है। मृदु उसकी उन्नति के लिए काम करे तो बहुत अच्छा, स्वयं के लिए कुछ सोचे तो नीच, कुलटा, बेहया! पति ही क्यों हर पुरुष यही करता है। गजेन्द्र से लेकर सुकाम तक, हर व्यक्ति स्त्री को प्राकृतिक संसाधन मान, उसका दोहन करना चाहता है।
राजनीति का तिलिस्म बिरला ही तोड़ पाता है। वहाँ केवल समझौते हैं। वरिष्ठ राजनेत्री का भी यही अनुभव है। “गिल्ट मत पालो” ये आम रास्ता नहीं है, केवल ख़ास व्यक्तियों के लिए सुरक्षित है। दादा-परदादा के ज़माने से राजनीति चल रही हो या बेशुमार दौलत हो (कुर्सी खरीदने के लिए)। बाकी जो आम लोग हैं, विशेषकर स्त्रियाँ, अपनी एकमात्र सम्पत्ति देह को दाँव पर लगाने के लिए तैयार रहें। रजनी गुप्त का भाषा प्रांजल्य और उपन्यास की बुनावट पर अच्छा नियन्त्रण है। कथ्य अत्यन्त रोचक व ज्वलन्त है। क्यों यह रास्ता स्त्रियों के लिए बन्द है? शायद ही कोई उपन्यास इस आम स्त्री की ख़ास महत्त्वाकांक्षा के बारे में लिखा गया हो। बेहद पठनीय…
– लता शर्मा
ये आम रास्ता नहीं उपन्यास पर सुधी साहित्यकारों की सम्पतियाँ
स्त्रियों के लिए अब तक ग़ैर-पारम्परिक रहे राजनीति के क्षेत्र में उन्हें घर और बाहर की दुनिया में कितने प्रकार के विरोध और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, इसका प्रभावी और विशद वर्णन रजनी गुप्त ने ये ‘आम रास्ता नहीं’ में किया है। -शिवमूर्ति
तृणमूल स्तर की राजनीति के बीहड़ क़िस्म के क़दम-क़दम पर वितृष्णा उपजाने वाली गलीज पृष्ठभूमि पर हिन्दी में कम ही उपन्यास हैं विशेषतः सत्ता के खेल में शामिल होने को उत्सुक और महत्त्वाकांक्षी महिला नेत्रियों के विकट और दिल दहलाऊ संघर्ष पर केन्द्रित कथाओं का अकाल-सा नज़र आता है। कथाकार रजनी गुप्त देश के सबसे बहुल प्रदेश की राजधानी में बरसों से विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं की भागीदारी को लेकर किये जा रहे ढोंग और सशक्तीकरण की आड़ में होने वाले अमानवीय और गर्हित शोषण को अपनी पैनी निगाह से देखती रही हैं। तीखे तेवरों के साथ कही गयी इस विलक्षण कृति में उन्होंने लोकतान्त्रिक व्यवस्था के परदे के पीछे वाले यथार्थ को बेबाकी से और निर्ममतापूर्वक उद्घाटित करके पाठकों को एक नितान्त अछूते कथा क्षेत्र में प्रवेश कराया है। ऐसी साहसिक और परिवर्तनकामी रचनाएँ हमें जगाती हैं और दृष्टि प्रदान करती हैं। -राजेन्द्र राव
इस उपन्यास में स्त्री के घर-बाहर की जटिलताएँ, विरुद्ध अमानुषिक स्थितियों और यातनाओं की गहरी लिखावटें मौजूद हैं। स्त्री के लिए अपनी अस्मितामूलक सामाजिक सक्रियता का बृहत्तर क्षेत्र चुनना, आज कहीं ज़्यादा बेहद जोख़िम भरा है। विडम्बना यह है कि उसकी ऐसी आकांक्षाएँ बदनाम महत्त्वाकांक्षाओं के रूप में देखी जाती हैं। इस उपन्यास में स्त्री अस्मिता रूमानी भाववादी गढ़न से बाहर निकलती है। स्त्री के सामाजिक पार्थक्य और दमन की सच्चाइयाँ अपनी गहराइयों समेत इस उपन्यास में दर्ज हैं। स्त्री के संघर्ष के एक बेहद चुनौती भरे क्षेत्र की सच्चाइयों को रजनी गुप्त ने सृजनात्मकता की परवाह करते हुए विकसित किया है। बेशक यह एक नया स्त्री क्षेत्र है जिसमें स्त्री सशक्तता की रूढ़ियों को सचेत ढंग से तोड़ा गया है। -चन्द्रकला त्रिपाठी
रजनी गुप्त का लेखन हिन्दी पाठक के लिए हर बार एक नये अनुभव प्रदेश का द्वार खोलता है। नये विषय के कोने-अन्तरों की पड़ताल का रचनात्मक साहस, उनकी अनूठी कलात्मक शैली के साथ घुल कर उपन्यास को आत्मीय, जीवन्त तथा शक्तिसम्पन्न बना देता है। यह उपन्यास राजनीति को अपना कर्म क्षेत्र चुनने वाली स्त्री की जोखिम भरी साहसिक संघर्ष यात्रा का दमकता हुआ दस्तावेज़ है। यहाँ कथ्य का संवेदनात्मक आवेग, वैचारिक गुरुत्व का सन्तुलन साधे हुए है और भाषा के क्या कहने! संवेदना के गहरे, तरल रेशों से बुनी प्रवहमान। – अल्पना मिश्र
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