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Abhi, Bilkul Abhi (HB)
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बिकल मन/ठहरो/हम उपेक्षा नहीं करते/किसी की आवाज़ की/और फिर वह/गली/सागर पार/निर्जन, कहीं से भी आए!’
केदार जी सबकी आवाज़ सुनते हैं। प्रकृति का कण-कण। घर का कोना-कोना, मन का रेशा-रेशा; जहाँ भी स्पन्दन है, केदार जी की कविता अपनी पूरी संवेदना के साथ वहाँ पहुँच जाती है। हर स्वर की प्रतिध्वनि को व्यक्त करने को उनके शब्दों का रोम-रोम खुला है। खुलते दिन, उतरती साँझें, गहराती रातें—सभी बिम्ब यहाँ उपस्थित हैं और साथ में है रचने को कवि के आतुर हाथ…
‘खोल दूँ यह आज का दिन/जिसे/मेरी देहरी के पास कोई रख गया है/एक हल्दी रँगे/दूरदेशी पत्र-सा…इस सम्पुटित दिन के सुनहले पत्र को/जो द्वार पर गुमसुम पड़ा है/खोल दूँ।’
प्रकृति केदार जी की कविताओं का विषय नहीं, उनकी सहचरी है। वे प्रकृति को देखते भी हैं, उससे उजास भी लेते हैं और उसकी पुनर्रचना भी करते हैं। इसी तरह लोक और उसमें रचा-बसा घर, और घर में बुने हुए रिश्ते—इन सबकी इयत्ता उनके शब्दों के साथ-साथ चलती है, उनसे अपना नया रूप पाती है, एक नई परिभाषा जो हमें नए सिरे से जीने का भरोसा और उम्मीद देती है। घर के रूप में एक ख़ाली कमरा भी उन्हें अपनी पूरी भयावहता में अन्तत: एक सकारात्मक बिन्दु दिखाई देता है जहाँ से वे और हम अपनी नई यात्रा शुरू कर सकते हैं…
‘आज भी खड़ा है वह/…मेरी प्रतीक्षा में/बड़े-बड़े डैनों वाला कमरे का दानव…उसे सब ज्ञात है/…इसीलिए कभी कुछ पूछता नहीं है/जब बाहर से आता हूँ/चुपके से क्षत-विक्षत डैने उठाकर/मुझे जगह दे देता है/मानो कहता हो : अब बहुत थक गए हो तुम/योद्धा, विश्राम करो!’
बिकल मन/ठहरो/हम उपेक्षा नहीं करते/किसी की आवाज़ की/और फिर वह/गली/सागर पार/निर्जन, कहीं से भी आए!’
केदार जी सबकी आवाज़ सुनते हैं। प्रकृति का कण-कण। घर का कोना-कोना, मन का रेशा-रेशा; जहाँ भी स्पन्दन है, केदार जी की कविता अपनी पूरी संवेदना के साथ वहाँ पहुँच जाती है। हर स्वर की प्रतिध्वनि को व्यक्त करने को उनके शब्दों का रोम-रोम खुला है। खुलते दिन, उतरती साँझें, गहराती रातें—सभी बिम्ब यहाँ उपस्थित हैं और साथ में है रचने को कवि के आतुर हाथ…
‘खोल दूँ यह आज का दिन/जिसे/मेरी देहरी के पास कोई रख गया है/एक हल्दी रँगे/दूरदेशी पत्र-सा…इस सम्पुटित दिन के सुनहले पत्र को/जो द्वार पर गुमसुम पड़ा है/खोल दूँ।’
प्रकृति केदार जी की कविताओं का विषय नहीं, उनकी सहचरी है। वे प्रकृति को देखते भी हैं, उससे उजास भी लेते हैं और उसकी पुनर्रचना भी करते हैं। इसी तरह लोक और उसमें रचा-बसा घर, और घर में बुने हुए रिश्ते—इन सबकी इयत्ता उनके शब्दों के साथ-साथ चलती है, उनसे अपना नया रूप पाती है, एक नई परिभाषा जो हमें नए सिरे से जीने का भरोसा और उम्मीद देती है। घर के रूप में एक ख़ाली कमरा भी उन्हें अपनी पूरी भयावहता में अन्तत: एक सकारात्मक बिन्दु दिखाई देता है जहाँ से वे और हम अपनी नई यात्रा शुरू कर सकते हैं…
‘आज भी खड़ा है वह/…मेरी प्रतीक्षा में/बड़े-बड़े डैनों वाला कमरे का दानव…उसे सब ज्ञात है/…इसीलिए कभी कुछ पूछता नहीं है/जब बाहर से आता हूँ/चुपके से क्षत-विक्षत डैने उठाकर/मुझे जगह दे देता है/मानो कहता हो : अब बहुत थक गए हो तुम/योद्धा, विश्राम करो!’
About Author
केदारनाथ सिंह
केदारनाथ सिंह का जन्म सन् 1934 में बलिया, उत्तर प्रदेश के चकिया गाँव में हुआ। ‘आधुनिक हिन्दी कविता में बिम्बविधान’ विषय पर सन् 1964 में पीएच.डी.।
सन् 1976 से 1999 तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र में अध्यापन।
प्रकाशित कृतियाँ : ‘अभी, बिलकुल अभी’, ‘ज़मीन पक रही है’, ‘यहाँ से देखो’, ‘अकाल में सारस’, ‘उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ’, ‘तालस्ताय और साइकिल’, ‘बाघ’, ‘सृष्टि पर पहरा’, ‘मतदान केन्द्र पर झपकी’, ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ (काव्य-संग्रह)। ‘कल्पना और छायावाद’, ‘आधुनिक हिन्दी कविता में बिम्बविधान’, ‘मेरे समय के शब्द’, ‘क़ब्रिस्तान में पंचायत’ (गद्य-कृतियाँ) तथा ‘मेरे साक्षात्कार’ (संवाद)।
प्रमुख सम्मान : ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘व्यास सम्मान’, ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (मध्य प्रदेश), ‘कुमारन आशान पुरस्कार’ (केरल), ‘दिनकर पुरस्कार’ (बिहार), ‘जीवन भारती सम्मान’, ‘भारत भारती सम्मान’, ‘गंगाधर मेहर राष्ट्रीय कविता सम्मान’ (उड़ीसा), ‘जाशुआ सम्मान’ (आन्ध्र प्रदेश) आदि।
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