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Dalit Sahitya Ka Saundaryashastra (HB)
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वर्ण-व्यवस्था के अमानवीय बन्धनों ने शताब्दियों से दलितों के भीतर हीनता भाव को पुख़्ता किया है। धर्म और संस्कृति की आड़ में साहित्य ने भी इस भावना की नींव सुदृढ़ की है। ऐसे सौन्दर्यशास्त्र का निर्माण किया गया जो अपनी सोच और स्थापनाओं में दलित विरोधी है और समाज के अनिवार्य अन्तर्सम्बन्धों को खंडित करने वाला भी। जनवादी, प्रगतिशील और जनतांत्रिक साहित्य द्वारा भारत में जन्मना जाति के सन्दर्भ में केवल वर्ग की ही बातें करने से उपजी एकांगी दृष्टि के विपरीत दलित साहित्य सामाजिक समानता और राजनीतिक भागीदारी को भी साहित्य का विषय बनाकर आर्थिक समानता की मुहिम को पूरा करता है—ऐसी समानता जिसके बग़ैर मनुष्य पूर्ण समानता नहीं पा सकता। दलित चिन्तन के नए आयाम का यह विस्तार साहित्य की मूल भावना का ही विस्तार है जो पारम्परिक और स्थापित साहित्य को आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य करता है और झूठी और अतार्किक मान्यताओं का विरोध। अपने पूर्व साहित्यकारों के प्रति आस्थावान रहकर नहीं, बल्कि आलोचनात्मक दृष्टि रखकर दलित साहित्यकारों ने नई जद्दोजहद शुरू की है, जिससे जड़ता टूटी है और साहित्य आधुनिकता और समकालीनता की ओर अग्रसर हुआ है।
यह पुस्तक दलित साहित्यान्दोलन की एक बड़ी कमी को पूरा करती हुई दलित-रचनात्मकता की कुछ मूलभूत आस्थाओं और प्रस्थान बिन्दुओं की खोज भी करती है, और साहित्य के स्थापित तथा वर्चस्वशाली गढ़ों को उन आस्थाओं के बल पर चुनौती भी देती है।
वर्ण-व्यवस्था के अमानवीय बन्धनों ने शताब्दियों से दलितों के भीतर हीनता भाव को पुख़्ता किया है। धर्म और संस्कृति की आड़ में साहित्य ने भी इस भावना की नींव सुदृढ़ की है। ऐसे सौन्दर्यशास्त्र का निर्माण किया गया जो अपनी सोच और स्थापनाओं में दलित विरोधी है और समाज के अनिवार्य अन्तर्सम्बन्धों को खंडित करने वाला भी। जनवादी, प्रगतिशील और जनतांत्रिक साहित्य द्वारा भारत में जन्मना जाति के सन्दर्भ में केवल वर्ग की ही बातें करने से उपजी एकांगी दृष्टि के विपरीत दलित साहित्य सामाजिक समानता और राजनीतिक भागीदारी को भी साहित्य का विषय बनाकर आर्थिक समानता की मुहिम को पूरा करता है—ऐसी समानता जिसके बग़ैर मनुष्य पूर्ण समानता नहीं पा सकता। दलित चिन्तन के नए आयाम का यह विस्तार साहित्य की मूल भावना का ही विस्तार है जो पारम्परिक और स्थापित साहित्य को आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य करता है और झूठी और अतार्किक मान्यताओं का विरोध। अपने पूर्व साहित्यकारों के प्रति आस्थावान रहकर नहीं, बल्कि आलोचनात्मक दृष्टि रखकर दलित साहित्यकारों ने नई जद्दोजहद शुरू की है, जिससे जड़ता टूटी है और साहित्य आधुनिकता और समकालीनता की ओर अग्रसर हुआ है।
यह पुस्तक दलित साहित्यान्दोलन की एक बड़ी कमी को पूरा करती हुई दलित-रचनात्मकता की कुछ मूलभूत आस्थाओं और प्रस्थान बिन्दुओं की खोज भी करती है, और साहित्य के स्थापित तथा वर्चस्वशाली गढ़ों को उन आस्थाओं के बल पर चुनौती भी देती है।
About Author
ओमप्रकाश वाल्मीकि
जन्म : 30 जून, 1950; बरला, जिला—मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी साहित्य)।
प्रकाशित कृतियाँ : ‘सदियों का संताप’, ‘बस्स! बहुत हो चुका’, ‘अब और नहीं’, ‘शब्द झूठ नहीं बोलते’, ‘चयनित कविताएँ’ (कविता संग्रह); ‘जूठन’ (आत्मकथा) अँग्रेज़ी, जर्मन, स्वीडिश, पंजाबी, तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलगू में अनूदित एवं प्रकाशित; ‘सलाम’, ‘घुसपैठिए’ ‘अम्मा एंड अदर स्टोरीज’, ‘छतरी’ (कहानी-संग्रह); ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’, ‘मुख्यधारा और दलित साहित्य’, ‘दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष और यथार्थ’ (आलोचना); ‘सफाई देवता’ (सामाजिक अध्ययन)।
अनुवाद : ‘सायरन का शहर’ (अरुण काले) कविता-संग्रह का मराठी से हिन्दी में अनुवाद, ‘मैं हिन्दू क्यों नहीं’ (कांचा एलैया) का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद, ‘लोकनाथ यशवन्त’ की अनेक मराठी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद।
अन्य : लगभग 60 नाटकों में अभिनय एवं निर्देशन, विभिन्न नाट्य-दलों द्वारा ‘दो चेहरे’ का मंचन, ‘जूठन’ के नाट्य-रूपान्तरण का कई नगरों में मंचन; अनेक राष्ट्रीय सेमिनारों में हिस्सेदारी, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ में पुनश्चर्या पाठ्यक्रम में कई व्याख्यान, कई विश्वविद्यालयों, पाठ्यक्रमों में रचनाएँ शामिल, प्रथम हिन्दी दलित साहित्य सम्मेलन, 1993, नागपुर के अध्यक्ष, 28वें अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन, 2008, चन्द्रपुर, महाराष्ट्र के अध्यक्ष, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला सोसाइटी के सदस्य।
सम्मान : ‘डॉ. अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार’, (1993); ‘परिवेश सम्मान’, (1995); ‘जयश्री सम्मान’, (1996); ‘कथाक्रम सम्मान’ (2001); ‘न्यू इंडिया बुक पुरस्कार’, (2004); ‘साहित्य भूषण सम्मान’, (2006); 8वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन, (2007), न्यूयॉर्क, ‘अमेरिका सम्मान’, ‘उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का सम्मान’।
निधन : 17 नवम्बर, 2013
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