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Aacharya Ramchandra Shukla Aur Hindi Aalochana (HB)
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डॉ. रामविलास शर्मा हिन्दी के उन गिने-चुने आलोचकों में हैं जिन्होंने साहित्य का मूल्यांकन एक सुनिश्चित जनवादी दृष्टिकोण के आधार पर किया है। बहुत स्पष्ट, सुलझे हुए विचारों के सहारे अपने विश्लेषण में वे कहीं भी भटकते नहीं हैं और आदि से अन्त तक तटस्थता को अपने हाथ से नहीं जाने देते। इसीलिए चाहे उनके सबसे प्रिय कवि निराला हों या आदर्श आलोचक रामचन्द्र शुक्ल, जहाँ भी उन्हें कोई दोष दिखाई दिया है, उसकी दो-टूक आलोचना करने से वे नहीं चूके हैं।
प्रस्तुत कृति रामविलास जी द्वारा की गई आलोचना की आलोचना है, और इसलिए कुछ लोगों के विचार से यह केवल एक छात्रोपयोगी चीज़ है; लेकिन स्वयं रामविलास जी के शब्दों में, ‘‘शुक्लजी ने न तो भारत के रूढ़िवाद को स्वीकार किया, न पच्छिम के व्यक्तिवाद को। उन्होंने बाह्य-जगत् और मानव-जीवन की वास्तविकता के आधार पर नए साहित्य-सिद्धांतों की स्थापना की और उनके आधार पर सामन्ती साहित्य का विरोध किया और देशभक्ति और जनतंत्र की साहित्यिक परम्परा का समर्थन किया। उनका यह कार्य हर देश-प्रेमी और जनवादी लेखक तथा पाठक के लिए दिलचस्प होना चाहिए। शुक्ल जी पर पुस्तक लिखने का यही कारण है।’’
एक लम्बे अन्तराल के बाद इस महत्त्वपूर्ण आलोचना-कृति का यह संशोधित-परिवर्धित संस्करण शुक्लजी के अध्ययन के लिए एक नई दृष्टि देता है, जिससे स्पष्ट हो सकेगा कि ‘शुक्लजी अपने युग के हिन्दी-अहिन्दी विचारकों से कितना आगे थे और उनकी विचारधारा कितनी वैज्ञानिक है।’
डॉ. रामविलास शर्मा हिन्दी के उन गिने-चुने आलोचकों में हैं जिन्होंने साहित्य का मूल्यांकन एक सुनिश्चित जनवादी दृष्टिकोण के आधार पर किया है। बहुत स्पष्ट, सुलझे हुए विचारों के सहारे अपने विश्लेषण में वे कहीं भी भटकते नहीं हैं और आदि से अन्त तक तटस्थता को अपने हाथ से नहीं जाने देते। इसीलिए चाहे उनके सबसे प्रिय कवि निराला हों या आदर्श आलोचक रामचन्द्र शुक्ल, जहाँ भी उन्हें कोई दोष दिखाई दिया है, उसकी दो-टूक आलोचना करने से वे नहीं चूके हैं।
प्रस्तुत कृति रामविलास जी द्वारा की गई आलोचना की आलोचना है, और इसलिए कुछ लोगों के विचार से यह केवल एक छात्रोपयोगी चीज़ है; लेकिन स्वयं रामविलास जी के शब्दों में, ‘‘शुक्लजी ने न तो भारत के रूढ़िवाद को स्वीकार किया, न पच्छिम के व्यक्तिवाद को। उन्होंने बाह्य-जगत् और मानव-जीवन की वास्तविकता के आधार पर नए साहित्य-सिद्धांतों की स्थापना की और उनके आधार पर सामन्ती साहित्य का विरोध किया और देशभक्ति और जनतंत्र की साहित्यिक परम्परा का समर्थन किया। उनका यह कार्य हर देश-प्रेमी और जनवादी लेखक तथा पाठक के लिए दिलचस्प होना चाहिए। शुक्ल जी पर पुस्तक लिखने का यही कारण है।’’
एक लम्बे अन्तराल के बाद इस महत्त्वपूर्ण आलोचना-कृति का यह संशोधित-परिवर्धित संस्करण शुक्लजी के अध्ययन के लिए एक नई दृष्टि देता है, जिससे स्पष्ट हो सकेगा कि ‘शुक्लजी अपने युग के हिन्दी-अहिन्दी विचारकों से कितना आगे थे और उनकी विचारधारा कितनी वैज्ञानिक है।’
About Author
रामविलास शर्मा
जन्म : 10 अक्टूबर, 1912; ग्राम—ऊँचगाँव सानी, ज़िला—उन्नाव (उत्तर प्रदेश)।
शिक्षा : 1932 में बी.ए., 1934 में एम.ए. (अंग्रेज़ी), 1938 में पीएच.डी. (लखनऊ विश्वविद्यालय)।
लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में पाँच वर्ष तक अध्यापन-कार्य किया। सन् 1943 से 1971 तक आगरा के बलवन्त राजपूत कॉलेज में अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष रहे। बाद में आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति के अनुरोध पर के.एम. हिन्दी संस्थान के निदेशक का कार्यभार स्वीकार किया और 1974 में अवकाश लिया।
सन् 1949 से 1953 तक रामविलासजी अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री रहे।
देशभक्ति तथा मार्क्सवादी चेतना रामविलास जी की आलोचना का केन्द्र-बिन्दु हैं। उनकी लेखनी से वाल्मीकि तथा कालिदास से लेकर मुक्तिबोध तक की रचनाओं का मूल्यांकन प्रगतिवादी चेतना के आधार पर हुआ। उन्हें न केवल प्रगति-विरोधी हिन्दी-आलोचना की कला एवं साहित्य-विषयक भ्रान्तियों के निवारण का श्रेय है, वरन् स्वयं प्रगतिवादी आलोचना द्वारा उत्पन्न अन्तर्विरोधों के उन्मूलन का गौरव भी प्राप्त है।
सम्मान : ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ तथा हिन्दी अकादेमी, दिल्ली का ‘शताब्दी सम्मान’।
निधन : 30 मई, 2000
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