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Yathaprasang (HB)
Publisher:
Rajkamal
| Author:
Namvar Singh, Ed. Aashish Tripathi
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Rajkamal
Author:
Namvar Singh, Ed. Aashish Tripathi
Language:
Hindi
Format:
Hardback
₹995 ₹796
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9789394902312
Category Hindi
Category: Hindi
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हिन्दी क्षेत्र में फासीवाद इसलिए ताकतवर हो सका है, क्योंकि शिक्षित लोग सुपढ़ होने के बजाय कुपढ़ हुए हैं। उन्होंने परम्परा, संस्कृति, धर्म, आधुनिकता, ज्ञान-विज्ञान—सबकी अतार्किक और अतिरेकी सम्प्रदायवादी-फासीवादी व्याख्याओं पर भरोसा किया है। इसलिए शिक्षित लोगों के पास जाना और उनसे बात करना जरूरी है। उनके बीच जाकर धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, प्रगतिशील और जनवादी विचारों को पहुँचाना जरूरी है। उनके दिमागों में छाए हुए वैचारिक जालों को साफ करना जरूरी है। इस बात की जरूरत को प्रगतिशील आन्दोलन और नामवर जी बहुत गम्भीरता से समझते थे। इसीलिए अपने हजारों व्याख्यानों के माध्यम से नामवर जी ने प्रगतिशील नवजागरण को आगे बढ़ाया। कहना न होगा कि नामवर सिंह आधुनिक हिन्दी के सबसे बड़े संवादी हैं। जिस अर्थ में महात्मा गांधी आधुनिक भारत के। वाद-विवाद संवाद को अनिवार्य मानते हुए संवाद के प्रत्येक रूप के लिए प्रस्तुत। संवादी आलोचक। साहित्य-समाज में छिड़ी चर्चाओं में अपनी मान्यताओं और तर्कों के साथ उपस्थित होकर उनमें अपने ढंग से हस्तक्षेप करना उन्हें जरूरी लगता था। रुचिकर भी।
वाद-विवाद संवाद की इस प्रक्रिया में नामवर जी ने साहित्यिक और साहित्येतर विषयों, व्यक्तियों और प्रकरणों पर अपने विचार विस्तार से व्यक्त किये। कहना न होगा कि इस प्रक्रिया में वे साहित्यिक आलोचक की सीमित परिधि से बाहर निकलकर हिन्दी समाज में एक विचारक के तौर पर उभरे।
यह मुख्यतः नामवर जी के व्याख्यानों का संकलन है, कुछ महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार भी इसमें शामिल हैं। इस पुस्तक में संकलित सामग्री से गुजरते हुए आप नामवर जी की प्रतिभा के विविध आयामों से संवाद कर सकेंगे।
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Description
हिन्दी क्षेत्र में फासीवाद इसलिए ताकतवर हो सका है, क्योंकि शिक्षित लोग सुपढ़ होने के बजाय कुपढ़ हुए हैं। उन्होंने परम्परा, संस्कृति, धर्म, आधुनिकता, ज्ञान-विज्ञान—सबकी अतार्किक और अतिरेकी सम्प्रदायवादी-फासीवादी व्याख्याओं पर भरोसा किया है। इसलिए शिक्षित लोगों के पास जाना और उनसे बात करना जरूरी है। उनके बीच जाकर धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, प्रगतिशील और जनवादी विचारों को पहुँचाना जरूरी है। उनके दिमागों में छाए हुए वैचारिक जालों को साफ करना जरूरी है। इस बात की जरूरत को प्रगतिशील आन्दोलन और नामवर जी बहुत गम्भीरता से समझते थे। इसीलिए अपने हजारों व्याख्यानों के माध्यम से नामवर जी ने प्रगतिशील नवजागरण को आगे बढ़ाया। कहना न होगा कि नामवर सिंह आधुनिक हिन्दी के सबसे बड़े संवादी हैं। जिस अर्थ में महात्मा गांधी आधुनिक भारत के। वाद-विवाद संवाद को अनिवार्य मानते हुए संवाद के प्रत्येक रूप के लिए प्रस्तुत। संवादी आलोचक। साहित्य-समाज में छिड़ी चर्चाओं में अपनी मान्यताओं और तर्कों के साथ उपस्थित होकर उनमें अपने ढंग से हस्तक्षेप करना उन्हें जरूरी लगता था। रुचिकर भी।
वाद-विवाद संवाद की इस प्रक्रिया में नामवर जी ने साहित्यिक और साहित्येतर विषयों, व्यक्तियों और प्रकरणों पर अपने विचार विस्तार से व्यक्त किये। कहना न होगा कि इस प्रक्रिया में वे साहित्यिक आलोचक की सीमित परिधि से बाहर निकलकर हिन्दी समाज में एक विचारक के तौर पर उभरे।
यह मुख्यतः नामवर जी के व्याख्यानों का संकलन है, कुछ महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार भी इसमें शामिल हैं। इस पुस्तक में संकलित सामग्री से गुजरते हुए आप नामवर जी की प्रतिभा के विविध आयामों से संवाद कर सकेंगे।
About Author
नामवर सिंह
जन्म-तिथि : 28 जुलाई, 1926; जन्म-स्थान : बनारस ज़िले का जीयनपुर नामक गाँव। प्राथमिक शिक्षा बग़ल के गाँव आवाजापुर में। कमालपुर से मिडिल। बनारस के हीवेट क्षत्रिय स्कूल से मैट्रिक और उदयप्रताप कॉलेज से इंटरमीडिएट। 1941 में कविता से लेखक जीवन की शुरुआत। पहली कविता उसी साल ‘क्षत्रियमित्र’ पत्रिका (बनारस) में प्रकाशित। 1949 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.ए. और 1951 में वहीं से हिन्दी में एम.ए.। 1953 में उसी विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में अस्थायी पद पर नियुक्ति। 1956 में पीएच.डी. (‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’)। 1959 में चकिया चन्दौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार। चुनाव में असफलता के साथ विश्वविद्यालय से मुक्त। 1959-60 में सागर विश्वविद्यालय (म.प्र.) के हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर। 1960 से 1965 तक बनारस में रहकर स्वतंत्र लेखन। 1965 में ‘जनयुग’ साप्ताहिक के सम्पादक के रूप में दिल्ली में। इस दौरान दो वर्षों तक राजकमल प्रकाशन (दिल्ली) के साहित्यिक सलाहकार। 1967 से ‘आलोचना’ त्रैमासिक का सम्पादन। 1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय (राजस्थान) के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष-पद पर प्रोफ़ेसर के रूप में नियुक्त। 1971 में कविता के नए प्रतिमान पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार। 1974 में थोड़े समय के लिए क.मा.मुं. हिन्दी विद्यापीठ, आगरा के निदेशक। उसी वर्ष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (दिल्ली) के भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी के प्रोफ़ेसर के रूप में योगदान। 1987 में वहीं से सेवा-मुक्त। अगले पाँच वर्षों के लिए वहीं पुनर्नियुक्ति। 1993 से 1996 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष। आलोचना त्रैमासिक के प्रधान सम्पादक। महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलाधिपति रहे। वे ‘आलोचना’ त्रैमासिक के प्रधान सम्पादक भी रहे।
प्रमुख कृतियाँ : बकलम ख़ुद, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, कहानी : नई कहानी, कविता के नए प्रतिमान, दूसरी परम्परा की खोज, वाद विवाद संवाद, आलोचक के मुख से, हिन्दी का गद्यपर्व, ज़माने से दो दो हाथ, कविता की ज़मीन ज़मीन की कविता, प्रेमचन्द और भारतीय समाज (आलोचना); कहना न होगा (साक्षात्कार); काशी के नाम (पत्र) आदि।
रामचन्द्र शुक्ल रचनावली सहित अनेक पुस्तकों का सम्पादन।
निधन : 19 फरवरी, 2019
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