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Ummid Hogi Koi (PB)
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गुजराती अस्मिता और गौरव को मैं हिन्दू गुजराती मानस से जोड़ रहा हूँ। यह उस तरह की क्षेत्रीय चेतना या राष्ट्रवाद नहीं है जिससे हम देश के विभिन्न हिस्सों में परिचित हैं। यह विशुद्ध हिन्दू चेतना है। गुजराती हिन्दू चेतना। इसमें गुजरात के मुसलमान या ईसाई गुजराती होकर भी अपने नहीं हैं, पराए हैं।
इसी गुजरात में रचना जैसे भी लोग हैं। रचना माने सरूप ध्रुव। प्रख्यात कवि, रंगकर्मी, एक्टिविस्ट। हिन्दू, गुजराती औरत और इनसान! सभी रूपों में गुजरात 2002 से आहत। कुछ वैसी ही मन:स्थिति में, जिसमें बँटवारे से पहले ही फूट पड़ी साम्प्रदायिक हिंसा से बौराए गांधी ने क्षुब्ध होकर कहा था—“बिहार में हमने औरतों के साथ क्या नहीं किया। हिन्दुओं ने किया यानी मैंने किया। यह शर्मिन्दा होने की बात है।”
लगभग 40-45 गाँवों–क़स्बों और शहरों में जाकर सरूप बहन ने विभिन्न वर्गों के पीड़ित मुसलमानों से उनकी आपबीती सुनी। वह राहत शिविरों में गईं, नई बसाहटों में गईं और उन इलाक़ों में भी गईं जहाँ मुसलमान अपने पुराने घरों में या वहीं आस-पास बना दिए गए घरों में लौट आए हैं। हर उम्र के आदमियों और औरतों से मिलने के साथ-साथ वह बच्चों से भी मिलीं। ऐसे हिन्दू और सवर्ण हिन्दू आदमी-औरतों से भी उन्होंने बातें कीं, जिन्होंने जोखिम उठाकर मुसलमानों को पनाह दी और उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने की भरसक कोशिश की।
आँख-कान कितने ही सतर्क हों, बग़ैर खुले दिमाग़ के ऐसी जटिल स्थिति समझना क़तई मुमकिन नहीं। एक एक्टिविस्ट के रूप में सरूप ध्रुव के जो भी सैद्धान्तिक आग्रह हों, उम्मीद की इन कहानियों में उन्होंने असामान्य वैचारिक-भावनात्मक खुलापन दिखाया है।
—सुधीर चन्द्र
गुजराती अस्मिता और गौरव को मैं हिन्दू गुजराती मानस से जोड़ रहा हूँ। यह उस तरह की क्षेत्रीय चेतना या राष्ट्रवाद नहीं है जिससे हम देश के विभिन्न हिस्सों में परिचित हैं। यह विशुद्ध हिन्दू चेतना है। गुजराती हिन्दू चेतना। इसमें गुजरात के मुसलमान या ईसाई गुजराती होकर भी अपने नहीं हैं, पराए हैं।
इसी गुजरात में रचना जैसे भी लोग हैं। रचना माने सरूप ध्रुव। प्रख्यात कवि, रंगकर्मी, एक्टिविस्ट। हिन्दू, गुजराती औरत और इनसान! सभी रूपों में गुजरात 2002 से आहत। कुछ वैसी ही मन:स्थिति में, जिसमें बँटवारे से पहले ही फूट पड़ी साम्प्रदायिक हिंसा से बौराए गांधी ने क्षुब्ध होकर कहा था—“बिहार में हमने औरतों के साथ क्या नहीं किया। हिन्दुओं ने किया यानी मैंने किया। यह शर्मिन्दा होने की बात है।”
लगभग 40-45 गाँवों–क़स्बों और शहरों में जाकर सरूप बहन ने विभिन्न वर्गों के पीड़ित मुसलमानों से उनकी आपबीती सुनी। वह राहत शिविरों में गईं, नई बसाहटों में गईं और उन इलाक़ों में भी गईं जहाँ मुसलमान अपने पुराने घरों में या वहीं आस-पास बना दिए गए घरों में लौट आए हैं। हर उम्र के आदमियों और औरतों से मिलने के साथ-साथ वह बच्चों से भी मिलीं। ऐसे हिन्दू और सवर्ण हिन्दू आदमी-औरतों से भी उन्होंने बातें कीं, जिन्होंने जोखिम उठाकर मुसलमानों को पनाह दी और उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने की भरसक कोशिश की।
आँख-कान कितने ही सतर्क हों, बग़ैर खुले दिमाग़ के ऐसी जटिल स्थिति समझना क़तई मुमकिन नहीं। एक एक्टिविस्ट के रूप में सरूप ध्रुव के जो भी सैद्धान्तिक आग्रह हों, उम्मीद की इन कहानियों में उन्होंने असामान्य वैचारिक-भावनात्मक खुलापन दिखाया है।
—सुधीर चन्द्र
About Author
सरूप ध्रुव
जन्म : 1948; अहमदाबाद में।
शिक्षा : सेंट ज़ेवियर्स, अहमदाबाद से स्नातक; गुजरात विश्वविद्यालय से भाषाविज्ञान और गुजराती में अनुस्नातक; गुजरात विद्यापीठ से पीएच.डी.; लोकवार्ता में मोटीफ़ का अध्ययन।
स्वतंत्र लेखिका, संस्कृतिकर्मी और कवयित्री।
प्रमुख कृतियाँ : ‘मारा हाथ नी वात’ (मेरे हाथ की बात), ‘सळगती हवाओ’ (सुलगती हवाएँ) (दोनों संग्रह गुजराती साहित्य परिषद द्वारा पुरस्कृत), ‘सहियारा सूरज नी खोज माँ’ (साझे सूरज की खोज में), ‘हस्तक्षेप’, ‘उम्मीद होगी कोई’।
शोध एवं आलोचना : ‘सर्जक चेतना : प्रश्नो अने पड़कार’, ‘हीरनो हींचको’ (रेशमी झूला)—गुजराती लोकगीतों का विश्लेषण।
नाटक : संवेदन सांस्कृतिक मंच से 1983 से जुड़ाव है। कई नुक्कड़-नाटक और मंचीय नाटकों का लेखन किया है, जैसे—‘राजपरिवर्तन’ (मृच्छकटिकम् का नवसंस्करण) (गुजराती); ‘मारीच-संवाद’ (बांग्ला नाटक का रूपान्तरण) (गुजराती); ‘सुनो! नदी क्या कहती है’ (हिन्दी); ‘घर’ (हिन्दी); ‘मेगासिटी में मच गया शोर’ (गुजराती-हिन्दी); ‘ताणो वाणो’ (ताना-बाना) (गुजराती); ‘ऐसा क्यों?’ (हिन्दी); ‘हम’ (हिन्दी); ‘घिरे हैं हम सवाल से’ (हिन्दी)। (सभी नाटक अप्रकाशित पर मंचित हैं)।
सम्मान : 2008 में ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ की ओर से ‘हेलमेन-हेम्मिट एवॉर्ड फ़ॉर करेजियस राइटिंग’ से सम्मानित।
ई-मेल : saroop_dhruv@yahoo.co.in
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