सम्पूर्ण कहानियाँ । Sampurna Kahaniyan : Usha Priyamvada (HB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
Usha Priyamvada
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback

796

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उषा प्रियम्वदा की कहानियाँ जीवन के सहज विडम्बनाबोध की कहानियाँ हैं। घने कुहासे की तरह त्रास जब पाठक को अपने आगोश में लेता है तो सुध-बुध खोता पाठक ख़ुद को छोड़ देता है, उसकी धीमी लय पर डूबने-उतराने को। और, जब कहानी समाप्त होती है तो पाठक ख़ुद को एक सन्नाटे में पाता है—जहाँ दुनिया-जहान की तल्ख़ सच्चाइयाँ उसे कुरेद रही होती हैं; वह प्रश्नाकुल व बेचैन हो उठता है कि आख़िर ऐसा क्यों है—यह दुनिया ऐसी क्यों है?
यह सन्नाटा है जो बोलता है और डोलता भी है और अपने साथ डुलाता भी है पाठक को। फिर वह एक संशयात्मा की तरह जीवन स्थितियों को मुड़-मुडक़र देखने को बाध्य हो जाता है।
ऐसे समय में जब रचना के लिए भी विमर्श के कई ख़ाने बना दिए गए हैं, उषा प्रियम्वदा की कहानियाँ जीवन को उसकी समग्रता में लेती हैं। इन कहानियों की त्रासदी को स्त्री-पुरुष के ख़ानों में नहीं बाँटा जा सकता है। ये मनुष्यता की त्रासदी को प्रतिबिम्बित करती कहानियाँ हैं।
रघुवीर सहाय ने कभी कहा था—जब मैं कविता पढ़कर उठूँ तो सन्नाटा छा जाए। उषा जी की कहानियों की बाबत भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है।

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Description

उषा प्रियम्वदा की कहानियाँ जीवन के सहज विडम्बनाबोध की कहानियाँ हैं। घने कुहासे की तरह त्रास जब पाठक को अपने आगोश में लेता है तो सुध-बुध खोता पाठक ख़ुद को छोड़ देता है, उसकी धीमी लय पर डूबने-उतराने को। और, जब कहानी समाप्त होती है तो पाठक ख़ुद को एक सन्नाटे में पाता है—जहाँ दुनिया-जहान की तल्ख़ सच्चाइयाँ उसे कुरेद रही होती हैं; वह प्रश्नाकुल व बेचैन हो उठता है कि आख़िर ऐसा क्यों है—यह दुनिया ऐसी क्यों है?
यह सन्नाटा है जो बोलता है और डोलता भी है और अपने साथ डुलाता भी है पाठक को। फिर वह एक संशयात्मा की तरह जीवन स्थितियों को मुड़-मुडक़र देखने को बाध्य हो जाता है।
ऐसे समय में जब रचना के लिए भी विमर्श के कई ख़ाने बना दिए गए हैं, उषा प्रियम्वदा की कहानियाँ जीवन को उसकी समग्रता में लेती हैं। इन कहानियों की त्रासदी को स्त्री-पुरुष के ख़ानों में नहीं बाँटा जा सकता है। ये मनुष्यता की त्रासदी को प्रतिबिम्बित करती कहानियाँ हैं।
रघुवीर सहाय ने कभी कहा था—जब मैं कविता पढ़कर उठूँ तो सन्नाटा छा जाए। उषा जी की कहानियों की बाबत भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है।

About Author

उषा प्रियम्वदा

शिक्षा : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में पीएच.डी., इंडियाना यूनिवर्सिटी, ब्लूमिंगटन, अमेरिका में तुलनात्मक साहित्य में दो वर्ष पोस्ट-डॉक्टरल शोध। अध्यापन के प्रथम तीन वर्ष दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में, तदुपरान्त इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दो वर्ष में सम्पन्न करके, विस्कांसिन विश्वविद्यालय मेडिसन के दक्षिण एशियाई विभाग में प्रोफ़ेसर रहीं। हिन्दी और अंग्रेज़ी, दोनों ही भाषाओं में समान रूप से दक्ष उषा प्रियम्वदा ने साहित्य सृजन के लिए हिन्दी और समीक्षा, अनुवाद और अन्य बौद्धिक क्षेत्रों के लिए अंग्रेज़ी का चयन किया।

प्रकाशित पुस्तकें : उपन्यास : ‘पचपन खम्भे लाल दीवारें’ (1961), ‘रुकोगी नहीं राधिका’ (1966), ‘शेष यात्रा’ (1984), ‘अन्तर-वंशी’ (2000), ‘भया कबीर उदास’ (2007); कहानी-संग्रह : ‘फिर बसंत आया’ (1961), ‘ज़‍िन्दगी और गुलाब के फूल’ (1961), ‘एक कोई दूसरा’ (1966), ‘कितना बड़ा झूठ’, ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’, ‘शून्य एवं अन्य रचनाएँ’, ‘सम्पूर्ण कहानियाँ’, ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ (1997)।

इसके अतिरिक्त भारतीय साहित्य, लोककथा एवं मध्यकालीन भक्ति काव्य पर अनेक लेख जो अंग्रेज़ी में समय-समय पर प्रकाशित हुए। मीराबाई और सूरदास के अंग्रेज़ी अनुवाद ‘साहित्य अकादेमी’, नई दिल्ली ने पुस्तक रूप में प्रकाशित किए। उन्होंने आधुनिक हिन्दी कहानियों के भी अनुवाद किए।

इंडियन स्टडीज विभाग से संलग्न रहते हुए 1977 में उन्हें 'फुल प्रोफ़ेसर ऑफ़ इंडियन लिट्रेचर’ का पद मिला। 2002 में अवकाश लेकर अब पूरा समय लेखन, अध्ययन और बाग़वानी में बिता रही हैं।

 

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