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Quile Ki Deewar Aur Chidiyan Ka Tinaka
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किले की दीवार और चिड़ियाँ की तिनका – प्रेमा झा लम्बे समय से कविताएँ लिख रही हैं। यह संकलन इनका दूसरा कविता-संग्रह है। इस संग्रह से गुज़रते हुए यह एहसास होता है कि प्रेमा ने अपना खुद का एक मुहावरा विकसित कर लिया है- शैली के स्तर पर, भाषा के स्तर पर और कथन के स्तर पर संग्रह की ज़्यादातर कविताएँ प्रेम कविताएँ हैं और हम इसमें प्रेम के विविध रंग-रूप और भाव-भंगिमाएँ देख सकते हैं- इश्क़ मजाज़ी से लेकर इश्क़ हक़ीक़ी तक । इसकी अभिव्यक्ति के लिए कवयित्री ने बड़ी ही तरल और पारदर्शी भाषा ईजाद की है जो प्रेम की गहन अनुभूति को शब्दों में रूपान्तरित कर पाने में पूरी तरह सक्षम है। एक कवि के लिए प्रेम तो अनिवार्य है ही, उसके साथ प्रकृति, समाज और परिवेश से जुड़े रहना भी उतना ही ज़रूरी ।
प्रेमा की कविताओं में ये आयाम भी बड़ी जीवन्तता से उभरकर आते हैं। ये कविताएँ अपनी सहस्त्र बिम्बों के नयेपन और अपनी प्रवाहमयता के चलते पाठकों को एक नयी यात्रा पर ले चलती हैं। कवि की तलाश में पाठक भी उसके साथ हो लेता है। इन कविताओं के साथ गुज़रना मानो एक ध्यान-यात्रा पर जाना है जो पाठक को एक समाधि भाव तक ले जाती है।
भवानी प्रसाद मिश्र ने एक जगह लिखा है कि मैं कविता नहीं लिखता बल्कि कविता मुझमें उतरती है। इन कविताओं को पढ़ते हुए भी यह अनुभूति होती है कि कविताएँ कवयित्री ने लिखी नहीं, बल्कि उन पर नाज़िल हुई हैं। उनका खुद का कहना है, “मेरे लिए कविता लिखना ज़िन्दगी के कोलाहल के बीच से आकाश की मानिन्द एक शून्य को पकड़ लेना, फिर उसे गहरे तक सुनना है और जो प्रतिध्वनि मेरी आत्मा तक पहुँचती है, मैं उसे काग़ज़ पर रख देती हूँ।”
निश्चय ही पाठकों को इन कविताओं में एक नया आस्वाद मिलेगा। आज के दौर में लिखी जा रही कविताओं से हटकर यह जगत् और जीवन को देखने का एक अलग नज़रिया है जो पाठक को चौंकाने के साथ आश्वस्त भी करता है कि हाँ, चीज़ों को इस तरह से भी देखा जा सकता है। अपनी प्रतीकात्मकता, बिम्बधर्मिता, प्रवाहमयता और अपने भाषायी कौशल के नाते भी ये कविताएँ देर तक साथ रहती हैं।
प्रेमा नयी सम्भावनाओं की कवयित्री हैं। मुझे विश्वास है कि वह अपने इस दूसरे संकलन किले की दीवार और चिड़ियाँ का तिनका से हिन्दी काव्य – जगत् में अपनी एक अलग पहचान बनायेंगी।
– ब्रजेन्द्र त्रिपाठी
किले की दीवार और चिड़ियाँ की तिनका – प्रेमा झा लम्बे समय से कविताएँ लिख रही हैं। यह संकलन इनका दूसरा कविता-संग्रह है। इस संग्रह से गुज़रते हुए यह एहसास होता है कि प्रेमा ने अपना खुद का एक मुहावरा विकसित कर लिया है- शैली के स्तर पर, भाषा के स्तर पर और कथन के स्तर पर संग्रह की ज़्यादातर कविताएँ प्रेम कविताएँ हैं और हम इसमें प्रेम के विविध रंग-रूप और भाव-भंगिमाएँ देख सकते हैं- इश्क़ मजाज़ी से लेकर इश्क़ हक़ीक़ी तक । इसकी अभिव्यक्ति के लिए कवयित्री ने बड़ी ही तरल और पारदर्शी भाषा ईजाद की है जो प्रेम की गहन अनुभूति को शब्दों में रूपान्तरित कर पाने में पूरी तरह सक्षम है। एक कवि के लिए प्रेम तो अनिवार्य है ही, उसके साथ प्रकृति, समाज और परिवेश से जुड़े रहना भी उतना ही ज़रूरी ।
प्रेमा की कविताओं में ये आयाम भी बड़ी जीवन्तता से उभरकर आते हैं। ये कविताएँ अपनी सहस्त्र बिम्बों के नयेपन और अपनी प्रवाहमयता के चलते पाठकों को एक नयी यात्रा पर ले चलती हैं। कवि की तलाश में पाठक भी उसके साथ हो लेता है। इन कविताओं के साथ गुज़रना मानो एक ध्यान-यात्रा पर जाना है जो पाठक को एक समाधि भाव तक ले जाती है।
भवानी प्रसाद मिश्र ने एक जगह लिखा है कि मैं कविता नहीं लिखता बल्कि कविता मुझमें उतरती है। इन कविताओं को पढ़ते हुए भी यह अनुभूति होती है कि कविताएँ कवयित्री ने लिखी नहीं, बल्कि उन पर नाज़िल हुई हैं। उनका खुद का कहना है, “मेरे लिए कविता लिखना ज़िन्दगी के कोलाहल के बीच से आकाश की मानिन्द एक शून्य को पकड़ लेना, फिर उसे गहरे तक सुनना है और जो प्रतिध्वनि मेरी आत्मा तक पहुँचती है, मैं उसे काग़ज़ पर रख देती हूँ।”
निश्चय ही पाठकों को इन कविताओं में एक नया आस्वाद मिलेगा। आज के दौर में लिखी जा रही कविताओं से हटकर यह जगत् और जीवन को देखने का एक अलग नज़रिया है जो पाठक को चौंकाने के साथ आश्वस्त भी करता है कि हाँ, चीज़ों को इस तरह से भी देखा जा सकता है। अपनी प्रतीकात्मकता, बिम्बधर्मिता, प्रवाहमयता और अपने भाषायी कौशल के नाते भी ये कविताएँ देर तक साथ रहती हैं।
प्रेमा नयी सम्भावनाओं की कवयित्री हैं। मुझे विश्वास है कि वह अपने इस दूसरे संकलन किले की दीवार और चिड़ियाँ का तिनका से हिन्दी काव्य – जगत् में अपनी एक अलग पहचान बनायेंगी।
– ब्रजेन्द्र त्रिपाठी
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