Pichhla Baqi (HB)

Publisher:
Radhakrishna Prakashan
| Author:
Vishnu Khare
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Radhakrishna Prakashan
Author:
Vishnu Khare
Language:
Hindi
Format:
Hardback

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यह कहकर कि विष्णु खरे हिन्दी में बिलकुल अलग ढंग की कविता लिखते थे (उनकी ख़ास अपने रंग की कविता की बात है यह, उन कुछेक कविताओं की नहीं जो उनकी उतनी ख़ास नहीं हैं), हम ज़रूर एक बड़ी बात कहते हैं। पर उनका अपना रंग क्या है, यह बताए बग़ैर बात अधूरी है। पहली ही नज़र में उन्हें अलग दिखा देनेवाली चीज़ है उनकी कविता का बाना; ऐसा बाना जिसमें से ‘कवितापन’ के निशान मानो चुन-चुनकर हटा दिए गए हैं—भावनात्मकता, लयात्मकता, आवेग और बहाव, लगाव और आत्मीयता, सहानुभूति और करुणा तक…। पहली नज़र में वे कविता होने का दावा करनेवाली गद्यात्मक कहानियाँ मालूम होती हैं। उनका कहानीपन भी वर्णनात्मक लगता है, कथात्मक नहीं, मानो जान-बूझकर लयहीन, गद्यात्मक, मनमाने तौर पर लम्बी या छोटी पंक्तियों में कुछ चीज़ों के बारीक वर्णन में घटना या पात्र जोड़ दिए गए हैं; आप कविता से जुड़ी अपनी अपेक्षाएँ, रुचियाँ, आदतें लेकर उनके पास जाते हैं और निराश होते हैं; आप कहानी की तरह उसे पढ़ना चाहते हैं तो पाते हैं कि जिन तत्त्वों (सूक्ष्म निरीक्षण, मानसिक या घटनागत मोड़, आश्चर्य इत्यादि) को आप कहानी पढ़ने के बाद खोजते या निकालते, वे ढाँचे की तरह—मांस-मज्जा-मोटापे से रहित—आपके सामने हैं, पूरी कहानी नहीं। कविता के रूप में आप जिस ताप, आवेग और शब्दों की मितव्ययिता चाहते हैं, वह नहीं है। कविता के रूप में उक्त तत्त्वों को जिन आवरण-आच्छादनों के साथ चाहते हैं, वे आवरण-आच्छादन भी नहीं हैं। कहानी की दृष्टि से शब्दों की कंजूसी, कविता की दृष्टि से शब्दों की इफ़रात। ‘अकेला आदमी’, ‘कोशिश’ और ‘दोस्त’ जैसी कविताएँ आपको तब भी अपनी संस्कारगत काव्य-रुचियों के क़रीबतर जान पड़ती हैं। इससे बरबस आप विष्णु खरे की दूसरी कविताओं को समझने की, उनमें ‘कवितापन’ खोजने की कोशिश करते हैं। कभी-कभी यह कोशिश लगातार चलती है; होते-होते आप कवि के मुरीद भी हो जा सकते हैं।
समय इन कविताओं में एक तरह से सर्वव्याप्त आयाम है जिसमें देश या स्थान भी समाहित है। ‘टेबिल’ में वह चार पीढ़ियों का क़िस्सा बनता है। ‘हँसी’ में वह हमारा अपना ज़माना है, जब पुरस्कृत बालक भूखा, पैदल, थका, शील्डों के बोझ से दबा घर पहुँचता है, जहाँ ख़ुद ही उसे ताला खोलना है; समारोह में विशेष स्वागत अतिथियों का है, सड़क पर पुलिस की घुड़क है, दूसरे दिन स्कूल में क़तार में वह निरीह इकाई मात्र है। एक संवेदनहीन, मूल्यहीन, क्रूर समाज का समय। ‘गर्मियों की शाम’ में वह हमारी यौन-नैतिकता, अच्छाई, किशोर-मन की कसमसाहट का समय है। ‘स्वीकार’ और ‘डरो’ में, ‘दूरबीन’ और ‘वापस’ में और ‘कार्यकर्ता’ और ‘कोमल’ में हमारे समय का समाज-संगठन, व्यक्ति-सत्ता, व्यंग्य, तल्ख, विडम्बना, अक्सर दुरदुराए जाते आम इनसान संकेतित हैं। समय पर यही आँख ‘मुक़ाबला’ में प्रागैतिहासि फ़ैंटेसी को समेट लाती है। बचपन, कैशोर्य, जवानी, बुढ़ापा; सफलता, रोग, दैन्य, छोटे शहरों की उदासी और उदास आकर्षण, बड़े शहरों का दृश्य (‘वापस’) उनमें तरह-तरह से आता है।
समय के लिए विष्णु खरे काल या महाकाल जैसे प्रत्यय नहीं अपनाते, और इस नुक्ते में उनकी काव्य-चेतना के दो रुझान स्पष्ट हैं। ‘समय’ शब्द हमारे समय में अंग्रेज़ी के ‘टाइम’ का प्रत्ययान्तर है, और प्रचलित आधुनिकतावाद में वह प्रगति, इतिहास, उत्तरोत्तर आगे बढ़नेवाला, रैखिक विकास का अर्थ लिए हुए है; व्यतीत हो जानेवाला समय है, ‘कालो न यात:’ वाला, आवर्तित, चक्राकार काल नहीं। लेकिन विष्णु खरे इसको ‘अर्थ’ और ‘अव्यक्त’ जैसी कविताओं में ‘एक प्रवहमान अनन्त लीला’ से जोड़ते हैं। आधुनिकता के विश्लेषणात्मक, वैज्ञानिक, विषयी-निरपेक्ष विषय-केन्द्रित दृष्टि के उपकरणों का उपयोग क्या वे अपनी मूल भारतीय दार्शनिक अवधारणाओं की पड़ताल करने में कर रहे हैं? सर्वातीत, लीला, स्थावर-जंगम जैसे शब्द उनके यहाँ बार-बार हैं, और केवल शब्द ही नहीं, उनके अर्थ को स्वीकार करनेवाली चेतना भी। यह चेतना—शक होता है कि—सचेत रूप से अपनाई हुई नहीं है, बल्कि उनमें ख़ुद-ब-ख़ुद है, इस देश-प्रदेश में पलने, बढ़ने के कारण। उसकी पुष्टि तरह-तरह के अध्ययनों से, हालाँकि भारतीय अवधारणा से कुछ भिन्न रूपोंवाले स्रोतों से होती है—दॉन हुआन, बोर्खेस के हवाले द्रष्टव्य हैं। तर्क से चलकर अतर्क्य तक पहुँचना इसीलिए सम्भव है। क्षणवाद को इस तरह वे विजित करते दीखते हैं। अस्तित्ववादी अकेलेपन और संत्रास की धारणाओं का आतंक इसीलिए उन पर नहीं दीखता। अन्तत: निष्कृति का द्वार उन्हें सहज ही पता है।

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यह कहकर कि विष्णु खरे हिन्दी में बिलकुल अलग ढंग की कविता लिखते थे (उनकी ख़ास अपने रंग की कविता की बात है यह, उन कुछेक कविताओं की नहीं जो उनकी उतनी ख़ास नहीं हैं), हम ज़रूर एक बड़ी बात कहते हैं। पर उनका अपना रंग क्या है, यह बताए बग़ैर बात अधूरी है। पहली ही नज़र में उन्हें अलग दिखा देनेवाली चीज़ है उनकी कविता का बाना; ऐसा बाना जिसमें से ‘कवितापन’ के निशान मानो चुन-चुनकर हटा दिए गए हैं—भावनात्मकता, लयात्मकता, आवेग और बहाव, लगाव और आत्मीयता, सहानुभूति और करुणा तक…। पहली नज़र में वे कविता होने का दावा करनेवाली गद्यात्मक कहानियाँ मालूम होती हैं। उनका कहानीपन भी वर्णनात्मक लगता है, कथात्मक नहीं, मानो जान-बूझकर लयहीन, गद्यात्मक, मनमाने तौर पर लम्बी या छोटी पंक्तियों में कुछ चीज़ों के बारीक वर्णन में घटना या पात्र जोड़ दिए गए हैं; आप कविता से जुड़ी अपनी अपेक्षाएँ, रुचियाँ, आदतें लेकर उनके पास जाते हैं और निराश होते हैं; आप कहानी की तरह उसे पढ़ना चाहते हैं तो पाते हैं कि जिन तत्त्वों (सूक्ष्म निरीक्षण, मानसिक या घटनागत मोड़, आश्चर्य इत्यादि) को आप कहानी पढ़ने के बाद खोजते या निकालते, वे ढाँचे की तरह—मांस-मज्जा-मोटापे से रहित—आपके सामने हैं, पूरी कहानी नहीं। कविता के रूप में आप जिस ताप, आवेग और शब्दों की मितव्ययिता चाहते हैं, वह नहीं है। कविता के रूप में उक्त तत्त्वों को जिन आवरण-आच्छादनों के साथ चाहते हैं, वे आवरण-आच्छादन भी नहीं हैं। कहानी की दृष्टि से शब्दों की कंजूसी, कविता की दृष्टि से शब्दों की इफ़रात। ‘अकेला आदमी’, ‘कोशिश’ और ‘दोस्त’ जैसी कविताएँ आपको तब भी अपनी संस्कारगत काव्य-रुचियों के क़रीबतर जान पड़ती हैं। इससे बरबस आप विष्णु खरे की दूसरी कविताओं को समझने की, उनमें ‘कवितापन’ खोजने की कोशिश करते हैं। कभी-कभी यह कोशिश लगातार चलती है; होते-होते आप कवि के मुरीद भी हो जा सकते हैं।
समय इन कविताओं में एक तरह से सर्वव्याप्त आयाम है जिसमें देश या स्थान भी समाहित है। ‘टेबिल’ में वह चार पीढ़ियों का क़िस्सा बनता है। ‘हँसी’ में वह हमारा अपना ज़माना है, जब पुरस्कृत बालक भूखा, पैदल, थका, शील्डों के बोझ से दबा घर पहुँचता है, जहाँ ख़ुद ही उसे ताला खोलना है; समारोह में विशेष स्वागत अतिथियों का है, सड़क पर पुलिस की घुड़क है, दूसरे दिन स्कूल में क़तार में वह निरीह इकाई मात्र है। एक संवेदनहीन, मूल्यहीन, क्रूर समाज का समय। ‘गर्मियों की शाम’ में वह हमारी यौन-नैतिकता, अच्छाई, किशोर-मन की कसमसाहट का समय है। ‘स्वीकार’ और ‘डरो’ में, ‘दूरबीन’ और ‘वापस’ में और ‘कार्यकर्ता’ और ‘कोमल’ में हमारे समय का समाज-संगठन, व्यक्ति-सत्ता, व्यंग्य, तल्ख, विडम्बना, अक्सर दुरदुराए जाते आम इनसान संकेतित हैं। समय पर यही आँख ‘मुक़ाबला’ में प्रागैतिहासि फ़ैंटेसी को समेट लाती है। बचपन, कैशोर्य, जवानी, बुढ़ापा; सफलता, रोग, दैन्य, छोटे शहरों की उदासी और उदास आकर्षण, बड़े शहरों का दृश्य (‘वापस’) उनमें तरह-तरह से आता है।
समय के लिए विष्णु खरे काल या महाकाल जैसे प्रत्यय नहीं अपनाते, और इस नुक्ते में उनकी काव्य-चेतना के दो रुझान स्पष्ट हैं। ‘समय’ शब्द हमारे समय में अंग्रेज़ी के ‘टाइम’ का प्रत्ययान्तर है, और प्रचलित आधुनिकतावाद में वह प्रगति, इतिहास, उत्तरोत्तर आगे बढ़नेवाला, रैखिक विकास का अर्थ लिए हुए है; व्यतीत हो जानेवाला समय है, ‘कालो न यात:’ वाला, आवर्तित, चक्राकार काल नहीं। लेकिन विष्णु खरे इसको ‘अर्थ’ और ‘अव्यक्त’ जैसी कविताओं में ‘एक प्रवहमान अनन्त लीला’ से जोड़ते हैं। आधुनिकता के विश्लेषणात्मक, वैज्ञानिक, विषयी-निरपेक्ष विषय-केन्द्रित दृष्टि के उपकरणों का उपयोग क्या वे अपनी मूल भारतीय दार्शनिक अवधारणाओं की पड़ताल करने में कर रहे हैं? सर्वातीत, लीला, स्थावर-जंगम जैसे शब्द उनके यहाँ बार-बार हैं, और केवल शब्द ही नहीं, उनके अर्थ को स्वीकार करनेवाली चेतना भी। यह चेतना—शक होता है कि—सचेत रूप से अपनाई हुई नहीं है, बल्कि उनमें ख़ुद-ब-ख़ुद है, इस देश-प्रदेश में पलने, बढ़ने के कारण। उसकी पुष्टि तरह-तरह के अध्ययनों से, हालाँकि भारतीय अवधारणा से कुछ भिन्न रूपोंवाले स्रोतों से होती है—दॉन हुआन, बोर्खेस के हवाले द्रष्टव्य हैं। तर्क से चलकर अतर्क्य तक पहुँचना इसीलिए सम्भव है। क्षणवाद को इस तरह वे विजित करते दीखते हैं। अस्तित्ववादी अकेलेपन और संत्रास की धारणाओं का आतंक इसीलिए उन पर नहीं दीखता। अन्तत: निष्कृति का द्वार उन्हें सहज ही पता है।

About Author

विष्णु खरे

जन्म : 9 फ़रवरी, 1940; छिन्दवाड़ा (म.प्र.)।

विष्णु खरे की प्रारम्भिक रचनाएँ ग.मा. मुक्तिबोध द्वारा नागपुर के साप्ताहिक ‘सारथी’ (1956-57) में प्रकाशित। फिर वह ‘वसुधा’, ‘कृति’, ‘कहानी’, ‘नई कविता’, ‘धर्मयुग’ आदि में प्रकाशित हुए। ‘आलोचना’ में 1969-70 में छपी कविता ‘टेबिल’ के बाद से उनकी अपनी कविता और शेष हिन्दी पद्य में कुँवर-केदार-रघुवीर त्रयी के बाद अब तक एक दूरगामी मौलिक परिवर्तन माना जाता है। 1960 में टी.एस. एलिअट की कविताओं का अनुवाद ‘मरु-प्रदेश और अन्य कविताएँ’। क्रिस्टियन कॉलेज इन्दौर में पढ़ते हुए (1961-63) दैनिक ‘इन्दौर समाचार’ तथा फ़िल्म-साप्ताहिक ‘सिनेमा एक्सप्रेस’ में पत्रकारिता। अंग्रेज़ी में मेरिट में एम.ए. के बाद 1963-75 के बीच मध्य प्रदेश और दिल्ली में स्नातकोत्तर और ऑनर्स कक्षाएँ पढ़ाईं। अशोक वाजपेयी द्वारा ‘पहचान’ सीरीज़ (1970) की शुरुआत ‘विष्णु खरे की बीस कविताएँ’ से। 1978 में पहला संग्रह ‘ख़ुद अपनी आँख से’ आया जिसे रघुवीर सहाय ने ‘अद्वितीय’ कहा। 1975-84 के बीच केन्द्रीय साहित्य अकादेमी में प्रकाशन, अकादेमी पुरस्कार तथा साहित्यिक गतिविधियों के प्रभारी उप-सचिव, फिर 1994 तक तत्कालीन शीर्षस्थ दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ के लखनऊ-जयपुर संस्करणों के सम्पादक तथा मुख्य दिल्ली-संस्करण के विचार प्रमुख-सम्पादक। सैकड़ों सम्पादकीय और लेख। अंग्रेज़ी में भी प्रचुर लेखन। अकादेमी तथा ‘नवभारत टाइम्स’ विचारधारागत मतभेदों के कारण छोड़े—तब से ‘स्वतंत्र लेखन।’ चालीस से भी अधिक प्रकाशन जिनमें संकलन ‘पिछला बाक़ी’, ‘सबकी आवाज़ के पर्दे में’, ‘काल और अवधि के दरमियान’, ‘लालटेन जलाना’, ‘कवि ने कहा’, ‘पाठान्तर’, ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ और ‘और अन्य कविताएँ’ शामिल हैं। आलोचना, पत्रकारिता, सिने-लेखन, तथा अंग्रे़ज़ी, जर्मन, मराठी में मुकम्मल अनुवाद, देशी-विदेशी भाषाओं से कविता, गल्प तथा गद्य के अनुवाद, राजेन्द्र माथुर संचयन-सम्पादन। पाब्लो नेरुदा, शमशेर बहादुर सिंह, सुदीप बनर्जी पर सम्पादित विशेषांक, विश्व-कवि गोएठे का कालजयी काव्य-नाटक ‘फ़ाउस्ट’, ‘फ़िनी’, महाकाव्य ‘कलेवाला’, एस्टोनियाई महाकाव्य ‘कलेवीपोएग’, डच उपन्यासकार-द्वय  सेस नोटेबोम तथ हरी मूलिश की कृतियाँ अनूदित। निजी रचनाओं के अनुवाद कई राष्ट्रीय और विदेशी भाषाओं में। शीर्ष फ़िल्म-समीक्षक की हैसियत से कान, ला रोशेल तथा रोत्तर्दम के प्रतिष्ठित सिने-समारोहों में आमंत्रित। चालीस से अधिक साहित्यिक-शैक्षणिक विदेश-यात्राएँ। 1986 में पत्रकर की हैसियत से प्रधानमंत्री राजीव गांधी के शिष्टमंडल में राष्ट्र-संघ, अमेरिका की यात्रा। फ़िनलैंड, एस्तोनिया, हंगरी तथा पोलैंड के राष्ट्रीय सम्मानों सहित अनेक स्वदेशी-विदेशी पुरस्कार। हिन्दी अकादमी, दिल्ली के उपाध्यक्ष भी रहे।

निधन : 19 सितम्बर, 2018

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