Mulachara (Volume-1)

Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
सम्पादक सिद्धान्त आचार्य पंडित कैलाश चन्द्र शास्त्री, अनुवाद वेनेरबले आर्यिकारत्न ज्ञानमति जी
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
सम्पादक सिद्धान्त आचार्य पंडित कैलाश चन्द्र शास्त्री, अनुवाद वेनेरबले आर्यिकारत्न ज्ञानमति जी
Language:
Hindi
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Hardback

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SKU 9789326330898 Category
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520

मूलाचार (पूर्वार्ध) –
इस महान् ग्रन्थ मूलाचार की अनेक विशेषताएँ हैं। पहली बात तो यह कि यह सबसे प्राचीन ग्रन्थ है जिसमें दिगम्बर मुनियों के आचार-विचार, चरित्र-साधना और उनके मूलगुणों का क्रमबद्ध प्रामाणिक विवरण है। यह ग्रन्थ लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व रचा गया है। ग्रन्थकार हैं- आचार्य वट्टकेर। जिन्हें अनेक विद्वान आचार्य कुन्दकुन्द के रूप में भी जानते हैं, क्योंकि प्राचीन टीकाओं और हस्तलिखित प्रतियों में इसके कर्ता का नाम आचार्य कुन्दकुन्द उल्लिखित है। दूसरी बात यह है कि प्राकृत की अनेक हस्तलिखित प्रतियों से मिलान करके परम विदुषी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने इसका सम्पादन तथा भाषानुवाद किया है, मूल ग्रन्थ का ही नहीं, उस संस्कृत टीका का भी जिसे लगभग 900 वर्ष पूर्व आचार्य वसुनन्दी ने आचारवृत्ति नाम से लिखा। तीसरी विशेषता इस प्रकाशन की यह है कि सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, विद्वद्वर्य पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री और डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य जैसे विद्वानों ने मिलकर परिश्रमपूर्वक पाण्डुलिपि का वाचन किया, संशोधन सुझाव प्रस्तुत किये, जो माताजी को भी मान्य हुए।
ग्रन्थ अधिक निर्दोष और प्रामाणिक हो इसका पूरा प्रयत्न किया गया है। ग्रन्थमाला सम्पादक मण्डल के विद्वान विद्यावारिधि डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने भी प्रथम भाग में ‘प्रधान सम्पादकीय’ लिखकर इस कृति के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को उजागर किया है।
आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी के विपुल ज्ञान, परिश्रम और साधना का निर्मल दर्पण है यह ग्रन्थ माताजी का प्रयत्न रहा है कि ग्रन्थ की महत्ता और इसका अर्थ जिज्ञासुओं के हृदय में उतरे और विषय का सम्पूर्ण ज्ञान उन्हें कृतार्थ करे, इस दृष्टि से उन्होंने सुबोध भाषा अपनायी है जो उनके कृतित्व की विशेषता है। भूमिका में उन्होंने मुख्य-मुख्य विषयों का सुगम परिचय दे दिया है।
पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के रूप में सम्पूर्ण ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित है। आशा है, साधुजन, विद्वानों तथा स्वाध्यायप्रेमियों के लिए यह कृति अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी।

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Description

मूलाचार (पूर्वार्ध) –
इस महान् ग्रन्थ मूलाचार की अनेक विशेषताएँ हैं। पहली बात तो यह कि यह सबसे प्राचीन ग्रन्थ है जिसमें दिगम्बर मुनियों के आचार-विचार, चरित्र-साधना और उनके मूलगुणों का क्रमबद्ध प्रामाणिक विवरण है। यह ग्रन्थ लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व रचा गया है। ग्रन्थकार हैं- आचार्य वट्टकेर। जिन्हें अनेक विद्वान आचार्य कुन्दकुन्द के रूप में भी जानते हैं, क्योंकि प्राचीन टीकाओं और हस्तलिखित प्रतियों में इसके कर्ता का नाम आचार्य कुन्दकुन्द उल्लिखित है। दूसरी बात यह है कि प्राकृत की अनेक हस्तलिखित प्रतियों से मिलान करके परम विदुषी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने इसका सम्पादन तथा भाषानुवाद किया है, मूल ग्रन्थ का ही नहीं, उस संस्कृत टीका का भी जिसे लगभग 900 वर्ष पूर्व आचार्य वसुनन्दी ने आचारवृत्ति नाम से लिखा। तीसरी विशेषता इस प्रकाशन की यह है कि सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री, विद्वद्वर्य पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री और डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य जैसे विद्वानों ने मिलकर परिश्रमपूर्वक पाण्डुलिपि का वाचन किया, संशोधन सुझाव प्रस्तुत किये, जो माताजी को भी मान्य हुए।
ग्रन्थ अधिक निर्दोष और प्रामाणिक हो इसका पूरा प्रयत्न किया गया है। ग्रन्थमाला सम्पादक मण्डल के विद्वान विद्यावारिधि डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने भी प्रथम भाग में ‘प्रधान सम्पादकीय’ लिखकर इस कृति के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को उजागर किया है।
आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी के विपुल ज्ञान, परिश्रम और साधना का निर्मल दर्पण है यह ग्रन्थ माताजी का प्रयत्न रहा है कि ग्रन्थ की महत्ता और इसका अर्थ जिज्ञासुओं के हृदय में उतरे और विषय का सम्पूर्ण ज्ञान उन्हें कृतार्थ करे, इस दृष्टि से उन्होंने सुबोध भाषा अपनायी है जो उनके कृतित्व की विशेषता है। भूमिका में उन्होंने मुख्य-मुख्य विषयों का सुगम परिचय दे दिया है।
पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के रूप में सम्पूर्ण ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित है। आशा है, साधुजन, विद्वानों तथा स्वाध्यायप्रेमियों के लिए यह कृति अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी।

About Author

आर्यिकारत्न ज्ञानमती - न्यायप्रभाकर, सिद्धान्तवाचस्पति, आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी दिगम्बर जैन समाज में एक चिन्तक विदुषी साध्वी तो हैं ही, एक सुख्यात लेखिका भी हैं। आपका जन्म टिकैतनगर, ज़िला बाराबंकी (उ.प्र.) में विक्रम सम्वत् 1991 में हुआ। 17 वर्ष की अल्पायु में ही आपने बाल ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर आचार्यश्री देशभूषणजी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की थी। पश्चात्, वैशाख कृष्णा 2, वि. सं. 2013 को चारित्रक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर महाराज के पट्टाधीश आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। यथा नाम तथा गुणों से वेष्टित, ज्ञान और आचरण की साकार मूर्ति श्री ज्ञानमती माताजी ने संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के अनेक ग्रन्थों की टीकाएँ एवं मौलिक लेखन कार्य किया है। मुनिधर्म की व्याख्या करनेवाले सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ 'मूलाचार', न्याय के अद्वितीय ग्रन्थ 'अष्टसहस्त्री' अध्यात्म ग्रन्थ 'नियमसार' तथा 'कातन्त्र व्याकरण' की हिन्दी टीकाओं के अतिरिक्त जैन ज्योतिर्लोक, जम्बूद्वीप, दिगम्बर मुनि, जैन भारती आदि आपकी प्रमुख उपलब्धियाँ हैं। इनके अतिरिक्त चारित्रिक उत्थान को ध्यान में रखकर माताजी ने सरल सुबोध शैली में नाटक, कथाएँ तथा बालोपयोगी अनेक कृतियों की रचना की है। साहित्य सेवा के अतिरिक्त आपकी प्रेरणा से अनेक ऐतिहासिक महत्त्व के कार्य सम्पन्न हुए हैं, हो रहे हैं। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप-रचना, आचार्यश्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना, 'सम्यग्ज्ञान' हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन, समग्र भारत में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का प्रवर्तन आदि इस बात के साक्षी हैं।

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