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Mayapuri (HB)
Publisher:
Radhakrishna Prakashan
| Author:
Shivani
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Category: Hindi
Page Extent:
लखनऊ की मायापुरी और उसमें पालतू बिल्ली-सी घुरघुराती नरमाई लिए प्रतिवेशी प्रवासी परिवार में पहाड़ के सुदूर ग्रामीण अंचल से आई शर्मीली सुन्दरी शोभा का आना बड़े उत्साह का कारण बना, विशेषकर घर की बेटी मंजरी के लिए। पर पिता के बाल्यकालीन मित्र के उस परिवार में घर के बेटे सतीश के विदेश से लौटने पर लहरें उठने लगीं। शोभा और सतीश, अविनाश और मंजरी, युवा जोड़ों के बीच आकर्षण-विकर्षण की रोचक घुमेरियों से भरी ‘मायापुरी’ की कहानी में नकचढ़ी मंत्री दुहिता एक झंझा की तरह प्रवेश करती है, और देखते-देखते सतीश उसकी दुनिया का भाग बनने लगता है। पर क्या नेह-छोह के बन्धन सहज टूटते हैं? नैनीताल वापस लौटी शोभा के जीवन को रुक्की, रामी, रानीसाहिबा और उनके रहस्यमय जीवन की परछाइयाँ कैसे घेरने लगती हैं?
स्त्री-पुरुष के चिरन्तन आकर्षण की मरीचिकामय मायापुरी तथा जीवन की कठोर वास्तविकता के टकराव से भरा यह उपन्यास आज भी अपनी अलग पहचान रखता है।
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Description
लखनऊ की मायापुरी और उसमें पालतू बिल्ली-सी घुरघुराती नरमाई लिए प्रतिवेशी प्रवासी परिवार में पहाड़ के सुदूर ग्रामीण अंचल से आई शर्मीली सुन्दरी शोभा का आना बड़े उत्साह का कारण बना, विशेषकर घर की बेटी मंजरी के लिए। पर पिता के बाल्यकालीन मित्र के उस परिवार में घर के बेटे सतीश के विदेश से लौटने पर लहरें उठने लगीं। शोभा और सतीश, अविनाश और मंजरी, युवा जोड़ों के बीच आकर्षण-विकर्षण की रोचक घुमेरियों से भरी ‘मायापुरी’ की कहानी में नकचढ़ी मंत्री दुहिता एक झंझा की तरह प्रवेश करती है, और देखते-देखते सतीश उसकी दुनिया का भाग बनने लगता है। पर क्या नेह-छोह के बन्धन सहज टूटते हैं? नैनीताल वापस लौटी शोभा के जीवन को रुक्की, रामी, रानीसाहिबा और उनके रहस्यमय जीवन की परछाइयाँ कैसे घेरने लगती हैं?
स्त्री-पुरुष के चिरन्तन आकर्षण की मरीचिकामय मायापुरी तथा जीवन की कठोर वास्तविकता के टकराव से भरा यह उपन्यास आज भी अपनी अलग पहचान रखता है।
About Author
शिवानी
जन्म : 17 अक्तूबर, 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट (गुजरात)।
शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली ‘नटखट’ नामक एक बाल-पत्रिका में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें ‘गोरा’ पुकारते थे। उनकी ही सलाह कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, शिरोधार्य कर उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। शिवानी की पहली लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ 1951 में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक अनवरत चलता रहा। उनकी अन्तिम दो रचनाएँ ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं।
1979 में शिवानी जी को ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया गया। उपन्यास, कहानी, व्यक्ति-चित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलनेवाले पत्र ‘स्वतंत्र भारत’ के लिए शिवानी ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा। उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्ताँ कालोनी के द्वार लेखकों, कलाकारों, साहित्य-प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग से जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे।
निधन : 21 मार्च, 2003 (दिल्ली)।
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