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Mahangi Kavita
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कहते हैं, तारे गाते हैं। गहन सन्नाटा अपने खरहा -कान उठाये हुए जो वे सारी श्रुतियाँ- अनुश्रुतियाँ तारों की गायी हुई होंगी। सृष्टि की आदिलय गुँथी सुनता है, होती है उनमें-ठाह, दुगुन, चौगुन- एक लय, जिसमें किसान अपनी जुती ज़मीन पर बीज छिड़कता है, एक और लय जो बारिश की होती है और तीसरी लय, जिसमें औरतें, मंगलगान गाती हुई अक्षत-दूर्वा छिड़कती हैं नववधू पर !
ओमा जी की कविता में ये तीनों लयें अनुस्यूत हैं। जब सिद्ध मौन की उर्वर माटी पर ओमा जी अपने शब्द छिड़कते हैं, अलग-अलग स्रोतों से आये हुए शब्द-तो ये तीनों लयें घुमरीपरैया-सी खेलती जान पड़ती हैं। मूलाधार से सहस्रार तक जितने ऊर्जा वर्तुल माने गये हैं, शब्दों के मेरुदण्ड पर भी वे तीनों लयकारियाँ खेलती- नाचती हैं, इनकी कविताओं में ।
अलग-अलग स्रोतों से आये हुए शब्दों की बात मैंने की तो कुछ प्रमुख स्रोतों की चर्चा भी करती जाऊँ- पहला स्रोत तो स्वयं बनारस की गलियाँ हैं, दूसरा स्रोत आगम निगम, शास्त्र-पुराण, तीसरा स्रोत सिने जगत्, चौथा उर्दू की कालजयी कृतियाँ और पाँचवाँ राजनीतिक दंगल। कुल मिलाकर इनकी कविता विरुद्धों का सुखद सामंजस्य है- बनारस का औघड़पन, लखनऊ की नफासत, इलाहाबादी कुम्भ का दृश्य-सौष्ठव और गोरखपुर की गोरखबानी का अन्तर्नाद ।
इसी सामंजस्य के कारण इस युवा कवि की भाषा एक अलग तरह से सधुक्कड़ी ठाठ की भाषा है, एक अलग तरह की सन्ध्या-भाषा है यह, जिसमें आगरा के नज़ीर अकबराबादी की अनुगूँजें भी आ मिली हैं।
तरह-तरह के अन्तःपाठों और गहनतम जातीय स्मृतियों से महमह ये कविताएँ कभी-कभी जन गीतों का भी आस्वाद मन में जगा सकती हैं, पर कहते वे इनको ‘महँगी कविता’ हैं तो शायद इसलिए जान अरपकर जो बेखुद हासिल हो, इनकी कविता वहीं से फूटी हैं।
साहित्य अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत लेखिका
-अनामिका
कहते हैं, तारे गाते हैं। गहन सन्नाटा अपने खरहा -कान उठाये हुए जो वे सारी श्रुतियाँ- अनुश्रुतियाँ तारों की गायी हुई होंगी। सृष्टि की आदिलय गुँथी सुनता है, होती है उनमें-ठाह, दुगुन, चौगुन- एक लय, जिसमें किसान अपनी जुती ज़मीन पर बीज छिड़कता है, एक और लय जो बारिश की होती है और तीसरी लय, जिसमें औरतें, मंगलगान गाती हुई अक्षत-दूर्वा छिड़कती हैं नववधू पर !
ओमा जी की कविता में ये तीनों लयें अनुस्यूत हैं। जब सिद्ध मौन की उर्वर माटी पर ओमा जी अपने शब्द छिड़कते हैं, अलग-अलग स्रोतों से आये हुए शब्द-तो ये तीनों लयें घुमरीपरैया-सी खेलती जान पड़ती हैं। मूलाधार से सहस्रार तक जितने ऊर्जा वर्तुल माने गये हैं, शब्दों के मेरुदण्ड पर भी वे तीनों लयकारियाँ खेलती- नाचती हैं, इनकी कविताओं में ।
अलग-अलग स्रोतों से आये हुए शब्दों की बात मैंने की तो कुछ प्रमुख स्रोतों की चर्चा भी करती जाऊँ- पहला स्रोत तो स्वयं बनारस की गलियाँ हैं, दूसरा स्रोत आगम निगम, शास्त्र-पुराण, तीसरा स्रोत सिने जगत्, चौथा उर्दू की कालजयी कृतियाँ और पाँचवाँ राजनीतिक दंगल। कुल मिलाकर इनकी कविता विरुद्धों का सुखद सामंजस्य है- बनारस का औघड़पन, लखनऊ की नफासत, इलाहाबादी कुम्भ का दृश्य-सौष्ठव और गोरखपुर की गोरखबानी का अन्तर्नाद ।
इसी सामंजस्य के कारण इस युवा कवि की भाषा एक अलग तरह से सधुक्कड़ी ठाठ की भाषा है, एक अलग तरह की सन्ध्या-भाषा है यह, जिसमें आगरा के नज़ीर अकबराबादी की अनुगूँजें भी आ मिली हैं।
तरह-तरह के अन्तःपाठों और गहनतम जातीय स्मृतियों से महमह ये कविताएँ कभी-कभी जन गीतों का भी आस्वाद मन में जगा सकती हैं, पर कहते वे इनको ‘महँगी कविता’ हैं तो शायद इसलिए जान अरपकर जो बेखुद हासिल हो, इनकी कविता वहीं से फूटी हैं।
साहित्य अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत लेखिका
-अनामिका
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