Kante Ki Baat -2 Anpadh Banaye Rakhne Kee Sazish

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
राजेन्द्र यादव
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Vani Prakashan
Author:
राजेन्द्र यादव
Language:
Hindi
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कांटे की बात-2

अनपढ़ बनाये रखने की साज़िश

वर्तमान स्थिति में विचार का एक सिरा राजनीति है, दूसरा संस्कृति। यह लोकतंत्र की राजनीति है—कभी अल्पसंख्यकों की, तो कभी बहुसंख्यकों की, कभी अलगाववाद की, कभी गुंडों की, तो कभी तांत्रिकों-स्वामियों की, कभी उर्दू की साम्प्रदायिक माँग की, कभी अंग्रेजीदां जहालत की, तो कभी हिन्दी के पिछड़ेपन की ।

यह राजनीति जन्म देती है एक ऐसी संस्कृति को जिसमें असहमति और विद्रोह की चेतना नहीं, सत्ता को चुनौती देने या बदलने का साहस नहीं, बल्कि हिंसा, अपराध और भ्रष्टाचार की स्वीकृति है, झूठ को जीने और मूल्यों को ध्वस्त करने का दंभ है । उसमें व्यक्ति, समाज और देश को जाहिल, मूर्ख, परतंत्र और पराश्रित बनाये रखने की साज़िश है जिससे वे न तो अपनी नियति से साक्षात्कार करें और न भविष्य को बदलने के सपने ही देखें ।

समाजवाद ऐसा ही सपना था, जिसकी मौत घोषित कर दी गई और तीसरी दुनिया को दिखाया जा रहा है पूँजीवादी ‘खुले बाजार’ का आदर्श अमरीकी स्वप्न ! लोकतंत्र के संकट से गुजरते हमारे देश के लिए इनमें से कौन-सा स्वप्न प्रासंगिक है – इन्हीं सवालों से जूझने की प्रक्रिया है – अनपढ़ बनाये रखने की साज़िश ।

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कांटे की बात-2

अनपढ़ बनाये रखने की साज़िश

वर्तमान स्थिति में विचार का एक सिरा राजनीति है, दूसरा संस्कृति। यह लोकतंत्र की राजनीति है—कभी अल्पसंख्यकों की, तो कभी बहुसंख्यकों की, कभी अलगाववाद की, कभी गुंडों की, तो कभी तांत्रिकों-स्वामियों की, कभी उर्दू की साम्प्रदायिक माँग की, कभी अंग्रेजीदां जहालत की, तो कभी हिन्दी के पिछड़ेपन की ।

यह राजनीति जन्म देती है एक ऐसी संस्कृति को जिसमें असहमति और विद्रोह की चेतना नहीं, सत्ता को चुनौती देने या बदलने का साहस नहीं, बल्कि हिंसा, अपराध और भ्रष्टाचार की स्वीकृति है, झूठ को जीने और मूल्यों को ध्वस्त करने का दंभ है । उसमें व्यक्ति, समाज और देश को जाहिल, मूर्ख, परतंत्र और पराश्रित बनाये रखने की साज़िश है जिससे वे न तो अपनी नियति से साक्षात्कार करें और न भविष्य को बदलने के सपने ही देखें ।

समाजवाद ऐसा ही सपना था, जिसकी मौत घोषित कर दी गई और तीसरी दुनिया को दिखाया जा रहा है पूँजीवादी ‘खुले बाजार’ का आदर्श अमरीकी स्वप्न ! लोकतंत्र के संकट से गुजरते हमारे देश के लिए इनमें से कौन-सा स्वप्न प्रासंगिक है – इन्हीं सवालों से जूझने की प्रक्रिया है – अनपढ़ बनाये रखने की साज़िश ।

About Author

राजेन्द्र यादव जन्म : 28 अगस्त, 1929 शिक्षा : एम. ए. (आगरा) निवास : आगरा, मथुरा, झांसी, कलकत्ता होते हुए दिल्ली में । प्रथम रचना : प्रतिहिंसा ('चांद' के भूतपूर्व संपादक श्री रामरखसिंह सहगल के मासिक 'कर्मयोगी' में) 1947 में । प्रकाशित रचनाएँ : उपन्यास : सारा आकाश, उखड़े हुए लोग, शह और मात, एक इंच मुस्कान (मन्नू भंडारी के साथ), कुलटा, अनदेखे अनजाने पुल, मंत्रविद्ध। कहानी संग्रह : देवताओं की मूर्तियाँ, खेल-खिलौने, जहाँ लक्ष्मी कैद है, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, ढोल और अपने पार, वहाँ तक पहुँचने की दौड़, श्रेष्ठ कहानियाँ, प्रिय कहानियाँ, प्रतिनिधि कहानियाँ, प्रेम कहानियाँ, दस प्रतिनिधि कहानियाँ और चौखटे तोड़ते त्रिकोण। (अब तक की तमाम कहानियाँ पड़ाव -1, पड़ाव-2 और 'यहाँ तक' शीर्षक तीन जिल्दों में संकलित ) कविता संग्रह : आवाज तेरी है। समीक्षा-निबंध : कहानी: स्वरूप और संवेदना । उपन्यास : स्वरूप और संवेदना । कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति, औरों के बहाने, अठारह उपन्यास, कांटे की बात (बारह खण्ड ) । सम्पादन : नये साहित्यकार पुस्तकमाला में मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, फणीश्वरनाथ रेणु तथा मन्नू भंडारी की चुनी हुई कहानियाँ । एक दुनिया : समानान्तर, कथा-यात्रा, कथा-दशक, आत्मतर्पण और काली सुखियाँ (अफ्रीकी कहानियाँ) । अनुवाद उपन्यास : हमारे युग का एक नायक : लल्तोव, प्रथम प्रेम, वसन्त प्लावन तुर्गनेव, टक्कर: ऐन्तोन चेखव, सन्त सर्गीयस टॉलस्टॉय, एक महुआ : एक मोती : स्टाइन बैक, अजनबी अलवेयर कामू (छहों उपन्यास कथा -शिखर-1, 2 शीर्षक दो जिल्दों में संकलित) । निधन : 28 अक्टूबर, 2013

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