Halala
Publisher:
| Author:
| Language:
| Format:
Publisher:
Author:
Language:
Format:
₹395 ₹296
Save: 25%
In stock
Ships within:
In stock
ISBN:
Page Extent:
हलाला यानी तलाक़शुदा औरत किसी दूसरे मर्द से निकाह करे और फिर उससे तलाक़, या उसकी मौत के बाद ही वह पहले शौहर के लिए हलाल होती है, इसी का नाम हलाला है। सल्लाहे वलाहेअस्सलम ने क़ुरान के किस पारे (अध्याय) और सूरा (खण्ड) की किस आयत में कहा है कि पहले शौहर के पास वापस लौटने के लिए दूसरे शौहर से निकाह के बाद उससे ‘हम बिस्तर’ होना ज़रूरी है। दरअसल, हलाला धर्म की आड़ में बनाया गया एक ऐसा कानून है, जिसने स्त्री को भोग्या बनाने का काम किया है। सच तो यह है कि हलाला मर्द को तथाकथित सज़ा देने के नाम पर गढ़ा गया ऐसा पुरुषवादी षड्यन्त्र है जिसका ख़मियाजा अन्ततः औरत को ही भुगतना पड़ता है। सज़ा भी ऐसी जिसे आदिम बर्बरता के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। अपने पहले शौहर द्वारा तलाक़ दे दी गयी नज़राना का उसके पड़ोसी व दूसरे मर्द डमरू यानी कलसंडा से हुए तथाकथित निकाह और इस निकाह के बाद फिर से, तलाक़ देने की कोशिश के बावजूद नज़राना को क्या उसका पहला शौहर नियाज़ और उसका परिवार उसे अपनाने के लिए तैयार हो जाएगा? हलाला बज़रिए नज़राना सीधे-सीधे पुरुषवादी धार्मिक सत्ता और एक पारिवारिक-सामाजिक समस्या को धार्मिकता का आवरण ओढ़ा, स्त्री के दैहिक-शोषण के खि़लाफ़ बिगुल बजाने और स्त्री-शुचिता को बचाये रखने की कोशिश का आख्यान है। अपने गहरे कथात्मक अन्वेषण, लोकविमर्श और अछूते विषय को केन्द्र में रख कर रचे गये इस उपन्यास के माध्यम से भगवानदास मोरवाल एक बार फिर उस अवधारणा को तोड़ने में सफल हुए हैं कि आज़ादी के बाद मुस्लिम परिवेश को केन्द्र में रखकर उपन्यास नहीं लिखे जा रहे हैं। नियाज़, डमरू और नज़राना के माध्यम से स्त्री-पुरुष के आदिम सम्बन्धों, लोक के गाढ़े रंग और क़िस्सागोई से पगा यह उपन्यास उस हिन्दुस्तानी गन्ध से लबरेज़ है, जो इधर हिन्दी उपन्यास से तेज़ी से गायब होता जा रहा है।
हलाला यानी तलाक़शुदा औरत किसी दूसरे मर्द से निकाह करे और फिर उससे तलाक़, या उसकी मौत के बाद ही वह पहले शौहर के लिए हलाल होती है, इसी का नाम हलाला है। सल्लाहे वलाहेअस्सलम ने क़ुरान के किस पारे (अध्याय) और सूरा (खण्ड) की किस आयत में कहा है कि पहले शौहर के पास वापस लौटने के लिए दूसरे शौहर से निकाह के बाद उससे ‘हम बिस्तर’ होना ज़रूरी है। दरअसल, हलाला धर्म की आड़ में बनाया गया एक ऐसा कानून है, जिसने स्त्री को भोग्या बनाने का काम किया है। सच तो यह है कि हलाला मर्द को तथाकथित सज़ा देने के नाम पर गढ़ा गया ऐसा पुरुषवादी षड्यन्त्र है जिसका ख़मियाजा अन्ततः औरत को ही भुगतना पड़ता है। सज़ा भी ऐसी जिसे आदिम बर्बरता के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। अपने पहले शौहर द्वारा तलाक़ दे दी गयी नज़राना का उसके पड़ोसी व दूसरे मर्द डमरू यानी कलसंडा से हुए तथाकथित निकाह और इस निकाह के बाद फिर से, तलाक़ देने की कोशिश के बावजूद नज़राना को क्या उसका पहला शौहर नियाज़ और उसका परिवार उसे अपनाने के लिए तैयार हो जाएगा? हलाला बज़रिए नज़राना सीधे-सीधे पुरुषवादी धार्मिक सत्ता और एक पारिवारिक-सामाजिक समस्या को धार्मिकता का आवरण ओढ़ा, स्त्री के दैहिक-शोषण के खि़लाफ़ बिगुल बजाने और स्त्री-शुचिता को बचाये रखने की कोशिश का आख्यान है। अपने गहरे कथात्मक अन्वेषण, लोकविमर्श और अछूते विषय को केन्द्र में रख कर रचे गये इस उपन्यास के माध्यम से भगवानदास मोरवाल एक बार फिर उस अवधारणा को तोड़ने में सफल हुए हैं कि आज़ादी के बाद मुस्लिम परिवेश को केन्द्र में रखकर उपन्यास नहीं लिखे जा रहे हैं। नियाज़, डमरू और नज़राना के माध्यम से स्त्री-पुरुष के आदिम सम्बन्धों, लोक के गाढ़े रंग और क़िस्सागोई से पगा यह उपन्यास उस हिन्दुस्तानी गन्ध से लबरेज़ है, जो इधर हिन्दी उपन्यास से तेज़ी से गायब होता जा रहा है।
About Author
Reviews
There are no reviews yet.
Reviews
There are no reviews yet.