Guzar Kyon Nahin Jata
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यह उपन्यास पुरानी शराब जैसा है-20 साल बाद इसका आस्वाद कुछ और गाढ़ा हो गया है। इसलिए भी कि महानगर पहले से ज़्यादा शोर-संकुल हुए हैं, एकान्त पहले से ज़्यादा ज़ख्मी है और इन्सान के हिस्से का संघर्ष पहले से कहीं ज़्यादा अमानवीय है। और इसलिए भी कि धीरेन्द्र अस्थाना का यह उपन्यास बहुत सारी परतों वाला है-इसमें वह समकालीन समय मिलता है जिसमें दिल्ली और मुम्बई दोनों बदल रही हैं-कुछ अजनबी, कुछ हमलावर हुई जा रही हैं, इनमें सम्बन्धों की वह दुनिया है जो स्वार्थों की नींव पर टिकी है और जो सफलता और विफलता की कसौटियों से निर्धारित होती है और वह दुनिया भी जो सब कुछ के बाद भी अपनों की मदद के लिए खड़ी रहती है, अपना समय और साधन दोनों देने को तैयार। कभी चुस्त-चपल, कभी संकेतार्थी-संवेदनशील और कभी मार्मिक हो उठने वाली धीरेन्द्र अस्थाना की बहुत समृद्ध और समर्थ भाषा इस उपन्यास का एक अन्य आयाम है। यह एक लेखक-पत्रकार की कहानी है जो दिल्ली-मुम्बई के बीच बसने-उजड़ने, काम पाने-बेरोज़गार होने और लगातार संघर्ष करने को अभिशप्त है-लेकिन न हारने को उद्धत लेखक जो झेलता है, उससे ज़्यादा उसका परिवार झेलता है। उपन्यास में एक बहुत संक्षिप्त, लेकिन बहुत टीसने वाली जख्मी प्रेम कथा भी है जो मुम्बई में ही इस तरह घटित हो सकती है और बिखर भी सकती है। हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता को कुछ करीब से जानने वालों को इनमें कुछ जाने-पहचाने किरदार भी मिल सकते हैं जिनकी उदारताएँ-अनुदारताएँ हैरान कर सकती हैं। लेकिन यह कथा उन तक सिमटी नहीं है, यह उस न ख़त्म होने वाले संघर्ष का आईना है जो लेखकों-पत्रकारों की दुनिया का अपरिहार्य हिस्सा है और जिससे चमक-दमक के अन्तरालों के बीच लगातार मुठभेड़ होती रहती है। लेकिन सबसे ज़्यादा यह उस जिजीविषा का उपन्यास है जिसमें एक लेखक और मनुष्य हारने को तैयार नहीं है। बहुत कम शब्दों में, बिना अतिरिक्त ब्योरों के, धीरेन्द्र अस्थाना ने शहर को, समन्दर को, लोकल ट्रेनों को, भीड़ को, मण्डी हाउस और कनॉट प्लेस को भी ऐसे किरदारों में बदल दिया है जो इन्सान के दुख-सुख बाँटते लगते हैं। यह उपन्यास आप एक साँस में पढ़ सकते हैं, लेकिन वह लम्बी साँस फिर देर तक आपके भीतर बनी रह सकती है। – प्रियदर्शन
यह उपन्यास पुरानी शराब जैसा है-20 साल बाद इसका आस्वाद कुछ और गाढ़ा हो गया है। इसलिए भी कि महानगर पहले से ज़्यादा शोर-संकुल हुए हैं, एकान्त पहले से ज़्यादा ज़ख्मी है और इन्सान के हिस्से का संघर्ष पहले से कहीं ज़्यादा अमानवीय है। और इसलिए भी कि धीरेन्द्र अस्थाना का यह उपन्यास बहुत सारी परतों वाला है-इसमें वह समकालीन समय मिलता है जिसमें दिल्ली और मुम्बई दोनों बदल रही हैं-कुछ अजनबी, कुछ हमलावर हुई जा रही हैं, इनमें सम्बन्धों की वह दुनिया है जो स्वार्थों की नींव पर टिकी है और जो सफलता और विफलता की कसौटियों से निर्धारित होती है और वह दुनिया भी जो सब कुछ के बाद भी अपनों की मदद के लिए खड़ी रहती है, अपना समय और साधन दोनों देने को तैयार। कभी चुस्त-चपल, कभी संकेतार्थी-संवेदनशील और कभी मार्मिक हो उठने वाली धीरेन्द्र अस्थाना की बहुत समृद्ध और समर्थ भाषा इस उपन्यास का एक अन्य आयाम है। यह एक लेखक-पत्रकार की कहानी है जो दिल्ली-मुम्बई के बीच बसने-उजड़ने, काम पाने-बेरोज़गार होने और लगातार संघर्ष करने को अभिशप्त है-लेकिन न हारने को उद्धत लेखक जो झेलता है, उससे ज़्यादा उसका परिवार झेलता है। उपन्यास में एक बहुत संक्षिप्त, लेकिन बहुत टीसने वाली जख्मी प्रेम कथा भी है जो मुम्बई में ही इस तरह घटित हो सकती है और बिखर भी सकती है। हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता को कुछ करीब से जानने वालों को इनमें कुछ जाने-पहचाने किरदार भी मिल सकते हैं जिनकी उदारताएँ-अनुदारताएँ हैरान कर सकती हैं। लेकिन यह कथा उन तक सिमटी नहीं है, यह उस न ख़त्म होने वाले संघर्ष का आईना है जो लेखकों-पत्रकारों की दुनिया का अपरिहार्य हिस्सा है और जिससे चमक-दमक के अन्तरालों के बीच लगातार मुठभेड़ होती रहती है। लेकिन सबसे ज़्यादा यह उस जिजीविषा का उपन्यास है जिसमें एक लेखक और मनुष्य हारने को तैयार नहीं है। बहुत कम शब्दों में, बिना अतिरिक्त ब्योरों के, धीरेन्द्र अस्थाना ने शहर को, समन्दर को, लोकल ट्रेनों को, भीड़ को, मण्डी हाउस और कनॉट प्लेस को भी ऐसे किरदारों में बदल दिया है जो इन्सान के दुख-सुख बाँटते लगते हैं। यह उपन्यास आप एक साँस में पढ़ सकते हैं, लेकिन वह लम्बी साँस फिर देर तक आपके भीतर बनी रह सकती है। – प्रियदर्शन
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