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Guzar Kyon Nahin Jata

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
धीरेन्द्र अस्थाना
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
Publisher:
Vani Prakashan
Author:
धीरेन्द्र अस्थाना
Language:
Hindi
Format:
Paperback

198

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SKU 9789389563214 Category
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96

यह उपन्यास पुरानी शराब जैसा है-20 साल बाद इसका आस्वाद कुछ और गाढ़ा हो गया है। इसलिए भी कि महानगर पहले से ज़्यादा शोर-संकुल हुए हैं, एकान्त पहले से ज़्यादा ज़ख्मी है और इन्सान के हिस्से का संघर्ष पहले से कहीं ज़्यादा अमानवीय है। और इसलिए भी कि धीरेन्द्र अस्थाना का यह उपन्यास बहुत सारी परतों वाला है-इसमें वह समकालीन समय मिलता है जिसमें दिल्ली और मुम्बई दोनों बदल रही हैं-कुछ अजनबी, कुछ हमलावर हुई जा रही हैं, इनमें सम्बन्धों की वह दुनिया है जो स्वार्थों की नींव पर टिकी है और जो सफलता और विफलता की कसौटियों से निर्धारित होती है और वह दुनिया भी जो सब कुछ के बाद भी अपनों की मदद के लिए खड़ी रहती है, अपना समय और साधन दोनों देने को तैयार। कभी चुस्त-चपल, कभी संकेतार्थी-संवेदनशील और कभी मार्मिक हो उठने वाली धीरेन्द्र अस्थाना की बहुत समृद्ध और समर्थ भाषा इस उपन्यास का एक अन्य आयाम है। यह एक लेखक-पत्रकार की कहानी है जो दिल्ली-मुम्बई के बीच बसने-उजड़ने, काम पाने-बेरोज़गार होने और लगातार संघर्ष करने को अभिशप्त है-लेकिन न हारने को उद्धत लेखक जो झेलता है, उससे ज़्यादा उसका परिवार झेलता है। उपन्यास में एक बहुत संक्षिप्त, लेकिन बहुत टीसने वाली जख्मी प्रेम कथा भी है जो मुम्बई में ही इस तरह घटित हो सकती है और बिखर भी सकती है। हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता को कुछ करीब से जानने वालों को इनमें कुछ जाने-पहचाने किरदार भी मिल सकते हैं जिनकी उदारताएँ-अनुदारताएँ हैरान कर सकती हैं। लेकिन यह कथा उन तक सिमटी नहीं है, यह उस न ख़त्म होने वाले संघर्ष का आईना है जो लेखकों-पत्रकारों की दुनिया का अपरिहार्य हिस्सा है और जिससे चमक-दमक के अन्तरालों के बीच लगातार मुठभेड़ होती रहती है। लेकिन सबसे ज़्यादा यह उस जिजीविषा का उपन्यास है जिसमें एक लेखक और मनुष्य हारने को तैयार नहीं है। बहुत कम शब्दों में, बिना अतिरिक्त ब्योरों के, धीरेन्द्र अस्थाना ने शहर को, समन्दर को, लोकल ट्रेनों को, भीड़ को, मण्डी हाउस और कनॉट प्लेस को भी ऐसे किरदारों में बदल दिया है जो इन्सान के दुख-सुख बाँटते लगते हैं। यह उपन्यास आप एक साँस में पढ़ सकते हैं, लेकिन वह लम्बी साँस फिर देर तक आपके भीतर बनी रह सकती है। – प्रियदर्शन

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Description

यह उपन्यास पुरानी शराब जैसा है-20 साल बाद इसका आस्वाद कुछ और गाढ़ा हो गया है। इसलिए भी कि महानगर पहले से ज़्यादा शोर-संकुल हुए हैं, एकान्त पहले से ज़्यादा ज़ख्मी है और इन्सान के हिस्से का संघर्ष पहले से कहीं ज़्यादा अमानवीय है। और इसलिए भी कि धीरेन्द्र अस्थाना का यह उपन्यास बहुत सारी परतों वाला है-इसमें वह समकालीन समय मिलता है जिसमें दिल्ली और मुम्बई दोनों बदल रही हैं-कुछ अजनबी, कुछ हमलावर हुई जा रही हैं, इनमें सम्बन्धों की वह दुनिया है जो स्वार्थों की नींव पर टिकी है और जो सफलता और विफलता की कसौटियों से निर्धारित होती है और वह दुनिया भी जो सब कुछ के बाद भी अपनों की मदद के लिए खड़ी रहती है, अपना समय और साधन दोनों देने को तैयार। कभी चुस्त-चपल, कभी संकेतार्थी-संवेदनशील और कभी मार्मिक हो उठने वाली धीरेन्द्र अस्थाना की बहुत समृद्ध और समर्थ भाषा इस उपन्यास का एक अन्य आयाम है। यह एक लेखक-पत्रकार की कहानी है जो दिल्ली-मुम्बई के बीच बसने-उजड़ने, काम पाने-बेरोज़गार होने और लगातार संघर्ष करने को अभिशप्त है-लेकिन न हारने को उद्धत लेखक जो झेलता है, उससे ज़्यादा उसका परिवार झेलता है। उपन्यास में एक बहुत संक्षिप्त, लेकिन बहुत टीसने वाली जख्मी प्रेम कथा भी है जो मुम्बई में ही इस तरह घटित हो सकती है और बिखर भी सकती है। हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता को कुछ करीब से जानने वालों को इनमें कुछ जाने-पहचाने किरदार भी मिल सकते हैं जिनकी उदारताएँ-अनुदारताएँ हैरान कर सकती हैं। लेकिन यह कथा उन तक सिमटी नहीं है, यह उस न ख़त्म होने वाले संघर्ष का आईना है जो लेखकों-पत्रकारों की दुनिया का अपरिहार्य हिस्सा है और जिससे चमक-दमक के अन्तरालों के बीच लगातार मुठभेड़ होती रहती है। लेकिन सबसे ज़्यादा यह उस जिजीविषा का उपन्यास है जिसमें एक लेखक और मनुष्य हारने को तैयार नहीं है। बहुत कम शब्दों में, बिना अतिरिक्त ब्योरों के, धीरेन्द्र अस्थाना ने शहर को, समन्दर को, लोकल ट्रेनों को, भीड़ को, मण्डी हाउस और कनॉट प्लेस को भी ऐसे किरदारों में बदल दिया है जो इन्सान के दुख-सुख बाँटते लगते हैं। यह उपन्यास आप एक साँस में पढ़ सकते हैं, लेकिन वह लम्बी साँस फिर देर तक आपके भीतर बनी रह सकती है। – प्रियदर्शन

About Author

धीरेन्द्र अस्थाना जन्म : 25 दिसम्बर 1956, उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में। शिक्षा : मेरठ, मुज़फ़्फ़रनगर, आगरा और अन्ततः देहरादून से ग्रेजुएट। पत्रकारिता : सन् 1981 के अन्तिम दिनों में टाइम्स समूह की साप्ताहिक राजनैतिक पत्रिका 'दिनमान में बतौर उप सम्पादक प्रवेश। पाँच वर्ष बाद हिन्दी के पहले साप्ताहिक अख़बार 'चौथी दुनिया' में मुख्य उप सम्पादक यानी सन् 1986 में । सन् 1990 में दिल्ली में बना-बनाया घर छोड़कर सपरिवार मुम्बई गमन। एक्सप्रेस समूह के हिन्दी दैनिक 'जनसत्ता' में फीचर सम्पादक नियुक्त। मुम्बई शहर की पहली नगर पत्रिका 'सबरंग' का पूरे दस वर्षों तक सम्पादन। सन् 2001 में फिर दिल्ली लौटे। इस बार 'जागरण' समूह की पत्रिकाओं 'उदय' और 'सखी' का सम्पादन करने। 2003 में फिर मुम्बई वापसी। सहारा इंडिया परिवार के हिन्दी साप्ताहिक 'सहारा समय' के एसोसिएट एडिटर बन कर। आजकल स्वतन्त्र लेखन। कृतियाँ : लोग हाशिए पर, आदमी खोर, महिम, विचित्र देश की प्रेमकथा, जो मारे जायेंगे, उस रात की गन्ध, खुल जा सिमसिम, नींद के बाहर, पिता (कहानी संग्रह)। समय एक शब्द भर नहीं है, हलाहल, गुज़र क्यों नहीं जाता, देश निकाला (उपन्यास) । 'रूबरू', अन्तर्यात्रा (साक्षात्कार)। पुरस्कार : पहला महत्त्वपूर्ण पुरस्कार 1987 में दिल्ली में मिला : राष्ट्रीय संस्कृति पुरस्कार जो मशहूर पेंटर एम एफ हुसैन के हाथों स्वीकार किया। पत्रकारिता के लिए पहला महत्त्वपूर्ण पुरस्कार सन् 1994 में मिला : मौलाना अबुल कलाम आज़ाद पत्रकारिता पुरस्कार, मुम्बई में । मुम्बई में सन् 1995 का घनश्यामदास सराफ साहित्य सम्मान प्राप्त हुआ। सन् 1996 में इन्दु शर्मा कथा सम्मान से नवाजे गये। सन् 2011 में महाराष्ट्र की हिन्दी साहित्य अकादमी ने छत्रपति शिवाजी राष्ट्रीय सम्मान से समग्र साहित्य के लिए नवाज़ा।

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