Drishya Aur Dhwaniyan : Khand—2 (PB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
Sitanshu Yashaschandra
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Rajkamal
Author:
Sitanshu Yashaschandra
Language:
Hindi
Format:
Paperback

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गुजराती आदि भारतीय भाषाएँ एक विस्तृत सेमिओटिक नेटवर्क अर्थात् संकेतन-अनुबन्ध-व्यवस्था का अन्य-समतुल्य हिस्सा हैं। मूल बात ये है कि विशेष को मिटाए बिना सामान्य अथवा साधारण की रचना करने की, और तुल्य-मूल्य संकेतकों से बुनी हुई एक संकेतन-व्यवस्था रचने की जो भारतीय क्षमता है, उसका जतन होता रहे। राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय राज्यसत्ता, उपभोक्तावाद को बढ़ावा देनेवाली, सम्मोहक वाग्मिता के छल पर टिकी हुई धनसत्ता एवं आत्ममुग्ध, असहिष्णु विविध विचारसरणियाँ/आइडियोलॉजीज़ की तंत्रात्मक सत्ता, आदि परिबलों से शासित होने से भारतीय क्षमता को बचाते हुए, उस का संवर्धन होता रहे। गुजराती में से मेरे लेखों के हिन्दी अनुवाद करने का काम सरल तो था नहीं। गुजराती साहित्य की अपनी निरीक्षण परम्परा तथा सृजनात्मक लेखन की धारा बड़ी लम्बी है और उसी में से मेरी साहित्य तत्त्व-मीमांसा एवं कृतिनिष्ठ तथा तुलनात्मक आलोचना की परिभाषा निपजी है। उसी में मेरी सोच प्रतिष्ठित (एम्बेडेड) है। भारतीय साहित्य के गुजराती विवर्तों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जाने बिना मेरे लेखन का सही अनुवाद करना सम्भव नहीं है, मैं जानता हूँ। इसीलिए इन लेखों का हिन्दी अनुवाद टिकाऊ स्नेह और बड़े कौशल्य से जिन्होंने किया है, उन अनुवादक सहृदयों का मैं गहरा ऋणी हूँ। ये पुस्तक पढ़नेवाले हिन्दीभाषी सहृदय पाठकों का सविनय धन्यवाद, जिनकी दृष्टि का जल मिलने से ही तो यह पन्ने पल्लवित होंगे।    
—सितांशु यशश्चन्द्र (प्रस्तावना से)
”हमारी परम्परा में गद्य को कवियों का निकष माना गया है। रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत हम इधर सक्रिय भारतीय कवियों के गद्य के अनुवाद की एक सीरीज़ प्रस्तुत कर रहे हैं। इस सीरीज़ में बाङ्ला के मूर्धन्य कवि शंख घोष के गद्य का संचयन दो खण्डों में प्रकाशित हो चुका है। अब गुजराती कवि सितांशु यशश्चन्द्र के गद्य का हिन्दी अनुवाद दो जि़ल्दों में पेश है। पाठक पाएँगे कि सितांशु के कवि-चिन्तन का वितान गद्य में कितना व्यापक है—उसमें परम्परा, आधुनिकता, साहित्य के कई पक्षों से लेकर कुछ स्थानीयताओं पर कुशाग्रता और ताज़ेपन से सोचा गया है। हमें भरोसा है कि यह गद्य हिन्दी की अपनी आलोचना में कुछ नया जोड़ेगा।”     —अशोक वाजपेयी

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गुजराती आदि भारतीय भाषाएँ एक विस्तृत सेमिओटिक नेटवर्क अर्थात् संकेतन-अनुबन्ध-व्यवस्था का अन्य-समतुल्य हिस्सा हैं। मूल बात ये है कि विशेष को मिटाए बिना सामान्य अथवा साधारण की रचना करने की, और तुल्य-मूल्य संकेतकों से बुनी हुई एक संकेतन-व्यवस्था रचने की जो भारतीय क्षमता है, उसका जतन होता रहे। राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय राज्यसत्ता, उपभोक्तावाद को बढ़ावा देनेवाली, सम्मोहक वाग्मिता के छल पर टिकी हुई धनसत्ता एवं आत्ममुग्ध, असहिष्णु विविध विचारसरणियाँ/आइडियोलॉजीज़ की तंत्रात्मक सत्ता, आदि परिबलों से शासित होने से भारतीय क्षमता को बचाते हुए, उस का संवर्धन होता रहे। गुजराती में से मेरे लेखों के हिन्दी अनुवाद करने का काम सरल तो था नहीं। गुजराती साहित्य की अपनी निरीक्षण परम्परा तथा सृजनात्मक लेखन की धारा बड़ी लम्बी है और उसी में से मेरी साहित्य तत्त्व-मीमांसा एवं कृतिनिष्ठ तथा तुलनात्मक आलोचना की परिभाषा निपजी है। उसी में मेरी सोच प्रतिष्ठित (एम्बेडेड) है। भारतीय साहित्य के गुजराती विवर्तों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जाने बिना मेरे लेखन का सही अनुवाद करना सम्भव नहीं है, मैं जानता हूँ। इसीलिए इन लेखों का हिन्दी अनुवाद टिकाऊ स्नेह और बड़े कौशल्य से जिन्होंने किया है, उन अनुवादक सहृदयों का मैं गहरा ऋणी हूँ। ये पुस्तक पढ़नेवाले हिन्दीभाषी सहृदय पाठकों का सविनय धन्यवाद, जिनकी दृष्टि का जल मिलने से ही तो यह पन्ने पल्लवित होंगे।    
—सितांशु यशश्चन्द्र (प्रस्तावना से)
”हमारी परम्परा में गद्य को कवियों का निकष माना गया है। रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत हम इधर सक्रिय भारतीय कवियों के गद्य के अनुवाद की एक सीरीज़ प्रस्तुत कर रहे हैं। इस सीरीज़ में बाङ्ला के मूर्धन्य कवि शंख घोष के गद्य का संचयन दो खण्डों में प्रकाशित हो चुका है। अब गुजराती कवि सितांशु यशश्चन्द्र के गद्य का हिन्दी अनुवाद दो जि़ल्दों में पेश है। पाठक पाएँगे कि सितांशु के कवि-चिन्तन का वितान गद्य में कितना व्यापक है—उसमें परम्परा, आधुनिकता, साहित्य के कई पक्षों से लेकर कुछ स्थानीयताओं पर कुशाग्रता और ताज़ेपन से सोचा गया है। हमें भरोसा है कि यह गद्य हिन्दी की अपनी आलोचना में कुछ नया जोड़ेगा।”     —अशोक वाजपेयी

About Author

सितांशु यशश्चन्द्र (जन्म : 1941)

समकालीन गुजराती साहित्य के एक मूर्धन्य लेखक हैं—कवि, नाटककार, विचारक, अनुवादक। आपके रचनात्मक, आलोचनात्मक और अकादेमिक कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा देश-विदेश में होती रही हैं। आप के.के. बिड़ला फ़ाउंडेशन के ‘सरस्वती सम्मान’ से विभूषित हैं और आपको केन्द्रीय साहित्य अकादेमी का पुरस्कार (1987), ‘राष्ट्रीय कबीर सम्मान’ (म.प्र.), ‘गंगाधर महेर सम्मान’ (ओडिसा), ‘कवि कुसुमाग्रज राष्ट्रीय पुरस्कार’ (महाराष्ट्र) 2013, ‘नेशनल हारमनी अवार्ड’, ‘रंजीतराम सुवर्ण चन्द्रक’ (अहमदाबाद) 1987, ‘गुजरात गौरव पुरस्कार’ (2014) आदि प्राप्त हुए हैं। अन्तरराष्ट्रीय फलक पर आपने अनेक संस्थानों, साहित्य-उत्सवों, विश्वविद्यालयों आदि में काव्य-पाठ किए हैं और अनेक देशों के प्रमुख निर्देशकों ने आपके नाटक मंचित किए हैं। आप फुलब्राइट स्कॉलर रहे हैं और आपको ‘फ़ोर्ड वेस्ट यूरोपियन शोधवृत्ति’ भी प्राप्त हुई है। आपने ‘सौराष्ट्र विश्वविद्यालय’ के कुलपति के रूप में अपनी सेवाएँ दी हैं और ‘यूजीसी’ के एमेरिटस प्रोफ़ेसर भी रहे हैं। आप ‘एम.एस. विश्वविद्यालय, बडौदा’ में गुजराती भाषा के प्रोफ़ेसर और अध्यक्ष रहे हैं और ‘सोरबन विश्वविद्यालय’ (पेरिस), ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेनसिल्विया’, ‘लॉयला मेरीमाउंट यूनिवर्सिटी’ (लॉस एंजिल्स) और ‘जादवपुर विश्वविद्यालय’ (कोलकाता) में विजि़टिंग प्रोफ़ेसर भी रहे हैं। गुजराती भाषा में आपके चार से अधिक कविता-संग्रह, छ: नाटक और आलोचना-विमर्श की तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं और अनेक कृतियों के देश-विदेश की भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। इन दिनों वडोदरा (गुजरात) में रहते हैं।

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