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Dhwani Aur Sangeet

Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
| Author:
ललितकिशोर सिंह
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
Publisher:
Jnanpith Vani Prakashan LLP
Author:
ललितकिशोर सिंह
Language:
Hindi
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Hardback

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SKU 9789357752848 Category
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242

ध्वनि और संगीत

भारतीय ध्वनि और संगीत का अपना एक विलक्षण दृष्टिकोण है। और वह दृष्टिकोण अब मात्र श्रुत या शास्त्रीय ही नहीं, उसने विज्ञान का रूप ले लिया है। ध्वनि और संगीत का शास्त्रीय विवेचन और वैज्ञानिक आधार पर हुआ अब तक का शोध कार्य एक साथ इस एक ही कृति में सुलभ किया गया है। निश्चय ही संगीत-साधक इससे एक नयी दृष्टि पाएँगे। उनके अभ्यास में आनेवाले नियम-उपनियम या संगीत – संरचनाएँ अब उनके बोध को इस प्रकार जाग्रत करेंगे और अपना रहस्य खोलेंगे, मानो एक नया संसार उद्भासित हुआ हो जहाँ सब कुछ व्यवस्थित है, तर्कसंगत है, सुन्दर और पारदर्शी है।

पुस्तक दो भागों में विभाजित है। प्रथम भाग में ध्वनि-विज्ञान का तथ्यपूर्ण एवं सैद्धान्तिक प्रस्तुतीकरण है। द्वितीय भाग में नये-पुराने – प्राचीन, मध्यकालीन व आधुनिक-सभी भारतीय स्वर-ग्रामों का विज्ञान सम्मत शास्त्रीय विश्लेषण है।

भारतीय संगीत की अपनी एक परम्परा है, उसका अपना एक अलग दृष्टिकोण है, उसमें आत्मिक उत्थान के लिए सम्बल है और समाधि की-सी तल्लीनता है। किन्तु उसका समस्त आधार और विस्तार आधुनिक अर्थों में वैज्ञानिक भी है। यह प्रतीति इस पुस्तक के पाठक को और संगीत-साधक को एक नयी उपलब्धि के सुख पुलकित करेगी ।

एक अत्यन्त उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण कृति का संस्करण – नये रूपाकार में।

܀܀܀

संगीत की एक और विशेष पुस्तक भारतीय संगीत वाद्य

इस ग्रन्थ में वाद्ययों के स्वरूप वर्णन तथा उनकी वादन सामग्री के वर्णन के परिणामस्वरूप न केवल कुछ अप्रचलित वाद्यों की जानकारी होगी अपितु कई भ्रान्त धारणाओं का निराकरण भी होगा। महर्षि भरत द्वारा वर्णित मृदंग, प्राचीन पटह, पणव, दुर्दुर आदि के रूपों का ज्ञान आधुनिक अवनद्ध वाद्यों पर विदेशी प्रभाव की मान्यता को समूल नष्ट कर देता है। प्राचीन एकतन्त्री, त्रितन्त्री, महती आदि वीणाओं का अध्ययन आधुनिक वाद्यों की भारतीय परम्परा को पुष्ट करता है तथा आधुनिक लेखकों के अनुमान के आधार पर की गयी अनेक स्थापनाओं को अमान्य सिद्ध करता है। जिस प्रकार भरत मुनि द्वारा बताई गयी सारणा चतुष्टय की प्रक्रिया को वीणा पर सुन लेने के बाद श्रुति सम्बन्धी समस्त भ्रान्तियाँ विनष्ट हो जाती हैं उसी प्रकार वाद्य रूपों तथा उनके क्रमिक विकास का अध्ययन कर लेने पर भारतीय संगीत तथा संगीत वाद्यों में हुए परिवर्तनों पर, विदेशी प्रभाव की मान्यताओं का कालुष्य छँट जाता है। इस ग्रन्थ में प्रस्तुत भारतीय वाद्यों के विवेचन से यह स्वतः सिद्ध है कि भारतीय संगीत की प्राचीन परम्परा का प्रत्यक्षीकरण भारतीय वाद्यों तथा उनकी वादन – विधि के गहरे अध्ययन के बिना सम्भव नहीं है। अतएव इस ग्रन्थ के उद्देश्य के रूप में मुख्यतः तीन बातें कही जा सकती हैं :

1. प्रचलित तथा अप्रचलित भारतीय वाद्य-रूपों की जानकारी ।

2. भारतीय वाद्यों की प्राचीन तथा अर्वाचीन वादन – विधि की जानकारी।

3. भारतीय संगीत के उन तमाम सिद्धान्तों का प्रत्यक्षीकरण जिनका वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध है तथा जो आज के संगीतज्ञ के लिए अपनी परम्परा को बनाये रखने के लिए नितान्त आवश्यक है तथापि जिनसे वह पूर्णतः अपरिचित हो गया है।

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Description

ध्वनि और संगीत

भारतीय ध्वनि और संगीत का अपना एक विलक्षण दृष्टिकोण है। और वह दृष्टिकोण अब मात्र श्रुत या शास्त्रीय ही नहीं, उसने विज्ञान का रूप ले लिया है। ध्वनि और संगीत का शास्त्रीय विवेचन और वैज्ञानिक आधार पर हुआ अब तक का शोध कार्य एक साथ इस एक ही कृति में सुलभ किया गया है। निश्चय ही संगीत-साधक इससे एक नयी दृष्टि पाएँगे। उनके अभ्यास में आनेवाले नियम-उपनियम या संगीत – संरचनाएँ अब उनके बोध को इस प्रकार जाग्रत करेंगे और अपना रहस्य खोलेंगे, मानो एक नया संसार उद्भासित हुआ हो जहाँ सब कुछ व्यवस्थित है, तर्कसंगत है, सुन्दर और पारदर्शी है।

पुस्तक दो भागों में विभाजित है। प्रथम भाग में ध्वनि-विज्ञान का तथ्यपूर्ण एवं सैद्धान्तिक प्रस्तुतीकरण है। द्वितीय भाग में नये-पुराने – प्राचीन, मध्यकालीन व आधुनिक-सभी भारतीय स्वर-ग्रामों का विज्ञान सम्मत शास्त्रीय विश्लेषण है।

भारतीय संगीत की अपनी एक परम्परा है, उसका अपना एक अलग दृष्टिकोण है, उसमें आत्मिक उत्थान के लिए सम्बल है और समाधि की-सी तल्लीनता है। किन्तु उसका समस्त आधार और विस्तार आधुनिक अर्थों में वैज्ञानिक भी है। यह प्रतीति इस पुस्तक के पाठक को और संगीत-साधक को एक नयी उपलब्धि के सुख पुलकित करेगी ।

एक अत्यन्त उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण कृति का संस्करण – नये रूपाकार में।

܀܀܀

संगीत की एक और विशेष पुस्तक भारतीय संगीत वाद्य

इस ग्रन्थ में वाद्ययों के स्वरूप वर्णन तथा उनकी वादन सामग्री के वर्णन के परिणामस्वरूप न केवल कुछ अप्रचलित वाद्यों की जानकारी होगी अपितु कई भ्रान्त धारणाओं का निराकरण भी होगा। महर्षि भरत द्वारा वर्णित मृदंग, प्राचीन पटह, पणव, दुर्दुर आदि के रूपों का ज्ञान आधुनिक अवनद्ध वाद्यों पर विदेशी प्रभाव की मान्यता को समूल नष्ट कर देता है। प्राचीन एकतन्त्री, त्रितन्त्री, महती आदि वीणाओं का अध्ययन आधुनिक वाद्यों की भारतीय परम्परा को पुष्ट करता है तथा आधुनिक लेखकों के अनुमान के आधार पर की गयी अनेक स्थापनाओं को अमान्य सिद्ध करता है। जिस प्रकार भरत मुनि द्वारा बताई गयी सारणा चतुष्टय की प्रक्रिया को वीणा पर सुन लेने के बाद श्रुति सम्बन्धी समस्त भ्रान्तियाँ विनष्ट हो जाती हैं उसी प्रकार वाद्य रूपों तथा उनके क्रमिक विकास का अध्ययन कर लेने पर भारतीय संगीत तथा संगीत वाद्यों में हुए परिवर्तनों पर, विदेशी प्रभाव की मान्यताओं का कालुष्य छँट जाता है। इस ग्रन्थ में प्रस्तुत भारतीय वाद्यों के विवेचन से यह स्वतः सिद्ध है कि भारतीय संगीत की प्राचीन परम्परा का प्रत्यक्षीकरण भारतीय वाद्यों तथा उनकी वादन – विधि के गहरे अध्ययन के बिना सम्भव नहीं है। अतएव इस ग्रन्थ के उद्देश्य के रूप में मुख्यतः तीन बातें कही जा सकती हैं :

1. प्रचलित तथा अप्रचलित भारतीय वाद्य-रूपों की जानकारी ।

2. भारतीय वाद्यों की प्राचीन तथा अर्वाचीन वादन – विधि की जानकारी।

3. भारतीय संगीत के उन तमाम सिद्धान्तों का प्रत्यक्षीकरण जिनका वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध है तथा जो आज के संगीतज्ञ के लिए अपनी परम्परा को बनाये रखने के लिए नितान्त आवश्यक है तथापि जिनसे वह पूर्णतः अपरिचित हो गया है।

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