Dhalti Sham Ke Lambe Saye

Publisher:
Vani Prakashan
| Author:
गोपाल माथुर
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
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Vani Prakashan
Author:
गोपाल माथुर
Language:
Hindi
Format:
Paperback

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240

कुछ देर वे यूँ ही चुपचाप चलते रहे। जो सूखे पत्ते हवा के साथ उड़ कर सड़क पर आ गये थे, जब उनके क़दमों के नीचे आते, चरमराने की आवाज़ें उनके कानों में भरने लगतीं। उन पत्तों का दुःख सड़क अपनी ख़ामोशी के साथ सह रही थी। सरसराती हवा, चरमराते पत्तों की आवाज़ें और कहीं दूर से आ रही लड़कियों के हँसने की आवाज़ें शाम की उदासी और बढ़ा रही थीं। रात भी शाम को एक ओर सरकाते हुए झिझकती हुई सी आहिस्ता-आहिस्ता उतरने लगी थी और आकाश में शेष बचा आलोक भी बुझने लगा था। रोड लाइट्स की सफ़ेद रोशनी में सारा कैम्पस किसी स्टिल लाइफ के चित्र – सा जान पड़ता था ।

“क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ज़िन्दगी नये सिरे से शुरू की जा सके?” शिप्रा की आवाज़ कँपकँपा रही थी। उसे यह कहने में अथक प्रयास करना पड़ा था।

“की जा सकती है, बशर्ते कि मन में चाहना हो।” वह अब भी शिप्रा के हाथ पकड़े हुए था।

शिप्रा की निगाहें कहीं और टिकी हुई थीं। वह उससे आँखें मिलाने से बच रही थी। उसका यह असमंजस वह पहले भी देख चुका था, जो उलझन में उतना नहीं डालता था, जितना उदास कर जाता था।

“हमारे साथ ऐसा क्यों हुआ ?” शिप्रा की आवाज़ काँप रही थी । उसने अभिनव के हाथों को अपने गालों से सटा लिया। वहाँ आँसू थे, जो अँधेरे में चुपचाप बह रहे थे। वह उन्हें महसूस कर सकता था। उन आँसुओं में पिछले छब्बीस सालों की अकेली ज़िन्दगी की यातना छिपी हुई थी। जिन कारणों से वे अलग हुए थे, अब वे मृत होकर निढाल पड़े थे ।

-अंश इसी उपन्यास से

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Description

कुछ देर वे यूँ ही चुपचाप चलते रहे। जो सूखे पत्ते हवा के साथ उड़ कर सड़क पर आ गये थे, जब उनके क़दमों के नीचे आते, चरमराने की आवाज़ें उनके कानों में भरने लगतीं। उन पत्तों का दुःख सड़क अपनी ख़ामोशी के साथ सह रही थी। सरसराती हवा, चरमराते पत्तों की आवाज़ें और कहीं दूर से आ रही लड़कियों के हँसने की आवाज़ें शाम की उदासी और बढ़ा रही थीं। रात भी शाम को एक ओर सरकाते हुए झिझकती हुई सी आहिस्ता-आहिस्ता उतरने लगी थी और आकाश में शेष बचा आलोक भी बुझने लगा था। रोड लाइट्स की सफ़ेद रोशनी में सारा कैम्पस किसी स्टिल लाइफ के चित्र – सा जान पड़ता था ।

“क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ज़िन्दगी नये सिरे से शुरू की जा सके?” शिप्रा की आवाज़ कँपकँपा रही थी। उसे यह कहने में अथक प्रयास करना पड़ा था।

“की जा सकती है, बशर्ते कि मन में चाहना हो।” वह अब भी शिप्रा के हाथ पकड़े हुए था।

शिप्रा की निगाहें कहीं और टिकी हुई थीं। वह उससे आँखें मिलाने से बच रही थी। उसका यह असमंजस वह पहले भी देख चुका था, जो उलझन में उतना नहीं डालता था, जितना उदास कर जाता था।

“हमारे साथ ऐसा क्यों हुआ ?” शिप्रा की आवाज़ काँप रही थी । उसने अभिनव के हाथों को अपने गालों से सटा लिया। वहाँ आँसू थे, जो अँधेरे में चुपचाप बह रहे थे। वह उन्हें महसूस कर सकता था। उन आँसुओं में पिछले छब्बीस सालों की अकेली ज़िन्दगी की यातना छिपी हुई थी। जिन कारणों से वे अलग हुए थे, अब वे मृत होकर निढाल पड़े थे ।

-अंश इसी उपन्यास से

About Author

गोपाल माथुर - जन्म : 1 सितम्बर 1949, माउंट आबू । शिक्षा : स्नातकोत्तर (अर्थशास्त्र) । प्रकाशन : तुम (कविताएँ), लौटता नहीं कोई, धुँधले अतीत की आहटें (उपन्यास), बीच में कहीं, जहाँ ईश्वर नहीं था (कहानी संग्रह), लम्बे दिन की यात्रा : रात में (अंग्रेज़ी नाटक का हिन्दी अनुवाद), आस है कि टूटती ही नहीं (नाटक), उदास मौसम का गीत (उपन्यासिका) । अनेक प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं, जैसे 'नया ज्ञानोदय', 'कथादेश', 'दोआबा', 'हंस', 'पाखी', ‘कथाक्रम', 'मधुमती', 'विश्व रंग', 'बहुमत' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशन, आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारण। जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल और अजमेर लिटरेरी फेस्टिवल सहित अनेक गोष्ठियों में प्रतिभागिता । सम्पर्क : जी-111, जी ब्लॉक, माकड़वाली रोड, अजमेर- 305004 मोबाइल : 8209310034, 9829182320 ई-मेल : gopalmathur109@gmail.com

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