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Deshnama Gaonnama Hard Cover
Publisher:
Radhakrishna Prakashan
| Author:
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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Radhakrishna Prakashan
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Hindi
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9788119092666
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देवीशरण ठेठ आदमी हैं। वे अपने उपनाम ‘ग्रामीण’ को सार्थक करते हैं। गाँव का आदमी रूप, रंग और शृंगार की परवाह किये बिना अपनी मूल वस्तु के भरोसे जीवन जीता है। उसमें कुंठायें नहीं होतीं। आइने के सामने होकर वह फूलता नहीं। वह आदमी अपनी रचना के लिये जो भी चुनता है, वह उपयोग की प्रेरणा से बनती है। देवीशरण ‘ग्रामीण’ इसी प्रकृति की छाया में कविता, कहानी या गाँवनामा लिखते हैं। धूल, लाटा, चना, मजदूर, नदी-नाले, घर-छप्पर उनकी कविताओं के शीर्षक हैं। इन वस्तुओं के विश्लेषण के बजाय ‘ग्रामीण’ जी अपनी रचनाओं के द्वारा उनकी वस्तुओं से अपने अभिप्राय व्यक्त करते हैं। उनसे अपने मन की बात कहलवाते हैं। मानवीकरण करते हैं। इन वस्तुओं के प्रति अपना राग व्यक्त करते हैं। वे वस्तुओं को बुद्धि के आकाश में नहीं उड़ाते। वे आम आदमी को सम्बोधित करते रहते हैं। वे सिखाने-समझाने की प्रतिज्ञा से आगे बढ़ते हैं।
देवीशरण जी की अपनी आस्था है। आस्था ऐसी जो मनुष्य की समानता के लिये प्रतिबद्ध है। और आगे कहें तो यह कि वे मार्क्सवाद पर भरोसा करते हैं। मार्क्सवाद की बुनियादी निष्पत्तियाँ उनके भावबोध का अंग बन गई हैं। वे स्वाभाविक सी हो गई हैं, उनके लिये। अतः रचनाओं का स्फुरण इसी आस्थाजन्य स्वाभाविक प्रक्रिया से होता है। ग्रामीण जी मानते हैं कि श्रमिकों की संगठित शक्ति अपराजेय होती है। वे अपनी अनेक कविताओं में इसे व्यक्त करते हैं। उनका कविता संसार जीवन का वास्तविक क्षेत्र है। वह ज्यादातर अभिधा में हैं। उसमें गहरा आशावाद है। इस तरह की निरलंकृत कविता जनता की प्राथमिक दीक्षा के काम आती है। जनता के भावों का सीधा-साझापन इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। इन कविताओं की प्रासंगिकता लम्बे समय तक रहेगी। — कमला प्रसाद
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Description
देवीशरण ठेठ आदमी हैं। वे अपने उपनाम ‘ग्रामीण’ को सार्थक करते हैं। गाँव का आदमी रूप, रंग और शृंगार की परवाह किये बिना अपनी मूल वस्तु के भरोसे जीवन जीता है। उसमें कुंठायें नहीं होतीं। आइने के सामने होकर वह फूलता नहीं। वह आदमी अपनी रचना के लिये जो भी चुनता है, वह उपयोग की प्रेरणा से बनती है। देवीशरण ‘ग्रामीण’ इसी प्रकृति की छाया में कविता, कहानी या गाँवनामा लिखते हैं। धूल, लाटा, चना, मजदूर, नदी-नाले, घर-छप्पर उनकी कविताओं के शीर्षक हैं। इन वस्तुओं के विश्लेषण के बजाय ‘ग्रामीण’ जी अपनी रचनाओं के द्वारा उनकी वस्तुओं से अपने अभिप्राय व्यक्त करते हैं। उनसे अपने मन की बात कहलवाते हैं। मानवीकरण करते हैं। इन वस्तुओं के प्रति अपना राग व्यक्त करते हैं। वे वस्तुओं को बुद्धि के आकाश में नहीं उड़ाते। वे आम आदमी को सम्बोधित करते रहते हैं। वे सिखाने-समझाने की प्रतिज्ञा से आगे बढ़ते हैं।
देवीशरण जी की अपनी आस्था है। आस्था ऐसी जो मनुष्य की समानता के लिये प्रतिबद्ध है। और आगे कहें तो यह कि वे मार्क्सवाद पर भरोसा करते हैं। मार्क्सवाद की बुनियादी निष्पत्तियाँ उनके भावबोध का अंग बन गई हैं। वे स्वाभाविक सी हो गई हैं, उनके लिये। अतः रचनाओं का स्फुरण इसी आस्थाजन्य स्वाभाविक प्रक्रिया से होता है। ग्रामीण जी मानते हैं कि श्रमिकों की संगठित शक्ति अपराजेय होती है। वे अपनी अनेक कविताओं में इसे व्यक्त करते हैं। उनका कविता संसार जीवन का वास्तविक क्षेत्र है। वह ज्यादातर अभिधा में हैं। उसमें गहरा आशावाद है। इस तरह की निरलंकृत कविता जनता की प्राथमिक दीक्षा के काम आती है। जनता के भावों का सीधा-साझापन इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। इन कविताओं की प्रासंगिकता लम्बे समय तक रहेगी। — कमला प्रसाद
About Author
देवीशरण ‘ग्रामीण’
मध्य प्रदेश के सतना जिले के गाँव बाबूपुर में 28 दिसम्बर, 1932 को जन्मे देवीशरण सिंह आजीवन प्रगतिशील विचारों के प्रचार-प्रसार में लगे रहे। प्रगतिशील विचारधारा से जुड़ने के बाद उन्होंने अपना उपनाम ‘ग्रामीण’ रख लिया था। उन्होंने हिन्दी और बघेली, दोनों भाषाओं में कविता, कहानी और निबन्ध सहित कई अन्य विधाओं में भी लेखन किया और बघेलखंड का प्रतिनिधि स्वर बन गए। आजीविका के लिए उन्होंने शिक्षक के रूप में कार्य किया लेकिन कभी किसानी नहीं छोड़ी।
दैनिक ‘देशबन्धु’, सतना में उनका स्तम्भ ‘गाँवनामा’ कई वर्षों तक प्रकाशित हुआ और खासा लोकप्रिय रहा। वे जीवन-भर प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे। कुछ वर्षों तक मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष मंडल में रहे।
उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं—‘गाँवों की धूल से’ (कहानी-संग्रह), ‘धूलध्वनि’ (कविता-संग्रह), ‘प्रस्थान’ (गीत-संग्रह), ‘महँगाई’ (एकांकी-संग्रह), ‘आल्हा ऊदल’ (लोक-आख्यान), ‘गाँवनामा’ और ‘हम और हमारा स्वराज्य’ (निबन्ध-संग्रह)।
उन्हें नेशनल बुक ट्रस्ट के ‘राष्ट्रीय भाषा सम्मान’, मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ‘वागीश्वरी पुरस्कार’, ‘भगवान दास सफड़िया साहित्य सेवी सम्मान’ और ‘बघेली भाषा सम्मान’ सहित अनेक सम्मानों से सम्मानित किया गया।
22 अक्टूबर, 2018 को उनका निधन हुआ।
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